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दुनिया की सबसे पुस्तक में है ब्रहमाबाबा का जीवन रहस्य!    (स्मृति दिवस 18 जनवरी पर विशेष)  

दुनिया की सबसे पुस्तक में है ब्रहमाबाबा का जीवन रहस्य!    (स्मृति दिवस 18 जनवरी पर विशेष)  

प्रजापिता ब्रहमकुमारी ईश्वरीय विश्वविधालय के संस्थापक दादा लेखराज जो बाद में ब्रहमाबाबा नाम से प्रसिद्ध हुए,के अदभुत जीवन रहस्यों पर एक ऐसी पुस्तक प्रकाशित है,जिसे दुनिया सबसे बडी पुस्तक होने का सौभाग्य प्राप्त है। 28 फीट लम्बी और 18 फीट चौडी आकार की दुनिया की इस सबसे बड़ी पुस्तक में प्रजापिता ब्रहमा के 75 वर्षो के रूहानी एवं लौकिक जीवन रहस्यों को रौचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है।इस पुस्तक को एशिया बुक आफ वर्ल्ड रिकार्डस ने विश्व की सबसे बडी पुस्तक धोषित किया हुआ है। एशिया बुक आफ रिकार्डस के प्रतिनिधि थामस बेन ने पुस्तक को लेकर की गई अपनी टिप्पणी में कहा था कि यह पुस्तक आध्यात्मिकता एवं धार्मिक आधारों को प्रतिपादित करने में सफल सिद्ध होगी और इससे युवाओं में नई प्रेरणा और जागृति का संचार होगा। 
पुस्तक के पन्नों को पल्टे तो बाबा संगम युग में नई दुनिया के संवाहक नजर आते है। संसार में जब जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है तथा समाज में अन्याय, शोषण और अत्याचार बढता है तब तब मानव जाति का कल्याण करने तथा सत्य धर्म की स्थापना करने के लिए निराकार भगवान शिव संसार में अवतरित होते है और अपने साकार माध्यम द्वारा मनुष्य का उद्धार करते है। प्रजापिता ब्रहमा बाबा का जन्म इस पुनित कार्य के लिए हुआ था। सिन्ध के एक मध्यम वर्गीय परिवार में जब दिव्य विभूति दादा लेखराज का सन 1876 में जन्म हुआ था तब शायद ही किसी ने सोचा होगा कि आगे चलकर यही हस्ती एक महान समाजसुधारक मानवा मात्र का उद्धारक तथा अलौकिक व्यक्तित्व सिद्ध होगा। ब्रह्माबाबा आरम्भ से ही तीव्र बुद्धि,परिश्रमी तथा मदुभाषी थे। अपनी बोद्धिक कार्य कुशलता के फलस्वरूप वे एक छोटे व्यापारी से जवाहरातो के प्रसिद्ध व्यापारी बन गए। गौर वर्ण उन्नत ललाट,उंचे कद तथा सुगठित शरीर से युक्त उनका व्यक्तित्व प्रतिभाशाली तो 
था ही व्यवहार कुशल तथा मानव मात्र के प्रति सह्रदय होने के कारण व ओर भी आकर्षक हो गया। हीरे के व्यापार के सिलसिले में उनका अनेक राजाओं तथा अमीरों से सर्म्पक हुआ लेकिन उनमें कभी अहम की भावना नही आई। अपने निश्चल,विन्रम स्वभाव,शिष्टाचार पूर्ण व्यहार तथा ईमानदारी के कारण अपने ग्राहको में वे न केवल लोकप्रिय थे बल्कि उन्हे बेहद सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। उन्हे श्रद्धा और स्नेह से सब दादा कहते थे। लगभग 60 वर्ष की आयु तक लौकिक ग्रहस्थ जीवन व्यतीत करते हुए दादा ने धन दौलत के साथ साथ खूब शोहरत हासिल की। सगे सम्बन्धियों तथा समाज के बीच उनका स्थान बडा प्रतिष्ठा पूर्ण रहा।अपनी दानवीरता और उदारता के कारण वे लोगो और संस्थाओं में लोकप्रिय रहे। लेकिन लौकिक तरक्की के चरम शिखर पर पहुंचने के बाद अचानक उन्हे भौतिक वस्तुओं से विरक्ति का अनुभव होने लगा। वे अन्तर मुख एकान्त में चिन्तन और मनन करने लगे।