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ऑनलाईन पढ़ाई याने देश को अनपढ़ बनाने का षड़यंत्र  

ऑनलाईन पढ़ाई याने देश को अनपढ़ बनाने का षड़यंत्र  

बंगलौर के अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय ने कोरोना काल के बाद आरंभ हुई ऑनलाईन शिक्षा के संबंध में एक सर्वेक्षण कराया है। यह सर्वेक्षण ऑनलाईन पढ़ाई के मिथक विषय पर हुआ जिसमें देश के 5 राज्यों के 26 शहरों और 1522 स्कूलों को शामिल किया गया। इस सर्वेक्षण के जो परिणाम सामने आए है वे एक अर्थ में चौंकाने वाले, तथा दूसरे अर्थ में चिंता में डालने वाले भी है। चौकाने वाले इसीलिए कि, जो छात्र ऑनलाईन पढ़ाई कर रहे है उनमें से 90 प्रतिशत छात्रों के परिजनों ने कहा वह अपने बच्चों को सेहत की दृष्टि से स्कूलों में भेजना चाहते है। स्वयं शिक्षकों में से 90 प्रतिशत ने यह स्वीकार किया कि ऑनलाईन शिक्षा से बच्चों का अर्थपूर्ण मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। याने दबे स्वर में शिक्षकों ने भी स्वीकार किया है कि, ऑनलाईन शिक्षा बच्चों के लिए उपयुक्त नहीं है। इस सर्वेक्षण के अनुसार 70 प्रतिशत अभिभावको ने भी यह स्वीकार किया है कि ऑनलाईन शिक्षा बच्चों के लिए प्रभावी नहीं है, तथा यह महज औपचारिकता जैसी बन गई है। 80 प्रतिशत शिक्षकों ने भी यह स्वीकार किया है कि ऑनलाईन शिक्षा में बच्चों में भावनात्मक जुड़ाव नहीं होता। 54 प्रतिशत शिक्षकों ने तो यहां तक कहा कि ऑनलाईन माध्यम से पढ़ाने को वे तैयार नहीं है।  
50 प्रतिशत बच्चों के पास तो न स्कूली शिक्षा है और न ऑनलाईन शिक्षा याने 50 प्रतिशत बच्चे इसलिए अशिक्षित रह जाएंगे क्योंकि स्कूल बंद है। उनके अभिभावकों के पास स्मार्ट फोन उपलब्ध कराने की व्यवस्था नहीं है (कोरोना के नाम पर स्कूलों के बंद होने और ऑनलाईन शिक्षा की शुरूआत से जहाँ एक तरफ 50 प्रतिशत छात्र अनपढ़ रह जाएंगे वहीं दूसरी तरफ वही छात्र पढ़ सकेंगे जिनके अभिभावकों के पास स्मार्टफोन खरीदने की क्षमता होगी)। इस ऑनलाईन शिक्षा के नाम से स्मार्ट फोन के उद्योग का काफी विकास हुआ है, पिछले तीन माह में याने अक्टूबर तक देश में लगभग 5 करोड़ 30 लाख फोन बिके है। स्मार्ट फोन बाजार, कस्बे, और गाँवों तक पहुंच गया है। अब स्मार्ट फोन के विक्रेता गरीब अभिभावकों के लिए किश्त व ब्याज पर फोन बेच रहे है। कहीं-कहीं तो जहाँ अभिभावकों की क्षमता किश्त पर खरीदने लायक भी नहीं है वहाँ किराए पर स्मार्ट फोन दिए जा रहे है।  
इस ऑनलाईन शिक्षा के नाम पर स्मार्टफोन निर्माता विदेशी कंपनियों ने लगभग 30 हज़ार करोड़ का मुनाफा कमा लिया है। और दूसरी तरफ ग्रामीण क्षेत्रों में बिजली कटौती आम है। स्मार्टफोन नियमित चार्ज भी नहीं हो पाते। अगर बिजली आ भी जाये तथा वे चार्ज हो जाये तो फिर नेटवर्क की समस्या और भी गंभीर रहती है। हमारे देश में, किसी एक कंपनी का नेटवर्क सभी जगह नहीं मिलता या फिर पर्याप्त नहीं होता। मैं स्वयं लाचारी में तीन सिम का इस्तेमाल कर रहा हू। बी.एस.एन.एल., एयरटेल, व जिओ पर इसके बाद भी मेरे दिल्ली व भोपाल दतर के कमरों के अंदर बैठकर बात नहीं हो पाती। अगर जरूरी बात करना हो तो कमरा छोड़कर सड़क पर जाना पड़ता है। जब आधारभूत संरचना नेटवर्क की यह हालत शहरों व राजधानियों में है तो ग्रामीण क्षेत्रों में क्या स्थिति होगी? इसकी कल्पना की जा सकती है। बी.