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दीनदयाल उपाध्यायः राष्ट्रवाद के उपासक और निश्छल कर्मयोगी  (11 फरवरी को पुण्यतिथि पर विशेष)

दीनदयाल उपाध्यायः राष्ट्रवाद के उपासक और निश्छल कर्मयोगी  (11 फरवरी को पुण्यतिथि पर विशेष)

राष्ट्रवाद की  जब-जब चर्चा होती है  तब पंडित दीनदयाल उपाध्याय  का स्मरण जरूर होता है। दरअसल सही मायनों में देखा जाये तो  राष्ट्रवाद और दीनदयाल उपाध्याय एक-दूसरे के पर्याय हैं! पंडित जी राष्ट्रवाद के सच्चे उपासक थे! उनका मानना था कि  ‘भारत माता‘ की उपासना और उनके प्रति समर्पण  का भाव ही एकमात्र ऐसा सूत्र है  जो  एकता की डोर में सभी को बांधे रख सकता है।  यही कारण है कि वे भारत भूमि पर रहने वाले सभी जाति,धर्म, पंथानुगामियों को  राष्ट्र की सेवा करते रहने के लिए  प्रेरणा देते थे। वे मानते थे कि भारत के विश्व गुरू बनने का मार्ग राष्ट्रवाद से ही निकलेगा। इसलिए वे सभी को सम दृष्टि से देखते थे। यह उनकी राष्ट्रवादिता और मानव सेवा थी। दरअसल वे स्वभाव से संत, हृदय से करूणा के सागर तथा निश्छल कर्मयोगी थे। पंडित दीनदयाल उपाध्याय के विचार आज भी सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से प्रासंगिक हैं। एक ओर जहाँ उनके विचार श्रेष्ठ हैं वहीं दूसरी तरफ उनका सम्पूर्ण जीवन मानवता की सेवा और उत्थान के लिए समर्पित रहा। व्यक्तित्व एवं कृतित्व का अद्भुत समन्वय यदि देखना हो तो उनका जीवन उसका जाज्वल्यमान प्रतीक था। दर्शन एवं वर्तन,विचार एवं आचार, वृत्ति और कृति में यदि कहीं अभेद और संगीत का साक्षात्कार करना हो तो पंडित दीनदयाल उपाध्याय के जीवन चरित्र से अधिक उत्तम उदाहरण ढूँढना संभव न होगा। विशेषकर आज के युग में जब राजनीति दिशाहीन हो गयी है तथा राजनेताओं के आचरण और तात्विक आदर्शों में भारी विप्रतियस्ति दृष्टिगोचर हो रही है,ऐसे दौर में उनके जैसे कर्मयोगी का पुण्य स्मरण और भी आवश्यक हो जाता है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितंबर 1916 को मथुरा जिले के ग्राम नगला चन्द्रभान में हुआ था। उनके पिता भगवती प्रसाद उपाध्याय स्टेशन मास्टर थे। पिता के आदर्शो का प्रभाव दीनदयाल जी पर खूब पड़ा था। अल्पायु में ही पिता, माता और बहन की मृत्यु होने के बाद भी वे जीवन से हारे नहीं बल्कि अपने संघर्ष को उन्होंने आगे बढ़ाया। स्वदेशी विचारधारा से प्रभावित होने के कारण दीनदयाल जी ने सन् 1941 में प्रयाग से बी.ए. और बीटी परीक्षा के बाद प्रशासनिक परीक्षा तो उत्तीर्ण कर ली परंतु अंग्रेजी हुकूमत की नौकरी करना उन्हें मंजूर न था। इसी दौरान उनके सहपाठी और करीबी मित्र रहे बाबूजी महाशब्दे ने उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ने की प्रेरणा दी। कानपुर में दीनदयाल जी की मुलाकात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ.हेडगेवार से हुयी तो वे उनसे अत्यधिक प्रभावित हुए। डॉ.हेडगेवार के सान्निध्य और मार्गदर्शन में दीनदयाल उपाध्याय ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रशिक्षण प्राप्त किया और प्रचारक के रूप में अपनी पहचान बनायी। संघ में सक्रिय रहने के दौरान ही उनका राजनीति में पदार्पण हुआ। एक कुशल राजनेता के सभी गुण उनमें विद्य्मान थे। वे एक सामान्य कार्यकर्ता की तरह लोगों से मिलते उनकी समस्या सुनते और समाधान खोजते। बड़े-छोटे या ऊँच-नीच जैसा कोई भेदभाव वे कभी नहीं करते। सन् 1952 में जब कानपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रथम अधिवेशन हो रहा था तब पंडित दीनदयाल उपाध्याय की कार्यकुशलता से प्रभावित होकर डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने उनकी प्रशंसा करते हुए कहा था,‘‘मुझे दीनदयाल जैसे होनहार कार्यकर्ता पर पूरा भरोसा है, ऐसे लोग भारतीय राजनीति की दिशा और दशा बदलने में पूरी तरह सक्षम हैं।‘‘ डॉ.श्यामा प्रसाद मुखर्जी से प्रेरणा लेकर दीनदयाल जी  सन् 1967 तक भारतीय जनसंघ के महामंत्री भी रहे। बाद में वे भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष भी बने। 
