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वर्तमान में आयुर्वेद विकास में शिक्षकों और चिकित्सको के कन्धों पर गुरुतर भार 

वर्तमान में आयुर्वेद विकास में शिक्षकों और चिकित्सको के कन्धों पर गुरुतर भार 

विगत दिन आई एम् ए द्वारा अखिल भारत बंद का आयोजन आयुर्वेद चिकिसकों को शल्य क्रिया का अधिकार देने के विरोध में किया गया ,जिसके अलग अलग दावें किये जा रहे हैं। पर केंद्र सरकार द्वारा जारी अध्यादेश लागू करने और जन सामान्य का  सहयोग मिलने से आई एम् ए को आशातीत सफलता नहीं मिल पायी और न मिलेंगी। कारण केंद्र सरकार द्वारा बहुत चिंतन और मनन के आधार पर ही आयुर्वेद चिकित्सकों को शल्य क्रिया का अधिकार दिया गया हैं ,जिसके लिए आयुर्वेद परिवार केंद्र सरकार का बहुत आभारी हैं। 
१२ दिसंबर २०२० के जनसत्ता में प्रकाशित लेख "स्वास्थ्य के क्षेत्र में ख़राब सेहत "स्पष्ट उल्लेखित किया गया हैं की देश में पंजीकृत चिकित्सकों की संख्या सात लाख पचास हज़ार हैं औरअभी देश में ६ लाख डॉक्टर्स और २० लख नर्सों की जरुरत हैं। अभी देश में १०१८९ की आबादी में एक डॉक्टर हैं जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार एक हजार की आबादी में एक चिकित्सक होना चाहिए । इस समय देश की स्वास्थ्य समस्या में सबसे बड़ा योगदान विशेषज्ञ चिकिसकों द्वारा अंधाधुंध एंटी ---बॉयटिक्स का उपयोग और उनके दुष्परिणामों से देश का स्वास्थ्य बिगाड़ा हैं। आज स्वयं एलॉपथी के चिकित्सा करने वाले आयुर्वेद ,होमियोपैथी का इलाज़ लेना पसंद करते हैं। कारण एंटीबॉयटिक्स के दुष्परिणामों और कॉर्टिकॉस्टेरॉइड्स के दुष्परिणामों से पूरा समाज दुखी और भयभीत हैं। आजकल देश और विदेशों में एंटीबॉयटिक्स का बहिष्कार हो रहा हैं और अत्यंत  आवश्यकता होने पर उपयोग करते हैं पर चिकित्सक स्वयं कम से कम उपयोग करते हैं। 
 आयुर्वेद चिकित्सा का सिद्धांत हैं स्वस्थ्य के स्वास्थ्य की रक्षा करना  और बीमार का इलाज़ करना। आयुर्वेद के बारे में लोगों में बहुत भ्रांतियां हैं। उनका मानना हैं आयुर्वेद जड़ी बूटी का विज्ञान हैं जबकि आयुर्वेद एक दर्शन हैं जिसके माध्यम से हम अपना जीवन कैसे सुन्दर और कलात्मक बना सकते हैं। आयुर्वेद की परिभाषा को समझना जरुरी हैं। आयु +वेद =आयुर्वेद. आयु यानी शरीर आत्मा ,मन और इन्द्रियों के संयोग को आयु कहते हैं और जिसमे यह ज्ञान मिलता हैं उसे वेद या विज्ञानं कहते हैं। इसीलिए अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संसथान नाम रखा गया हैं। क्योकि शरीर में सब रोगो होने से उसकी चिकित्सा करने आयुर्वेद  या आयुर्विज्ञान की जरुरत पड़ती हैं। 
