हर संसारी प्राणी अपनी सुरक्षा के लिए शरण की खोज करता है। प्राणी उपयुक्त शरण मिलने पर उसे स्वीकार भी कर लेता है। बहिर्दर्शी व्यक्ति अपने पारिवारिक जनों को शरण मानता है। परिवार के लोग किसी सक्षम सदस्य को शरण मानते हैं। किंतु वे तुम्हें त्राण और शरण देने में समर्थ नहीं हैं और तुम उनको त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हो। यह आगम-वाणी मनुष्य को अपनी सही स्थिति का बोध देती है। वह जब चारों ओर से अत्राण और अशरण होकर असहाय हो जाता है, उस समय उसकी अंतमरुखी चेतना में चार प्रकार की शरण आविर्भूत होती है- अर्हत्, सिद्ध, साधु और धर्म। ये चार तत्व ऐसे हैं, जो व्यक्ति को शात शरण दे सकते हैं। इन चारों शरणों में तीन तत्व किसी अपेक्षा से परे भी हो सकते हैं किंतु चौथा तत्व धर्म अपना निजी ही है। इसकी शरण में जाने के लिए कोई अपेक्षा नहीं केवल अपनी वृत्तियों को मोड़ने की जरूरत है।
धर्म क्या है? जो सबको समता और शांति का पाठ पढ़ाए, वह धर्म है। जिस धर्म के सहारे सुख-सुविधा के साधन जुटाए जाते हैं, प्रतिष्ठा की कृत्रिम भूख को शांत किया जाता है, प्रदर्शन और आडंबर को प्रोत्साहन दिया जाता है, उस धर्म की शरण स्वीकार करने से शांति नहीं मिल सकती। ऐसा धर्म समता का सूत्र नहीं दे सकता।
धर्म की व्याख्या में अब तक हजारों ग्रंथ लिखे जा चुके हैं, पर उनसे धर्म का सही रूप परिभाषित नहीं हो सका। क्योंकि अधिक व्याख्याकारों ने अपनी धारणा के परिवेश में उसे व्याख्यायित किया है। मेरे अभिमत से धर्म का अर्थ है स्वभाव। स्वभाव को उपलब्ध करने के लिए उसमें रमण करने की जरूरत है। जो व्यक्ति अपने स्वभाव में रमण कर लेता है, वह धर्म की शरण पा लेता है। उसे अपनी शरण उपलब्ध हो जाती है।
धर्म या स्वभाव- रमण का एक सूत्र है- पदार्थ प्रतिबद्धता का अभाव। कोई व्यक्ति अभाव या अतिभाव के कारण पदार्थ से प्रतिबद्ध नहीं होता है, यह वास्तव में धर्म नहीं है। अभाव में जो व्यक्ति संग्रह नहीं करता, वह त्यागी नहीं होता। इसी प्रकार अतिभाव में पदार्थ का विसर्जन करने वाला भी त्यागी नहीं हो सकता।
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(चिंतन-मनन) धर्म की शरण