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समकालीन दोहे           

समकालीन दोहे           

कैसा कलियुग आ गया, बदल गया इंसान।
दौलत के पीछे लगा, तजकर सब सम्मान।।

बदल गया इंसान अब, भूल गया ईमान 
पाकर दौलत बन गया, मानो ख़ुद भगवान।।

नैतिकता को तज करे, पोषित वो अँधियार।
इंसां अब इंसान ना, बना हुआ अख़बार।।

प्यार,वफ़ा और सत्य अब, ना इंसां के पास।
भावों का खोया हुआ, देखो अब अहसास।।

रिश्ते सारे टूटते, स्वारथ का बाज़ार।
बदला है इंसान का, आज सकल आचार।।

इंसां खो संवेदना, बना हुआ पाषाण।
चला रहा अविवेक के, वह अब नित ही बाण।।

इंसां ने अब खो दिया, अपनेपन का भाव।
भाईचारा है नहीं, भौतिकता का ताव।।

नारी-नर अब छोड़कर, सारा चाल-चरित्र।
बने हुए हैं आजकल, मानो हों चलचित्र।।

नारी वस्त्र उतारकर, बनी हुई गतिशील।
कब का खोया नार ने, भीतर का सब शील।।

बदल गया इंसान अब, बना हुआ है यंत्र।
इसीलिए तो ज़िन्दगी, मानो हो संयंत्र।।

बदल गया इंसान अब, उसका कपटी रूप।
इसीलिए तीखी लगे, मक्कारी की धूप।।

सब उदारता हो गया, मानव अब अनुदार।
दयाभाव अब शोष ना, हिंसा का व्यवहार।।

ख़ूनी है अब आचरण, सत्य गया है रूठ।
मानव को अब भा रहा, केवल-केवल झूठ।।

 (लेखक-प्रो.(डॉ)शरद नारायण खरे )

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