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क्या राहुल का यह कहना सच है कि देश में ‘‘लोकतंत्र‘‘ ‘‘खत्म’’ हो गया है! 

क्या राहुल का यह कहना सच है कि देश में ‘‘लोकतंत्र‘‘ ‘‘खत्म’’ हो गया है! 

महामहिम राष्ट्रपति को किसानों के मुद्दे पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सांसदों द्वारा अपने नेता राहुल गांधी के नेतृत्व में विरोध मार्च कर ज्ञापन सौंपने की अनुमति देने के बजाए धारा 144 लागू किये जाने पर राहुल गांधी को यह कहना पड़ गया कि देश में ‘‘लोकतंत्र समाप्त‘‘ हो गया है। वास्तव में राहुल गांधी उक्त बात ‘‘सही‘‘ ही कह रहे हैं। क्योंकि आज की भारतीय राजनीति में ‘झूठ’ तो कोई बोलता ही ‘नहीं’ है। सिर्फ परस्पर विपक्षियों पर परस्पर झूठे आरोप जरूर लगाये जाते हैं। यह आज की राजनीति की नीति नहीं ‘‘नियति’’ हो गई है। कांग्रेस पार्टी के नजर में तो लोकतंत्र की दूसरी ही परिभाषा है, जो राहुल गांधी व कांग्रेस के सत्तारूढ़ काल में देश की जनता को दी है। 
कांग्रेस की सत्ता के समय के ‘‘लोकतंत्र‘‘ का जरा अवलोकन भी कर लीजिए। अचानक 25 जून 1975 को रात्री 11.30 बजे कैबिनेट की स्वीकृति के बिना देश ही में ‘‘आपातकाल‘‘ लागू करने की घोषणा कर कांग्रेस पार्टी ने लोकतंत्र को मजबूत करने का सबसे बड़ा कदम उठाया था? आज राष्ट्रपति से मिलकर राष्ट्रपति भवन के बाहर मीडिया से मुखातिब हुए वर्तमान लोकतंत्र की समाप्ति का कथन करते समय राहुल गांधी के मन में शायद कांग्रेस पार्टी का ‘‘स्वर्ण युग’’ का आपातकाल युक्त लोकतंत्र का वह रूप सामने हो। ‘मीसा’ के अंतर्गत लोग बिना मुकदमे चलाए रातों-रात हजारों जेलों में निरुद्ध कर दिये गए। आपातकाल को ‘‘काला दिवस’’ बताते हुए देश के प्रमुख समाचार पत्रों ने अपने संपादकीय खाली छोड़ कर विरोध प्रकट किया। आकाशवाणी और दूरदर्शन ‘‘सरकारी भोंपू‘‘ बन गए। मूल संवैधानिक अधिकार निलंबित कर समस्त राजनैतिक गतिविधियों पर प्रतिबंध लगा दिया गये। तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री स्वर्गीय विद्याचरण शुक्ल ने राजनेता (सांसद) से निर्माता बने अमृत नाहटा की फिल्म ‘‘किस्सा कुर्सी पर‘‘ प्रतिबंध लगा दिया। उदाहरण स्वरूप उल्लेखित ये सब क्रियाएं, कार्यवाहियां तथाकथित ‘‘लोकतंत्र को मजबूत’’ करने के लिए ही तो थी? चूँकि राहुल गांधी की पार्टी उस (आपातकाल) लोकतंत्र की जनक व पैरोकार रही है, जो वास्तव में आज है ही नहीं। इसलिए राहुल गांधी आज लोकतंत्र खत्म होने की बात कह रहे हैं।
रामलीला मैदान में बाबा रामदेव के लंबे समय से चल रहे आंदोलन में किस तरह से रात्रि में बर्बरता पूर्ण लाठी चार्ज किया गया था, जिस कारण से भगदड़ मच गई थी। स्वयं बाबा रामदेव को अपनी जान बचाने के खातिर महिलाओं के कपड़े पहनकर मंच से कूदकर भागना पड़ा था, जो जग जाहिर है। चूंकि आज राहुल गांधी और प्रियंका गांधी को पुलिस की लाठी का सामना न करने के कारण के ड़र से भागना नहीं पड़ा, बल्कि एक तरफ पुलिस प्रियंका गांधी को अपनी गाड़ी में ले गई तो दूसरी ओर राहुल गांधी को दो अन्य व्यक्ति के साथ राष्ट्रपति भवन जाने की अनुमति दी गई। क्या इसलिए लोकतंत्र ‘‘समाप्त‘‘ हो गया? 
