हम कितने भी आधुनिक हो जाए पर भारतीय दर्शन में कुछ ऐसे आदर्श मानदंड स्थापित किये गए हैं जिनका पालन अनिवार्य हैं। ॐ शब्द में अपर शक्ति का भण्डार हैं। इसका वर्णन जैन और हिन्दू धरम ग्रंथों में बहुत विस्तीर्ण से बताया गया हैं। इस शब्द का अनुगुंजन बहुत विस्तृत के साथ अलग अलग अनुभूतियों से गुजरा हैं। कई की मान्यता हैं की इस शब्द के प्रस्फुटन से अपूर्व शक्ति प्रकट होती हैं। और जीवन को ओमकारमय बनाने सब जिज्ञासु प्रतिपल अनुभवन में लगे रहते हैं। इसका वर्णन एक सामान्य लेख में दिया जाना संभव नहीं है।
जैनागम में अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं साधु यानी मुनि रूप पाँच परमेष्ठी ही आराध्य माने गए हैं। इनके आद्य अक्षरों को परस्पर मिलाने पर 'ओम्'/'ओं' बन जाता है। यथा, इनमें से प्रथम परमेष्ठी 'अरिहन्त' या 'अर्हन्त' का प्रथम अक्षर 'अ' को लिया जाता है।
अरहंता असरीरा आइरिया तह उवज्झया मुणिणो। पढमक्खरणिप्पणो ओंकारो पंचपरमेट्ठी।।
जैनागम में अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं साधु यानी मुनि रूप पाँच परमेष्ठी ही आराध्य माने गए हैं। इनके आद्य अक्षरों को परस्पर मिलाने पर ‘ओम्’/‘ओं’ बन जाता है। यथा, इनमें से प्रथम परमेष्ठी ‘अरिहन्त’ या ‘अर्हन्त’ का प्रथम अक्षर ‘अ’ को लिया जाता है। द्वितीय परमेष्ठी ‘सिद्ध’ है, जो शरीर रहित होने से ‘अशरीरी’ कहलाते हैं। अत: ‘अशरीरी’ के प्रथम अक्षर ‘अ’ को अरिहन्त’ के ‘अ’ से मिलाने पर अ+अ=‘आ’ बन जाता है।
उसमें तृतीय परमेष्ठी ‘आचार्य’ का प्रथम अक्षर ‘आ’ मिलाने पर आ+आ मिलकर ‘आ’ ही शेष रहता है। उसमें चतुर्थ परमेष्ठी ‘उपाध्याय’ का पहला अक्षर ‘उ’ को मिलाने पर आ+उ मिलकर ‘ओ’ हो जाता है। अंतिम पाँचवें परमेष्ठी ‘साधु’ को जैनागम में मुनि भी कहा जाता है। अत: मुनि के प्रारंभिक अक्षर ‘म्’ को ‘ओ’ से मिलाने पर ओ+म् = ‘ओम्’ या ‘ओं’ बन जाता है।
जैन परम्परा की अनेक मूर्तियों की प्रशस्तियों, यंत्रों, हस्तलिखित ग्रंथों, प्राचीन शिलालेखों एवं प्राचीन लिपि में इसी प्रकार से -‘ओम्’/‘ओं’ का चिह्न बना हुआ पाया जाता है। वस्तुत: प्राचीन लिपि में ‘उ’ के ऊपर ‘रेफ’ के समान आकृति बनाने से वह ‘ओ’ हो जाता था। और उसके साथ चन्द्रबिन्दु प्रयुक्त होने से वह -‘ओम्’/‘ओं’ बन जाता था। किन्तु वर्तमान में हस्तलिखित ग्रंथ पढ़ने अथवा उनके लिखने की परम्परा का अभाव हो जाने के कारण अब प्रिंटिंग प्रेस में छपाई का कार्य होने लगा है। हम लोगों की असावधानी अथवा अज्ञानता के कारण प्रिटिंग प्रेस में यह परिवर्तित होकर अन्य परम्परा मान्य ॐ बनाया जाने लगा। इसके दुष्परिणाम स्वरूप हम लोग जैन परम्परा द्वारा मान्य चिह्न को प्राय: भूल गए हैं और ॐ को ही भ्रमवश जैन परम्परा सम्मत मान बैठे हैं।
इस प्रकार जैन परम्परा को सुरक्षित रखने हेतु सभी मांगलिक शुभ अनुष्ठानों, पत्रिकाओं, विज्ञापनों, इंटरनेट, ग्रीटिंग्स, होर्डिंग्स, बैनर, एस.एम.एस., नूतन प्रकाशित होने वाले साहित्य, स्टीकर्स, बहीखाता, पुस्तक, कॉपी, दीवार आदि पर जैन परम्परा द्वारा मान्य का प्रतीक चिह्न बनाकर इसका अधिकाधिक प्रचार-प्रसार किया/कराया जा सकता है।