पंडित दीनदयाल उपाध्याय भारत की सनातन धर्म विचारधारा के प्रबल पक्षधर थे। उनका उद्देश्य स्वतंत्रता की पुर्नरचना के प्रयासों के लिए विशुद्ध भारतीय तत्व दृष्टि प्रदान करना था। उन्होंने भारत की सनातन विचारधारा को योगानुकूल रूप में प्रस्तुत करते हुए एकात्म मानववाद की संज्ञा दी। वे देश के आर्थिक विकास पर जोर देते थे। उनका मानना था कि आर्थिक विकास का मुख्यउद्देश्य सामान्य मानव का सुख है। वे स्पष्ट कहते थे कि ‘‘भारत में रहने वाला और इसके प्रति ममत्व की भावना रखने वाला मानव समूह एकजन है। उनकी जीवन प्रणाली,कला,साहित्य,दर्शन सब भारतीय संस्कृति है। इसलिए भारतीय राष्ट्रवाद का आधार यह संस्कृति है। इस संस्कृति में निष्ठा रहे तभी भारत एकात्म रहेगा।‘‘ ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम‘‘ भारतीय सभ्यता से प्रचलित है। इसी के अनुसार भारत में सभी धर्मो को समान अधिकार प्राप्त है। संस्कृति से किसी व्यक्ति, वर्ग, राष्ट्र आदि की वे बातें, जो उसके मन, रूचि, आचार, विचार,कला-कौशल और सभ्यता की सूचक होती हंै,पर विचार होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो यह जीवन जीने की शैली है। उपाध्याय जी कुशल पत्रकार होने के साथ - साथ चिंतक तथा लेखक भी थे। उन्होंने  राष्ट्रधर्म,पान्चजन्य और स्वदेश जैसी पत्र-पत्रिकायें प्रारंभ की थीं।  वे चाहते थे कि भारत दुनिया में एक विशिष्ट स्थान  प्राप्त करे। अपने विचार उन्होंने भाषणों तथा लेखों में प्रमुखता के साथ रखे। संघ में सेवा कार्य करते रहने के दौरान उनके लेखों तथा ओजस्वी भाषणों का अक्सर प्रसारण होता था। उपाध्याय जी ऐेसे कर्मयोगी नेता, विचारक तथा चितंक थे जिनका जीवन सदैव मानव कल्याण के लिए समर्पित रहा। वे निश्छल भाव से देश,समाज और मानव की सेवा करते रहे। उनका सारा जीवन आज राजनीतिज्ञों के लिए प्रेरणास्रोत है। आज जबकि लोगों का राजनेताओं पर से विश्वास उठ रहा है ऐसे दौर में पंडित दीनदयाल उपाध्याय एक प्रेरक व्यक्तित्व तथा कुशल नेता  के रूप में हमारे सामने आदर्श पुरूष हैं।  पंडित दीनदयाल उपाध्याय के योगदान तथा राष्ट्रसेवा से प्रभावित होकर केन्द्र सरकार ने मुगलसराय जंक्शन का नाम दीनदयाल उपाध्याय स्टेशन किया है। इसी तरह कान्दला बन्दरगाह को दीनदयाल उपाध्याय बन्दरगाह के नाम से अब पहचाना जाता है। 
भारतीय राजनीति क्षितिज का प्रकाशमान नक्षत्र 11 फरवरी 1968 को अस्त हो गया था। इसी दिन उनका पार्थिव शरीर मुगलसराय स्टेशन के यार्ड में पड़ा पाया गया। पंडित दीनदयाल उपाध्याय को भले ही हम दैहिक रूप से नहीं देख पाये हों, परन्तु उनके द्वारा प्रतिपादित विचारों का यदि हमने अध्ययन कर लिया और उसके अनुरूप अपने कार्य की दिशा बना ली तो कोई कारण नहीं कि हम अपने कर्मो से समाज को सुवासित नहीं कर पायें। दीनदयाल जी के विचार आज भी प्रासंगिक हैं। वे हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनके आदर्श,सिद्धांत हमें प्रेरणा देते रहेंगें। 
(लेखक - निलय श्रीवास्तव/)
 

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