दादा लेखराज को दिव्य साक्षात्कार होने लगे। एक बार परमपिता परमात्मा शिव का ,उसके पश्चात कलियुगी सृष्टि के भावी विनाश और फिर भविष्य की दुनिया के साक्षातकारों ने उनके जीवन में नया मोड ला दिया। उन्होने अपना सारा व्यवसायिक कारोबार बन्दकर अपनी समस्त अर्जित सम्पत्ति ईश्वरीय ज्ञान के प्रचार प्रसार में लगा दी और संत्सग के लिए ओम मण्डली का निर्माण किया। धीरे धीरे उनका प्रचार प्रसार इतना अधिक बढा कि सभी वर्ग की महिलाये पुरूष उनका लाभ उठाने लगे। जहां काम,क्रोध,मोह,लोभ और अहंकार रूपी विकारो पर विजय पाकर सात्विक जीवन जीने के उपदेश दिये जाते थे। अब दादा के मुख से ही परमपिता परमात्मा शिव ने अपने इस साकार माध्यम को प्रजापिता ब्रहमा का नाम दिया। ब्रहमा बाबा अनुभव कराते कि आध्यात्मिकता के रास्ते राजयोग से दिमाग शान्त और प्रसन्नचित होता है। राजयोग से विक्रर्मो यानि विकारों को समाप्त करने में मदद मिलती है। राजयोग करने से शरीर और दिमाग में खास तरह का परिवर्तन होता है।जो मनुष्य के लिए सुखकारी है और वह स्वंय को परमात्मा के निकट महसूस करता है। 
ब्रहमा बाबा की वाणी में शिव एक ऐसी परम शक्ति है जो इस लौकिक एवं अलौकिक दुनिया की पालक है। यूं तो शिव एक ज्योतिपुंज है जिसे परमात्मा के रूप में स्वीकारा जाता है। हर धर्म में भगवान को प्रकाश रूप में माना गया है। मुस्लमान इसे नूर ए इलाही कहते है तो इसाई धर्म से जुडे लोग इसे लाईट आफ गॉड कहते है। जबकि सिख धर्म में इसे सतनाम कहकर पुकारा गया है। इसी तरह आर्य समाजी भगवान को निराकार रूप में मानकर साधना करते है। यानि ओम, अल्लाह और ओमेन एक ही परम शक्ति के नाम है। जिसे हम सब ईश्वर मानते है। लेकिन सर्व धर्मो में हिन्दू धर्म में एक मात्र भगवान शिव ही ऐसे है जिनकी देवचिन्ह के रूप में शिवलिगं की स्थापना कर पूजा की जाती है। लिगं शब्द का साधारण अर्थ चिन्ह अथवा लक्षण है। चूंकि भगवान शिव ध्यानमूर्ति के रूप में विराजमान ज्यादा होते है इसलिए प्रतीक रूप में अर्थात ध्यानमूर्ति के रूप शिवलिगं की पूजा की जाती है। 
आध्यात्मिक दृष्टि में ब्रहमाकुमारीज मिशन परमात्मा शिव को परमसुख प्राप्ति का आधार मानता है। मिशन के संदेश में शिव एक ऐसा शब्द है जिसके उच्चारण मात्र से परमात्मा की साक्षात अनुभूति होती है। शिव को कल्याणकारी तो हम सभी मानते है परन्तु यदि हमे शिव बोध हो जाए तो हमें जीवन मुक्ति का लक्ष्य प्राप्त हो सकता है। जब जब भी धर्म के मार्ग से लोग विचलित हो जाते है,समाज में अनाचार, पापाचार, ,अत्याचार, शोषण, क्रोध, वैमनस्य, आलस्य, लोभ, अहंकार, कामुकता, माया, मोह बढ जाता है तब तब ही परमात्मा को स्वयं आकर राह भटकें लोगों को सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा का कार्य करना पडता है। यह कार्य हर पाचं हजार साल में पुनरावृत होता है। पहले सतयुग, फिर त्रेता, फिर द्वापर और फिर कलियुग तक की यात्रा इन पांच हजार वर्षों में होती है। हांलाकि सतयुग में हर कोई पवित्र, सस्ंकारवान, चिन्तामुक्त और सुखमय होता है। परन्तु जैसे जैसे सतयुग से त्रेता तथा त्रेता से द्वापर और द्वापर से कलियुग तक का कालचक्र धूमता है। वैसे वैसे व्यक्ति रूप में मौजूद आत्मायें भी शान्त, पवित्र और सुखमय से अशान्त, दूषित और दुखमय हो जाती है। कलियुग को तो कहा ही गया है दुखों का काल। लेकिन जब कलियुग के अन्त और सतयुग के आगमन की धडी आती है तो उसके मध्य के काल को सगंम युग कहा जाता है यही वह समय जब परमात्मा स्वंय सतयुग की दुनियां बनाने के लिए आत्माओं को पवित्र और पावन करने के लिए उन्हे स्वंय ज्ञान देते है और उन्हे सतयुग के काबिल बनाते है। 
