परमानंद को समझा नहीं जा सकता और उसे पाना भी अत्यंत कठिन है। कई जीवन कालों के बाद परमानंद की प्राप्ति होती है और एक बार पाने पर इसे खोना तो और भी कठिन है। जीवन में तुम्हें तलाश है केवल परमानंद की- अपने स्रेत के साथ तुम्हारा दिव्य मिलन और संसार में बाकी सबकुछ तुम्हें इस लक्ष्य की प्राप्ति से विचलित करता है। असंख्य कारण, विभिन्न तरीकों से तुम्हें उस लक्ष्य से विमुख करते हैं; लाख बहाने, जो न समझे जा सकते हैं, न बताए जा सकते हैं, तुम्हें घर नहीं पहुंचने देते। राग और द्वेष से मन चंचल रहता है। केवल जब मन शांत होता है, तब परमानंद उदित होता है। परमानंद वास है दिव्यता का, सभी देवों का। केवल मानव शरीर में ही इसे पाया जा सकता है, अनुभव किया जा सकता है।
एक बार मानव जीवन पाकर, तथा इस मार्ग पर आकर भी यदि तुम्हें यह समझ में नहीं आता, तो तुम बड़े नुकसान में हो। राग और द्वेष तुम्हारे हृदय को कठोर बनाते हैं। यदि हृदय में रूखापन है तो केवल व्यवहार में विनम्रता होने से कोई लाभ नहीं। संसार को यह परवाह नहीं कि तुम अंदर से कैसे हो। संसार केवल तुम्हारा बाहरी व्यवहार देखता है। परंतु, ईश्वर को यह परवाह नहीं कि तुम बाहर से कैसे हो- वे केवल तुम्हारे अंदर देखते हैं। थोड़ा-सा भी राग या द्वेष का अंश कभी भी अपने दिल में मत बसाओ। इसे तो गुलाब के फूल की तरह रहने दो- ताजा, कोमल और सुगंधित। यह कैसा भ्रम है- तुम किसी व्यक्ति या वस्तु को नापसंद करते हो, और यह तुम्हारे हृदय को कठोर बनाता है। और इस कठोरता को निर्मल होने में बहुत समय लगता है। राग और द्वेष ऐसे जाल हैं जो तुम्हें अनमोल खजाने से दूर रखते हैं।
इस भौतिक संसार में कोई भी चीज तुम्हें तृप्ति नहीं दे सकती। बाहरी दुनिया में संतुष्टि खोजने वाला मन अधिक अतृप्त हो जाता है और यह अतृप्ति बढ़ती ही जाती है; शिकायतें तथा नकारात्मक स्वभाव दिमाग को कठोर बनाने लगते हैं, सजगता को ढक देते हैं और पूरे वातावरण में नकारात्मकता का विष फैला देते हैं। जब नकारात्मकता शिखर छूती है, एक अत्यधिक फूले हुए गुब्बारे की तरह फूट जाती है और फिर से दिव्यता में आ जाती है।
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(चिंतन-मनन) जाल हैं राग और द्वेष