दिल्ली की सिंधु बार्डर पर एक महीने से चले आ रहा किसान आंदोलन के दौरान लगभग 22 किसान ‘‘शहीद‘‘ हो गए और एक ‘‘संत किसान‘‘ ने किसान आंदोलन की उद्देश्यों की पूर्ति के खातिर अपनी जान की बाजी लगा कर ‘उत्सर्ग’ कर दिया। परन्तु किसान आंदोलन ही नहीं बल्कि पूरा देश ‘‘शांत‘‘ रहा, क्या इसलिए ‘‘लोकतंत्र समाप्त‘‘ हो गया है? क्योंकि पूर्व में तो इस तरह के आंदोलन में आंदोलनकारियों की मृत्यु होने पर न केवल शांति व्यवस्था भंग हो जाती थी, बल्कि उसको बनाए रखने के लिए गोली चालन तक करना पड़ता था, जिसमें कई निर्दोष नागरिकों की मृत्यु भी हो जाती थी। राहुल गांधी की नजर में शायद वही सही लोकतंत्र था?
लोकतंत्र को तथाकथित रूप से मजबूत करने वाली उपरोक्त समस्त घटनाओं के लिए राहुल गांधी ने उक्त कथन करने के पूर्व राष्ट्र से न तो स्वयं और न ही उनकी पार्टी ने माफी मांगी, खेद व्यक्त किया, जिस प्रकार सिख दंगों के लिए मांगी थी। तब ऐसी स्थिति में ‘‘लोकतंत्र का प्रमाण’’ पत्र देने का राहुल गांधी को क्या कोई नैतिक अधिकार है? राहुल गांधी अपने बचाव में यह कह सकते हैं कि उन सब अलोकतांत्रिक घटनाओं जिससे देश में लोकतंत्र कमजोर हुआ है, के लिए वे स्वयं जिम्मेदार नहीं है। बात सही भी है। लेकिन कांग्रेस पार्टी जिसके वे राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुके हैं और भविष्य में संभावनाएं उनके पुनः राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने की की जा रही हैं। तब ऐसी स्थिति में पार्टी की ओर से तो उपरोक्त समस्त अलोकतांत्रिक कार्य घटनाओं के लिए उन्हे देश से माफी नहीं मांगनी चाहिए? तभी उनके वर्तमान कथन को वह लोकतांत्रिक तरीके से कुछ मजबूती प्रदान कर सकते हैं। 
वैसे राहुल गांधी यह भूल रहे हैं कि जिस खत्म होते लोकतंत्र का वह जिक्र कर रहे हैं, उनका यह उक्त बयान देना जिसे अधिकांश मीडिया भी लोकतांत्रिक तरीके से दिखा रहा है, इसी ‘‘खत्म‘‘ होते लोकतंत्र में ही संभव है, ‘‘आपातकाल के लोकतंत्र‘‘ में नहीं। वैसे राहुल गांधी को यह भी समझना होगा और तय करना होगा कि वह लोकतंत्र ज्यादा अच्छा है, जहां भले ही सुनवाई पूरी तरह से न हो रही हो, (वर्तमान किसान आंदोलन के संदर्भ में उनके कथनानुसार) या जहां सत्ता, पुलिस व सशस्त्र बल के दबाव के द्वारा ‘‘मुंह बंद‘‘ कर बोलने या मांग करने का कोई अवसर ही न हो (आपातकाल)?
राहुल गांधी को इस बात का भी जवाब देना चाहिए कि पश्चिम बंगाल में दिन प्रतिदिन हो रही चुनाव पूर्व हिंसक राजनीतिक घटनाएं क्या एक शांतिपूर्ण हो रहे किसान आंदोलन की तुलना में ज्यादा लोकतांत्रिक हैं? विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के लोकतंत्र के सबसे ‘‘बड़े प्रहरी राहुल गांधी’’ की पश्चिम बंगाल में हो रही दिन प्रतिदिन लोकतंत्र की हत्या के प्रति उनकी चिंता को देश जानना चाहता है।
(लेखक-राजीव खण्डेलवाल) 

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