परमात्मा शिव ही देवांे के देव महादेव है जिन्हे त्रिकालदर्शी भी कहा जाता है। परमात्मा शिव ही निराकारी और ज्योति स्वरूप है जिसे ज्योति बिन्दू रूप में जाना जाता है। चूंकि परमात्मा सर्व आत्माओं से न्यारी और प्यारी है जो देह से भी परे है जिसका जन्म मरण नही होता और जो परमधाम की वासी है और हम सबकी पोषक है। इसीलिए दुनियाभर में ज्योतिर्लिगं के रूप में परमात्मा शिव की पूजा अर्चना और साधना की जाती है। शिवलिंग को ही ज्योतिर्लिंग के रूप में परमात्मा का चिन्ह स्मरण माना गया है। सबसे पहले संसार में सोमनाथ के मन्दिर में हीरे कोहिनूर से बने शिवलिंग की स्थापना की गई थी। विभिन्न धर्मो में परमात्मा को इसी आकार में मान्यता दी गई। तभी तो विश्व में न सिर्फ 12 ज्योर्तिलिगं परमात्मा प्रतीक रूप में प्रसिद्ध है बल्कि हर शिवालयों में शिवलिगं प्रतिष्ठित होकर परमात्मा का भावपूर्ण स्मरण करा रहे है। वही ज्योतिरूप में हर धर, मन्दिर, गुरूद्वारों और अन्य धार्मिक स्थलों पर ज्योति अर्थात दीपक प्रज्जवलित कर परमात्मा के ज्योति स्वरूप की आराधना की जाती है। 
परमात्मा शिव ऐसी परम शक्ति भण्डार है, जिनसे देवताओं ने भी शक्ति प्राप्त की है। भारत ही नही मिश्र, यूनान, थाईलैण्ड, जापान, अमेरिका, जर्मनी जैसे दुनिया भर के अनेक देशों ने परमात्मा शिव के अस्तित्व को स्वीकारा है। स्वंय श्रीराम, श्रीकृष्ण और शंकर भी भगवान शिव की आराधना में लीन होते है। जैसा कि पुराणों और धार्मिक ग्रन्थों में भी उल्लेख मिलता है। श्री राम ने जहां रामेश्वरम में शिव की पूजा की तो श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध से पूर्व शिव स्तुति की थी। सृष्टि की रचना की प्रक्रिया का चिंतन करे तो कहा जाता है कि सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर की आत्मा पानी पर डोलती थी और आदिकाल में परमात्मा ने ही आदम व हवा को बनाया जिनके द्वारा स्वर्ग की रचना की गई। चाहे शिव पुराण हो या मनुस्मृति या फिर अन्य धार्मिक ग्रन्थ हर एक में परमात्मा के वजूद को तेजस्वी रूप माना गया है। सवाल उठता है कि अगर परमात्मा है तो वह कहां है ,क्या किसी ने परमात्मा से साक्षात किया है या फिर किसी को परमात्मा की कोई अनूठी अनुभूति हुई है। साथ ही यह भी सवाल उठता है कि आत्मायें शरीर धारण करने से पहले कहां रहती है और शरीर छोडने पर कहां चली जाती हैं। इन सवालों का जवाब भी सहज ही उपलब्ध है। सृष्टि चक्र में तीन लोक होते हैं पहला स्थूल वतन, दूसरा सूक्ष्म वतन और तीसरा मूल वतन अर्थात परमधाम। स्थूल वतन जिसमें हम निवास करते है पंाच तत्वों से मिलकर बना है। जिसमें आकाश, पृथ्वी, वायु, अग्नि और जल शामिल है। इसी स्थूल वतन को कर्म क्षेत्र भी कहा गया है। जहां जीवन मरण है और अपने अपने कर्म के अनुसार जीव फल भोगता है। इसके बाद सूक्ष्म वतन सूर्य, चांद और तारों के पार है जिसे ब्रहमपुरी, विष्णुपुरी और शंकरपुरी भी कहा जाता है। सूक्ष्म वतन के बाद मूल वतन है जिसे परमधाम कहा जाता है। यही वह स्थान है जहां परमात्मा निवास करते है। यही वह धाम है जहां सर्व आत्माओ का मूल धाम है। यानि आत्माओं का आवागमन इसी धाम से स्थूल लोक के लिए होता है। 
परमात्मा के अस्तित्व को स्वीकार कराने और अनुभूत कराने में ब्रहमा बाबा को महारथ हासिल थी। वे लौकिक रूप से भले ही अब इस दुनिया में नही है परन्तु परमात्मा शिव के रथी के रूप में वे आज भी प्रकट होते है और दुनिया को सन्मार्ग दिखाते है। ब्रहमा बाबा के जीवन रहस्यों से जुडी यह पुस्तक न सिर्फ आकार में सबसे बडी होने के कारण न्यारी है अपितु ज्ञान रूप से भी एक दिव्य पुस्तक कही जा सकती है। 
(लेखक ब्रह्माकुमारीज मीडिया विंग के आजीवन सदस्य है)
(लेखक- डॉ श्रीगोपाल नारसन)
 

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