हमारी नासमझी और लापरवाही के कारण भारत की पवित्र देेवभूमि धीरे-धीरे विनाश का कारण बनती जा रही है, हमने अपने लाभ के लिए देवभूमि की प्रकृति में जो छेड़छाड़ की उसके कारण प्रकृति काफी नाराज हो गई है और उसने अपने रंग दिखाने शुरू कर दिए है, जिसका ताजा उदाहरण देवभूमि में पसरा यह सन्नाटा हैे, जिसने घोषित रूप से चालीस तथा अघोषित रूप से दो सौ से अधिक जिन्दगियां लील ली है। उत्तराखण्ड (देवभूमि) में प्रवाहित होने वाली प्रमुख नदियों पर हमारे लाभ के लिए वहां के पहाड़ों को पन्द्रह सौ किलोमीटर खोखला कर अभी अट्ठावन और बांध बनाने की योजनाएं है जिससे नदियों के साथ 28 लाख लोग प्रभावित होगें, इन्हीं बांधों के कारण पहाड़ों व वहां की प्रकृति का संतुलन गड़बड़ाया और ऐसे प्राकृतिक हादसे होने लगे है, यदि हमारी यह स्वार्थ लिप्सा खत्म नहीं हुई तो निकट भविष्य में ही हमें भारी से भारी मानव क्षति उठाना पड़ सकती है।
अब तक की खोजों से यह स्पष्ट हुआ है कि भारतीय भूखण्ड एक भीमकाय पत्थर की चट्टान पर टिका हुआ है, जिसे ‘इंडियन प्लेट’ कहते है। यह प्लेट धीरे-धीरे उस ओर खिसक रही है, जहां वह तिब्बत की प्लेट से टकरा रही है, इन दोनों प्लेटों के टकराने से हिमालय विशेषकर उत्तराखण्ड का क्षेत्र भूकम्प से पीड़ित रहा है, यद्यपि टिहरी बांध के कारण दोनों की प्लेट के टकराने की प्रक्रिया कम हुई है, जिससे भूकम्पों में भी कमी आई है, किंतु भारतीय प्लेट का उत्तर की ओर खिसकना जारी है, और इन्हीं भूकम्पों के कारण जहां नदियों के प्रवाहों में तेजी आ जाती है और वे विकराल रूप धारण कर लेती है वहीं हिमालय पर बने बर्फ निर्मित बड़े विशाल ग्लेशियरों के पिघलने और झीलों के निर्माण की प्रक्रिया शुरू हो जाती है और ग्लेशियर निर्मित झीले ही विनाश का कारण बनती है।
पूरे विश्व के प्रमुख वैज्ञानिक पूरे विश्व को इस प्राकृतिक आपदा की चेतावनी देते आ रहे है, किंतु हमने अपनी लिप्सा और स्वार्थ को तिलांजली नहीं दी और पहाड़ी क्षेत्रों में और अधिक नदियों के प्रवाहों को रोककर बड़े-बड़े बांध बनाना जारी रखा है, आज एक ओर जहां अमेरिका जैसा देश अपने देश के चार बड़े बांध तोड़ने की तैयारी कर रहा है, वहीं हमने उत्तराखण्ड में 58 नए बांध बनाने के लिए हिमालय को पन्द्रह सौ किलोमीटर खोखला करने की तैयारी शुरू कर दी है, इससे 28 लाख लोगों का जीवन प्रभावित होगा। अमेरिका जैसा विकसित देश 1976 से अब तक अपने करीब सत्रह सौ बांध तोड़ चुका है, इन बांधों के टूटने से भूकम्प जैसी प्राकृतिक आपदाओं में काफी कमी आई है। किंतु हम भारतीय, प्रकृति की इस चेतावनी पर कोई ध्यान नहीं दे रहे है और अपने ही सर्वनाश की ओर आगे बढ़ रहे है। यह क्या कम आश्चर्यजनक डरावनी खबर है कि भारत में पिछले एक साल में 965 भूकम्प के झटके महसूस किए गए है, अर्थात् हर दिन तीन बार थर्राया था देश। यदि हमने प्रकृति की इन चेतावनियों पर अभी भी ध्यान नहीं दिया तो ज्यादा नहीं कुछ ही सालों में हमारा सर्वनाश संभव है।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि प्राकृतिक संकट की घण्टी सिर्फ भारत में ही नहीं बज रही है, बल्कि विश्व के कई देशों में भी लापरवाही ‘सर्वनाश’ को न्यौता दे रही है। हाल ही में वैज्ञानिकों ने कहा है कि हिमालय से ग्रीन लैण्ड तक पिघलते ग्लेशियरों के कारण कई देशों में खतरे की घंटी सुनाई देने लगी है। वैज्ञानिकों का कहना है कि पहाड़ों का तापमान बढ़ता ही जा रहा है और लगभग हर साल चार सौ अरब टन ग्रीन लैण्ड और अंटार्कटिका में बर्फ की परतें कम हुई है, वैज्ञानिकों का कहना है कि यदि यही सिलसिला जारी रहा तो मुम्बई सहित दुनिया के आठ बड़े महानगर जल में समाहित हो जाएगें, संयुक्त राष्ट्र संघ को सौंपी गई एक पर्यावरणीय रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि यदि ग्लेशियरों का इसी तरह पिघलना जारी रहा तो 2060 तक मुम्बई सहित भारत के कई शहर जल में समाहित हो जाएगें। इन शहरों में कोलकाता भी शामिल है, कुल मिलाकर भारत की चालीस करोड़ आबादी इससे प्रभावित हो सकती है। इसलिए अब ग्लेशियरों को बचाने की हमारी मुहिम प्राथमिकता के आधार पर चलाना बेहद जरूरी हो गया है।
अब यदि हम यह कहें कि हम ग्लेशियरों की पिघलन, भूकम्प, भूकम्प निर्मित झीलों की रिसन आदि प्राकृतिक संकटों से चारों ओर से घिर गए है, तो कतई गलत नहीं होगा। यदि हम अभी भी नहीं चेतें और पहाड़ों के बीच बांध बनाने का सिलसिला जारी रखा तो हमारा सर्वनाश निश्चित है, इसीलिए हमें अभी से इस खतरे से सावधान हो जाना चाहिए क्योंकि प्रकृति की मार बड़ी क्रूर होती है।
(लेखक- ओमप्रकाश मेहता )
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