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"आर्यभट्ट "शून्य के अविष्कारक नहीं हैं !  

"आर्यभट्ट "शून्य के अविष्कारक नहीं हैं !  

जैन धर्म/दर्शन एक ऐसा वैज्ञानिक धर्म है, जिसमें प्रत्येक कार्य आज के विज्ञान की खोज से पूर्व से ही हमारे धर्म में वर्णित है, और विज्ञान भी इसी का नाम है, विज्ञान एक शोध है-खोज नहीं, विज्ञान ने आज शोध किया, कि जल में 36450 जीव हैं, जगदीश चंद्र वसु ने कहा पेड़ों में जीवन है, जो हमारा धर्म पहले से ही कह रहा है, जो विज्ञान खोज आज कर रहा है, आज जिसकी गणना बता रहा है, उसे तो हमारे आचार्य पूर्व में ही बता चुके हैं कि तारे, चांद, सूर्य इतनी दूर हैं, इतनी संख्या में है, श्री तत्त्वार्थसूत्र जी में इसका संक्षेप वर्णन है, तथा इसी की टीका सर्वार्थसिद्धि जी, राजवार्तिक जी, तत्वार्थवार्तिक जी आदि में इसका स्पष्ट वर्णन/विस्तृत वर्णन है, एक-एक बात स्पष्ट है, दूरी आदि का भी सूक्ष्मता से वर्णन है, एक तथ्य और जो कि आर्यभट्ट ने शून्य की खोज नहीं की, आज सभी यही मानते हैं कि “आर्यभट्ट” ने शून्य की खोज की परंतु ऐसा नहीं है, क्योंकि आर्यभट्ट तो 476 ईसवी के हैं, और हमारे आचार्य और तीर्थंकर उनसे कई शताब्दियों पहले हुए, इनसे ही हमें संख्या का ज्ञान हुआ, शून्य का ज्ञान हुआ, भगवान ऋषभदेव ने अंक-विद्या का ज्ञान अनेकों शताब्दियों पूर्व ही करा दिया था, और पंचम काल में ही देखें तो द्वितीय शताब्दी से छठी शताब्दी तक के आचार्यों ने तो पहले ही अपने ग्रंथों में संपूर्ण कथन कर दिया था कि पृथ्वी का माप इतना है, आकाश का माप इतना है और पाताल का माप इतना है, श्री तत्त्वार्थसूत्र जी में यह सब वर्णन है।
पृथ्वी गोल है- ऐसा आर्यभट्ट एवं वैज्ञानिक कहते हैं, परंतु जैन दर्शन तो यह सब पहले से ही कहता आ रहा है कि जम्बूद्वीप गोल है, तत्त्वार्थसूत्र जी के तृतीय अध्याय के 8वें सूत्र में कहा है-
द्विर्द्विर्विषकम्भा: पूर्व-पूर्व परिक्षेपणो वलयाकृतयः।।8।।
और आगे के द्वीप-समुद्र भी गोल है, और विज्ञान तो अभी केवल एक द्वीप “जम्बूद्वीप” के छह भागों में से एक आर्यखण्ड तक ही सीमित है, और उसे ही संपूर्ण पृथ्वी मानते हैं, तो समझना यह है कि आर्यभट्ट ने शून्य की खोज नहीं की, वरन् जैन धर्म में तो यह पूर्व से ही है, आदिनाथ की दी गई अंक-विद्या से ही प्रचलित है, विज्ञान कोई खोज का नाम नहीं, बल्कि एक संकुचित ज्ञान है, परंतु जैन धर्म में वर्णित जो माप और रचना का वर्णन है, वह उत्कृष्ट है, इसके बहुत से प्रमाण हैं जो जानने योग्य हैं, विज्ञान स्वयं की बात पर ही अडिग नहीं रहता, आज कुछ कहता है-कल कुछ कहता है, वह स्वयं स्ववचनबाधित दिखाई पड़ता है, जिससे विज्ञान झूठा प्रतीत होता है, जैन दर्शन में जो औषधि विज्ञान है वह भी अतुल्य है, परंतु आज का फार्मा /मेडिकल  किसी भी बीमारी को दूर करने में समर्थ नहीं है, यदि एक बीमारी दूर करेगा भी, तो वही दवा चार नई बीमारियां उत्पन्न कर देती है, अतः स्पष्ट है आज के विज्ञान ने किसी प्रकार की तरक्की या खोज नहीं की है, बल्कि पूर्व की या शास्त्रों में वर्णन की हुई बातों को ही प्रैक्टिकल करके बताया है, और साथ ही यह स्पष्ट होता है, कि जैन धर्म आज के विज्ञान से कई गुना वैज्ञानिक एवं गणितज्ञों  पहले ही गणित को बताने वाला है, शून्य को बताने वाला है, अतः गणित में शून्य का आविष्कारक “आर्यभट्ट” को मानना गलत है, क्योंकि इसका आविष्कार तो पहले ही हो चुका है।
ऐसे अनेकों उदाहरणों से वैज्ञानिक खोजों पर हम आश्चर्य व्यक्त करते हैं पर भारतीय दर्शनों में अपार ज्ञान भरा पड़ा हैं बस हमें अपनी विस्तीर्ण दृष्टिकोण की जरुरत हैं। हर क्षेत्र में प्रैक्टिकल ज्ञान भरा हुआ हैं। चिकित्सा क्षेत्र में जैन आचार्यों ने ३५ से अधिक ग्रंथों की रचना की ,स्वामी समन्त्र भद्र ने १८००० पुष्पों का वर्णन किया जो पराग रहित थे। कल्याणकारक ग्रन्थ जो अष्टांग आयुर्वेद हैं उसमे मध्य मांस मधु रहित योगों का वर्णन हैं। आज भी चिकित्सा और शल्य के सिद्धांत आचार्य चरक और सुश्रुत द्वारा प्रतिपादित हैं जो मान्य हैं। मात्र तकनिकी बदली हैं।
आज जैन दर्शन के सिध्धांतो को सप्रमाण प्रसारित करने की आवश्यकता हैं। इसके लिए विशाल हृदय और मानसिक्तता की जरुरत हैं। संकीर्णता और अज्ञानता के कारण उन  विषयों के प्रति लापरवाह हैं जो उचित नहीं हैं।
(लेखक-वैद्य अरविन्द प्रेमचंद जैन )

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