एस.एन.एल. के नेटवर्क की समस्या तो निजी क्षेत्र के खिलाड़ियों ने षड़यंत्रपूर्वक पैदा की है ताकि बी.एस.एन.एल. बदनाम व असफल हो जाये। और यही हुआ भी कि पहले चरण में बी.एस.एन.एल. के सेवानिवृत्त उच्चाधिकारियों को रिलायंस में अच्छी तनख्वाह, सुविधाओं के लालच देकर रखा गया तथा उनके माध्यम से, बी.एस.एन.एल. के ढांचें का इस्तेमाल किया और उसे बिगाड़ा भी। आज देश में हज़ारों लाखों टॉवर लगाने की सामग्री ग्रामों में पड़ी है जो लगाये नहीं गये। किराया दशकों से बी.एस.एन.एल. दे रहा है। इसमें भारी भ्रष्टाचार व लूट है। परंतु सरकार तो, अंबानी के सामने नतमस्तक है। जब श्री मनोज सिन्हा जी संचार मंत्री थे, मैंने उन्हें शायद सदभावपूर्वक कुछ सुझाव दिये थे। परन्तु सत्ता शीर्ष के सामने वे भी लाचार थे।  
ग्रामीण माँ-बाप आम तौर पर शिक्षित नहीं है। अब बच्चे ऑनलाइzZन शिक्षा के नाम पर स्मार्ट फोन पर क्या पढ़ रहे है? पढ़ रहे है या फिल्म देख रहे है उन्हें क्या पता? ’क‘ पढ़ने के बाद नेटवर्क चला गया और ’ख‘ गोल हो गया। क्या ऐसी शिक्षा संभव है? क्या इससे बच्चे पढ़ सकेंगे? यह तो एक समूचे ग्रामीण व कस्बाई समाज के छात्रों को, अनपढ़ बनाये रखने का षड़यंत्र लगता है, ताकि भविष्य में प्रशासन तंत्र व नौकरियों में वे आ ही न सके। यह प्रशासन तंत्र के शहरीकरण का छिपा खेल है।      
ऑनलाईन शिक्षा के कारण छात्रों के स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ रहा है एक तो वे आँखों के कमजोर होने के शिकार हो रहे है। तथा छोटे-छोटे बच्चे आँख का चश्मा लगाए नज़र आते है। एक समूची पीढ़ी व्यवस्था के द्वारा दिए जा रहे अंधत्व का शिकार हो रही है। शालाओं में पढ़ने जाने से उनका परस्पर एक संपर्क बढ़ता था, सामाजिक सरोकार और संवेदनाएं भी उनके मन में बनती थी। परन्तु अब उनके सामाजिक सरोकार लगभग टूट रहे है। तथा वे एक प्रकार से घरों में कैद हो गए है। बहुत सारे बच्चे इस व्यवस्था के थोपे हुए एकान्तवास से डिप्रेशन के शिकार हो रहे है। जहाँ उनका कोई दोस्त नहीं, कोई संवाद करने वाला नहीं, केवल स्मार्ट फोन स्क्रीन पर आँख गड़ाये बैठे रहो यही जीवन बन गया है। जब उम्र दराज लोग एकांतता को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे और डिप्रेशन के शिकार होकर आत्महत्याएं कर रहे है तो बच्चे कब तक बर्दाश्त कर सकेंगे कहना कठिन है? हाल ही भोपाल के अखबारों में यह खबर आई है कि एक महिला जिनके पति का निधन 03 माह पूर्व हुआ था जिनका बेटा और बेटी दोनों पढ़ाई के लिए विदेशों में है ने एकान्त से उपजे निराश से परेशान होकर आत्महत्या कर ली। जबकि उनके पास जीवन जीने के सारे साधन थे। शहरी क्षेत्रों की तो ऐसी घटनाएं अखबारों में समाचार भी बन जाती है, परन्तु ग्रामीण क्षेत्रों के बच्चों की आत्महत्यायों को मीडिया में भी स्थान नहीं मिलेगा। नैराश्य की प्रवृत्ति व आत्महत्या इतना गंभीर रूप लेने वाली है, कि दुनिया के  विकसित देश भी इससे अछूते नहीं रह सकेंगे। जापान में अकेले अक्टूबर माह में 2153 लोगों ने खुदखुशी की। ऑनलाईन शिक्षा की वजह से बच्चों के स्वास्थ्य पर बहुत विपरीत प्रभाव पड़ने वाला है। उनका खेलना, कूदना दौड़ भाग सभी कुछ बंद हो गया है, और कुछ ही समय में वे बीमारी के शिकार होंगे, जिसे रोक पाना कठिन होगा। आखिर इन बच्चों का क्या गुनाह है? 