इस संबंध में जैन धर्म के प्रभावनारत पूज्य आचार्यदेव, साधुगण, साध्वियाँ, विद्वत्मनीषी, प्रवचनकार भी अपने धर्मोपदेश के समय जैन परम्परागत इस ‘ओम्’ की जानकारी तथा इसे बनाने की प्रायोगिक विधि भी जनसामान्य को बतलाकर अर्हन्त भगवान के जिन-शासन के वास्तविक स्वरूप को प्रकट कर/करा सकते हैं। इसे बनाने की विधि सुन-समझकर धार्मिक पाठशालाओं में अध्ययनरत बालक-बालिकाओं को इसकी प्रायोगिक विधि से अभ्यास कराए जाने पर भविष्य में उनके द्वारा इसे ही बनाना प्रारंभ किया जा सकेगा।
ओम का जाप करने से शरीर में प्राण शक्ति का संचार होता है। अधिक प्राण का अर्थ है अधिक जीवन शक्ति, अधिक ऊर्जा व्यक्ति को खुद के साथ अधिक संवाद करने, निर्णय लेने के लिए मन की अधिक स्पष्टता और हमारे रिश्तों में अधिक जागरूकता लाने में मदद करती है।ब्रह्मप्राप्ति के लिए निर्दिष्ट विभिन्न साधनों में प्रणवोपासना मुख्य है। मुण्डकोपनिषद् में लिखा है:
प्रणवो धनु:शरोह्यात्मा ब्रह्मतल्लक्ष्यमुच्यते।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् ॥
कठोपनिषद में यह भी लिखा है कि आत्मा को अधर अरणि और ओंकार को उत्तर अरणि बनाकर मंथन रूप अभ्यास करने से दिव्य ज्ञानरूप ज्योति का आविर्भाव होता है। उसके आलोक से निगूढ़ आत्मतत्व का साक्षात्कार होता है। श्रीमद्भगवद्गीता में भी ओंकार को एकाक्षर ब्रह्म कहा है। मांडूक्योपनिषत् में भूत, भवत् या वर्तमान और भविष्य–त्रिकाल–ओंकारात्मक ही कहा गया है। यहाँ त्रिकाल से अतीत तत्व भी ओंकार ही कहा गया है। आत्मा अक्षर की दृष्टि से ओंकार है और मात्रा की दृष्टि से अ, उ और म रूप है। चतुर्थ पाद में मात्रा नहीं है एवं वह व्यवहार से अतीत तथा प्रपंचशून्य अद्वैत है। इसका अभिप्राय यह है कि ओंकारात्मक शब्द ब्रह्म और उससे अतीत परब्रह्म दोनों ही अभिन्न तत्व हैं। नानक क्यों कहते हैं
गुरु नानक जी का शब्द एक ओंकार सतनाम बहुत प्रचलित तथा शत्प्रतिशत सत्य है। एक ओंकार ही सत्य नाम है। राम, कृष्ण सब फलदायी नाम ओंकार पर निहित हैं तथा ओंकार के कारण ही इनका महत्व है। बाँकी नामों को तो हमने बनाया है परंतु ओंकार ही है जो स्वयंभू है तथा हर शब्द इससे ही बना है। हर ध्वनि में ओउ्म शब्द होता है।
महत्व तथा लाभ
ओउ्म तीन शब्द 'अ' 'उ' 'म' से मिलकर बना है जो त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश तथा त्रिलोक भूर्भुव: स्व: भूलोक भुव: लोक तथा स्वर्ग लोक का प्रतीक है।
लाभ
पद्माशन में बैठ कर इसका जप करने से मन को शांति तथा एकाग्रता की प्राप्ति होती है, वैज्ञानिकों तथा ज्योतिषियों को कहना है कि ओउ्म तथा एकाक्षरी मंत्र का पाठ करने में दाँत, नाक, जीभ सब का उपयोग होता है जिससे हार्मोनल स्राव कम होता है तथा ग्रंथि स्राव को कम करके यह शब्द कई बीमारियों से रक्षा तथा शरीर के सात चक्र (कुंडलिनी) को जागृत करता है।
हर दिन शांत भाव से बैठकर ॐ का चिंतन मनन करने से समस्त तनाव शांत होते हैं और यह ध्यान की प्रारंभिक सीढ़ी हैं। सबके लिए उपयोगी हैं।
(लेखक -अरविन्द प्रेमचंद जैन)
आर्टिकल
जैन धर्म में ॐ का महत्व