चिकित्सा  के चार स्तम्भ होते हैं जिन पर चिकित्सा अवलंवित हैं। चिकित्सक ,औषधि ,नर्सिंग स्टाफ और रोगी। इनके चार चार गुण होने से १६ गुण होते हैं। जिस प्रकार चन्द्रमा में सौलह कलाएं पूर्ण होने से वह पूर्ण माना जाता हैं उसी प्रकार चिकित्सा के १६ गुण के पूर्ण होने पर चिकित्सा पूरी मानी जाते हैं जितनी जितनी कलाएं कम होती जाती हैं उतनी चिकित्सा अपूर्ण होती जाती  हैं। 
भारत वर्ष में लगभग एक सौ पचास वर्षों से एलॉपथी चिकित्सा द्वारा बहुत देश की सेवा की और करोड़ों की जान बचाई और हर समय आज भी मुख्यधारा में कार्यरत हैं। चिकित्सा क्षेत्र में जितना अधिक से अधिक शोध से चिकित्सा विज्ञानं और शल्यतंत्र में बहुत विकास हुआ। तकनिकी साधनों ने सुगम कर दिया। चिकित्सा फलदायी होती हैं वह रोग से मुक्त होने पर विश्वास करती हैं और जनता भी जल्द से जल्द आराम चाहती हैं और उसके लिए बहुआयामी एंटीबॉयटिक्स के उपयोग से मानवीय शरीर रसायन युक्त हो चुके हैं और अधिकतर उन पर एंटीबॉयटिक्स असरकारी नहीं होने से मरीज़ और डॉक्टर दोनों परेशान होते हैं। 
    इस समय जब सरकार ने शल्य चिकित्सा करने की  मान्यता देने से आयुर्वेद संकाय और विभाग की महत्व पूर्ण जिम्मेदारी गयीहैइसके लिए सभीमहाविद्यालय,विश्वविद्यालय,चिकित्सालय ,औषधालय  की अधोसंरचना सुसज्जित हो योग्य शिक्षकों द्वारा अध्ययन अध्यापन होना चाहिए। विषयक्रम भी वर्तमान परिप्रेक्ष्य में परिपूर्ण हो। थ्योरी और प्रैक्टिकल समकक्ष हो। इसमें शासन और आयुर्वेद परिवार की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी होंगी। हम जब रिजल्ट देंगे तभी आई एम् ए वालों को संस्तुष्टि होंगी। 
 आज भी अलोपथी वाले आचार्य चरक ,सुश्रुत ,वाग्भट आदि महापुरुषों के ऋणी हैं ,कारण सुश्रुत आदि द्वारा स्थापित शल्य के सिद्धांत उन्हें मान्य हैं। सुश्रुत द्वारा ऑटो ट्रांसप्लांटेशन ,होमो ट्रांसप्लांटेशन और हेट्रो ट्रांसप्लांटेशन  किया गया जिसको आज भी मान्य हैं। उनके द्वारा अन्वेषित शल्य उपार्जन आज भी अपनाये जा रहे हैं ,तकनिकी के कारण शल्य क्रिया में  परिमार्जन हुआ। 
 चिकित्सा की सभी पद्धति मानव कल्याण के लिए हैं इसमें विवाद /विरोध की जरुरत नहीं। सिम्पथी से बढ़कर एम्पथी का होना आवश्यक हैं। पूर्व में चिकित्सक /वैद्य सेवा भाव से चिकित्सा करते थे ,निःशुल्क दवा देते थे जिससे उनको आदर मिलता था। आज व्यवसायीकरण होने के कारण अमानवीय व्यवहार होने के कारण आदर उनसे दूर होता जा रहा हैं। यदि अर्थ की प्रधानता सीमित हो तो बहुत अच्छा। चिकित्सा कभी निष्फल नहीं जाती ,चिकित्सा धर्म हैं ,यश मिलता हैं ,धन मिलता हैं और मित्रता मिलती हैं। 
आयुर्वेद चिकित्सको और शिक्षकों की गुरुतर जिम्मेदारी हैं जिससे हम समानता के साथ कन्धा से कन्धा मिलाकर जनसेवा कर सकेंगे। न कोई बड़ा होगा और न कोई छोटा। हम भी सरकार की अवैध संतान नहीं हैं। एलॉपथी वाले सौतेला व्यवहार करना छोड़ दे।
(लेखक-वैद्य अरविन्द प्रेमचंद जैन)

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