भोपाल में लोहिया सदन के पास के घरों के बच्चे जो 18-20 वर्ष की उम्र के है, कुछ दिनों से रात 9 बजे से बाजू की सड़क पर क्रिकेट खेलते है और खेल में इतने उत्साहित होते है कि जोर जोर से चिल्लाते है, आवाज़ करते है। शोर इतना अधिक होता है कि हम लोगों को फोन पर बात करना, आपस में बात करना और काम करना कठिन हो जाता है। मैंने उन्हें रोका तो बच्चे मुझसे बोले कि अंकल हम कहां खेले और कब खेले? मैंने उनसे कहा कि तुम लोग दिन में खेल के मैदान पर जाकर खेल सकते हो। तो उन्होंने बताया कि सुबह तो 9 बजे से हमारी ऑनलाईन क्लास शुरू होती है, जो दोपहर तक चलती है, दोपहर के बाद ऑनलाईन कोचिंग होती है जो शाम तक चलती है, फिर नमाज का वक्त हो जाता है, और इसलिए रात्रि 9.45 पर रात में नमाज के बाद हम लोगों को खेलने का अवसर मिलता है। मैं उनकी बातों को सुनकर चिंता में पड़ गया। उन बच्चों की पीड़ा भी महत्वपूर्ण है। और आश्चर्यजनक यह भी है कि, उनके माता पिता इस पर चिंतित नहीं है। बल्कि वे उन्हें दूसरों के घरों के पास रात में खेलने को भेजकर स्वत: निश्चित होकर सोते है। मैंने कई पड़ौसी मित्रों से और उनके परिजनों से कहा और सलाह दी कि इन बच्चों के लिए किसी पार्क या मैदान में ले जाकर खिलाने की व्यवस्था कीजिए और यह उनके स्वास्थ्य के लिए जरूरी भी है। यह स्थिति मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल की है तो फिर ग्रामीण छात्रों की स्थिति क्या होगी? जहां शाम ढलते ही अंधकार हो जाता है। जहां न रोशनी है और न खेलने के लायक मैदान। मैदान के नाम पर सड़के भी नहीं है। हालांकि यह भी दुखद और चिंतनीय है कि, इन बच्चों के अभिभावक माता पिता इस गंभीर समस्या के प्रति चिंतित नहीं है और वे अपनी ही संतानों और भावी पीड़ी के लिए बीमारियों और धीमे मौत के मुंह में ढकेल रहे है। 
कुछ दिनों पहले भारत सरकार ने नई शिक्षा नीति के प्रारूप को सार्वजनिक रूप से प्रकाशित कराया था। और देश भर के स्कूलों कॉलेजों के अध्यापक, प्राचार्य देश के बुद्धिजीवी और मध्यवर्गी लोग इस शिक्षा नीति के प्रारूप से बहुत प्रभावित थे। इस दस्तावेज़ में स्कूलों में खेल कूद के लिए मैदान की अनिवार्यता और उसके विकल्प के रूप में सहभागिता का प्रस्ताव था परन्तु इन ऑनलाईन शिक्षा ने उन सारे प्रस्तावों को पीछे धकेल दिया है। यद्यपि, खेल मैदान, जिम, पुस्तकालय की सहभागिता (शेयरिंग) कोई अच्छा विकल्प नहीं है।  
मैं चीन की व्यवस्था का समर्थक नहीं हू बल्कि विरोधी हू। परन्तु अभी एक रपट चीन की शिक्षा के बारे में मीडिया में आई है जिसमें बताया गया है कि 20 करोड़ छात्र वहाँ कोरोना को नियंत्रित करने के बाद स्कूलों में पढ़ने को जा रहे  हैं। क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है कि चीन जहाँ 17 नवंबर 2019 से बुहान में, कोरोना शुरू हुआ कहा गया था वहाँ सितंबर 2020 से स्कूल कॉलेज शुरू हो गये है और 20 करोड़ छात्र, वहाँ स्कूल में जाकर पढ़ रहे है? पर भारत में, मात्र 8-10 करोड़ छात्र जो स्कूल से लेकर कॉलेज तक पढ़ने वाले होंगे, ऑनलाईन शिक्षा के नाम पर घरों में कैद हैं।  
अब समाज को आगे आकर स्कूलों कॉलेजों को खोलने की माँग करना चाहिये। तथा समूचित सावधानियां व जरूरतों को ध्यान में रखते हुये बच्चों को घरों के कैदखानों से मुक्त करना चाहिये।  
अगर आज छात्र मुक्त होंगे तो संभव है कल, वर्क फ्राम होम की बाध्यता व परेशानियों व संभावित छँटनी के खतरे से कर्मचारी भी मुक्ति पायेंगे। 
(लेखक-रघु ठाकुर)

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