तमिलनाडु राज्य में जल्लीकट्टू के नाम से मकर संक्रांति के दिन त्यौहार मनाने के नाम पर बैलों के साथ क्रूरता पूर्ण व्यवहार की प्राचीन परंपरा पिछले लगभग 2000 वर्ष से जारी है। कोरोना महामारी के चलते इस बार गाइड लाइन का पालन किया गया। आयोजनों में 150-150 खिलाड़ियों ने हिस्सा लिया। आयोजन स्थल पर क्षमता से 50 प्रतिशत दर्शकों को अनुमति दी गई। तमिलनाडु राज्य सरकार के अनुसार तमिलनाडु के इतिहास में पहली बार कोई खिलाड़ी गंभीर घायल नहीं हुआ।
किसी खिलाड़ी की मौत नहीं हुई। बैलों को भी ज्यादा क्षति नहीं हुई। हर वर्ष होने बाले इस खेल में खिलाड़ी किया मौत हो जाती थी। अनेक गंभीर घायल हो जाते थे। इस अमानवीय खेल को हम हमारी सांस्कृतिक विरासत मानकर जारी रखें यह वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आम आदमी के चिंतन का विषय होना चाहिए। पुरानी वर्षों से चली आ रही परंपराओं का क्या आज औचित्य है इस पर भी विचार होना अति आवश्यक है।
हमे यह भी जानना चाहिये कि जल्लीकट्टू क्या है। जल्लीकट्टू में एक बैल को बड़े मैंदान में खुला छोड़ा जाता है। खिलाड़ी उस बैल के कूबड़ से लटककर कुछ दूरी तक जाने का प्रयास करते हैं। बैल की कूबड़ पर या सींग पर रुपयों का थैला बंधा होता है और विजेता को यह थैला पुरस्कार में मिलता है। इस खेल को रोचक बनाने बैल को अनेक अमानवीय यातनाएं दी जाती है। भाला चुभाया जाता है पूंछ मरोड़ी जाती है। इसके पूर्व उसकी आँखों में मिर्ची पावडर डाला जाता है। बैल को शराब भी पिलाई जाती है। बैल को उसकी नाक में पड़ी रस्सी के सहारे घसीटा जाता है,जिससे उसकी नाक से खून बहने लगता है। अनेक यातनाओं से बैल क्रोधित लगभग पागल सा हो जाता है। उस वदहवास क्रोधित बैल पर जीत हासिल कर जश्न मनाया जाता है। क्या यह अमानवीय कृत्य निरीह पशु पर क्रूरता पूर्ण व्यवहार हमारी प्राचीन सांस्कृतिक विरासत कही जा सकती है?
पशु क्रूरता रोकने की पवित्र भावना से सर्वोच्च न्यायालय ने सन 2014 में जल्लीकट्टू सहित पशु क्रूरता से जुड़े अन्य खेलों रेखला,अंबाला और मंजूविरत्थू पर प्रतिबंध लगा दिया था। तब से यह मांग की जा रही थी कि इन खेलों से प्रतिबंध वापस लिया जाये। भारत सरकार ने सन 2016 में एक अध्यादेश जारी कर कुछ प्रतिबंधों के साथ इस खेल को खेले जाने की अनुमति दे दी। इस अध्यादेश को समाज सेवी पशु अधिकार कार्यकर्ताओं द्वारा उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी। उच्चतम न्यायालय ने उक्त अध्यादेश पर रोक लगा दी। इस रोक के बाद तमिलनाडु राज्य विधानसभा ने पशु क्रूरता अधिनियम 1960 में कुछ संशोधन कर जल्लीकट्टू को वैध घोषित कर दिया।
जनवरी 2017 में चेन्नई के मरीना समुद्र तट पर लाखों लोग जल्लीकट्टू पर लगे प्रतिबंध के विरोध में आन्दोलन करते हुए मैंदान में उतर आये। आन्दोलन कारियों में भारी संख्या में युवक आगे आये। काँलेज के विद्यार्थी और बुद्धिजीवी प्रमुख रूप से आगे आये।आन्दोलन में जो भाषण दिये उनमें अनेक मुद्दे उठाये गये जोर शोर से कहा तमिल संस्कृति और गौरवशाली परंपरा पर हमला किया जा रहा है। यह भी कहा गया जल्लीकट्टू हमारी प्राचीन सांस्कृतिक विरासत है। जल्लीकट्टू को जारी रखने की तमिलों की मांग आज विचारणीय प्रश्न है। हमारे देश में सती प्रथा और अछूत प्रथा हिन्दू संस्कृति के अनुसार उचित कही जा रही हैं। दूसरी ओर हिन्दू राष्ट्रवादी यह मानते हैं जल्लीकट्टू एक हिन्दू प्रथा है और लम्बे समय से चली आ रही इस प्रथा पर प्रतिबंध हिन्दू संस्कृति और धर्म में अनुचित हस्तक्षेप है।
आम जनता की भावनाओं को समझकर निर्णय लेना राज्य सरकार एवं केन्द्र सरकार का परम कर्तव्य माना जाता है। जल्लीकट्टू के मामले में राज्य सरकार और केन्द्र का दृष्टिकोण समझ से परे प्रतीत होता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में जारी एन डी ए सरकार स्वयं को गोवंश रक्षक कहती है। इसी सरकार ने जल्लीकट्टू को वैद्य घोषित करने अध्यादेश जारी किया। सुप्रसिद्ध धर्म निरपेक्ष विचारक नेहा दाभाडे ने इस विषय पर लिखा है जल्लीकट्टू का मुद्दा बहुसंख्यकवाद से जुड़ा भी है।
क्या सरकारों के लिये यह उचित है की वे किसी भी ऐसी मांग के आगे झुक जायें, जिसका समर्थन समाज के अधिकांश लोग कर रहे हों,भले ही वह मांग कितनी भी अनुचित या गैर कानूनी क्यों न हो।
जल्लीकट्टू का समर्थन वास्तव में उस हिंसक पशु क्रूरता,प्रतिगामी संस्कृति का भाग है जिसमें मनुष्यों और निरीह पशुओं के साथ क्रूरता मनोरंजन का एक साधन है।क्रूरता कभी किसी संस्कृति के गौरव का आधार नहीं हो सकती। गौरवपूर्ण संस्कृति तो वह होती है जो समानता व करुणा पर आधारित हो। एक ओर भाजपा गोवंश की रक्षा की ओर संकल्पित है। देश के विभिन्न राज्यों मध्यप्रदेश, गुजरात, हरियाणा आदि भाजपा शासित राज्यों में बैल के वध पर प्रतिबंध है।वहीं दूसरी ओर केन्द्र सरकार जल्लीकट्टू जैसे क्रूरता से परिपूर्ण खेल को जारी रखने सहमत है। यह दोहरा चरित्र है। इस खेल में बैल ऐसी वस्तु बन जाता है उसे तरह तरह की यातनाएं देकर नियंत्रण पाया जाता है। जल्लीकट्टू और इससे जुड़ी हिंसक संस्कृति,गाँधी के समानता व स्वतंत्रता के मूल्यों के समर्थन में चलाये गये अहिंसक आन्दोलन और पेरियार के जाति प्रथा विरोधी संघर्ष के विरुद्ध है।
(लेखक- विजय कुमार जैन )
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जल्लीकट्टू पशु क्रूरता का अमानवीय त्यौहार।