अब इसे हमारे माननीय प्रधानमंत्री जी की बाजीगरी कहा जाए कलाकारी.... हमारे प्रजातंत्र के मंदिर (संसद) में इस प्रमुख पुजारी ने अपनी अराधना के दो अलग-अलग रूप दिखाये, संसद के एक सदन में एक दिन जहां प्रतिपक्षी के नेता की बिदाई पर अश्कों की बरसात की तो दूसरे दिन दूसरे सदन में प्रतिपक्ष पर क्रोध की बारिश। अब इसे प्रधानमंत्री की अभिनय विद्या का श्रेष्ठ प्रदर्शन से अधिक क्या कहा जा सकता है? वैसे यदि यह कहा जाए कि मोदी जी ने पहले दिन राज्यसभा में संसदिय संस्कृति को पराकाष्ठा पर पहुंचा कर नेहरू-लोहिया की राजनीति को पीछे छोड दिया वहीं दूसरे दिन लोकसभा में प्रतिपक्ष पर छोड़े गए शब्दों के बागों से इंदिरा जी को पछाड़ दिया, इन दो दिनों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र भाई मोदी के दो अलग-अलग रूप नजर आए जो अपने आपमें काफी अनूठे थे।
पिछली शताब्दी के छठे दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू और प्रतिपक्ष के तेज-तर्रार नेता डाॅ. राम मनोहर लोहिया संसद में काफी तीखी बहस करते थे, किंतु जब दोनों नेता सदन से बाहर निकलते थे तो वे आपस में गलबैयां डाले मुस्कुराकर बतियाते नजर आते थे, किंतु पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राज्यसभा में सदन के नेता प्रतिपक्ष गुलाम नबी आजाद की बिदाई पर जो मर्मस्पर्शी यादें ताजा कर अश्रुओं की बरसात की, वह परिदृष्य संसदीय इतिहास में अभूतपूर्व स्मृति के रूप में दर्ज होगा। भावावेश में उस वक्त प्रधानमंत्री ने गुलाम नबी जी को सदन में वापस लाने तक की बात कर दी, जबकि गुलाम नबी कांग्रेस से जुड़े है, किंतु मोदी की इस भावना को भविष्य के संकेतों से जोड़कर अवश्य देखा जा रहा है, क्योंकि फिलहाल गुलाम नबी जी की उनकी अपनी पार्टी से भी कुछ पटरी बैठ नहीं रही है, इसी अवसर पर समाजवादी पार्टी के एक वरिष्ठ सदस्य ने तो व्यंग की मुद्रा में यह कह भी दिया कि जम्मू-कश्मीर में फिलहाल केन्द्रीय शासन है, इसलिए गुलाम नबी जी को वहां का मुख्यमंत्री घोषित कर दिया जाए। जो भी हो, किंतु मोदी द्वारा गुलाम नबी के भविष्य को लेकर की गई टिप्पणी में भावार्थ काफी निहित है।
यह तो हुआ पहले दिन की राज्यसभा के सदन का किस्सा, लेकिन दूसरे दिन संसद के दूसरे सदन लोकसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर हुई चर्चा के जवाब का मोदी का लहजा पहले दिन से काफी भिन्न था। चर्चा पर जवाब का केन्द्र बिन्दू किसान आंदोलन था, जिसे लेकर मोदी ने प्रतिपक्ष पर ‘आंदोलनजीवी’ जैसे अनेक आरोप लगाए, यही नहीं ‘जीवीपुराण’ के कई अध्यायों का जिक्र किया गया। कुछ को ‘परजीवी’ कुछ को ‘वोटजीवी’ तो कुछ को ‘बुद्धिजीवी’ व ‘चंदाजीवी’ भी कहा गया। अपने डेढ़ घण्टे के भाषण में मोदी जी ने हर तरीके से प्रतिपक्ष को आड़े हाथांे लिया, किंतु किसानों के आंदोलन को ‘पवित्र’ ही बताया।
अपने इस लम्बे वक्तवय के माध्यम से यदि यह कहा जाए कि भारतीय राजनीति की मूल भावना को मोदी ने उजागर किया कतई गलत नहीं होगा? क्योंकि अपने इस लम्बे भाषण के चलते मोदी जी यह क्यों भूल गए कि भारतीय राजनीति में प्रतिपक्ष की यही तो मूल संस्कृति रही है, आजादी के बाद से अब तक पूर्वजनसंघ या मौजूदा भाजपा ही अधिकांश समय तक प्रतिपक्ष में रही है और आज जिन आक्षेपों को लेकर कांग्रेस को मोदी जी आरोपों के कटघरे में खड़ा कर रहे है, क्या मोदी जी की पार्टी के पूर्वज इस कटघरे में लम्बे समय तक खड़े नहीं रहें, क्या भाजपा कभी भी ‘आंदोलन जीवी’ नहीं रही? फिर आज अपनी पार्टी को ‘गंगाजल से धुली’ बताने का प्रयास क्यों किया जा रहा है?
इन्हीं मौजूदा संदर्भों में अब यदि यह कहा जाए कि समय के साथ राजनीति के भी रंग बदलते है तो गलत नहीं होगा, आज कि राजनीति पूरी तरह ‘वोट केन्द्रित’ होकर रह गई है, हर तरीके से राजनीतिक दलों, विशेषकर सत्तारूढ़ दल द्वारा यह प्रयास किया जाता है कि उसी की सत्ता दीर्घजीवी रहे और वही पूरे देश पर एकछत्र राज करें, अब न उसे वोटर की चिंता है न उसकी सुख-सुविधा या चिंताएं दूर करने की। आज की यही ‘राज संस्कृति’ रह गई है और कहने भर को अब हम ‘लोकतंत्री’ रह गए है।
(लेखक- ओमप्रकाश मेहता )
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