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उत्तराखंड की जल विद्युत परियोजनाओं पर प्रश्न चिन्ह 

उत्तराखंड की जल विद्युत परियोजनाओं पर प्रश्न चिन्ह 

चमौली की घटना को हिमालय की चेतावनी के रूप में लिया जाना चाहिए। धौलीगंगा , ऋषि गंगा ये नदियां अलकनंदा की सहायक नदियां हैं जो अलकनंदा में मिलती हैं। इन नदियों पर जल विद्युत परियोजनाएं निर्माण के विभिन्न चरणों में हैं। वैसे समूचे उत्तराखंड में लगभग दो सौ परियोजनाएं प्रस्तावित हैं जिनमें से 58  पनबिजली परियोजनाओं पर काम  चल रहा है। इसके अलावा लगभग डेढ़ सौ जल विद्युत परियोजनाएं उत्तराखंड की विभिन्न छोटी बड़ी नदियों पर प्रस्तावित हैं। ग्लेशियर पिघलने की घटना ने इन सभी पनबिजली परियोजनाओं  के निर्माण पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है।  उत्तराखंड के मुख्यमंत्री श्री रावत यद्यपि इन सभी जल विद्युत परियोजनाओं के पक्ष में हैं  और दृढ़ता से इन परियोजनाओं को राज्य के विकास के लिए जरूरी अबता रहे हैं।  वे चमौली की घटना को लेकर चिन्तित जरूर हैं लेकिन इसे स्वीकार नहीं  करते कि यह घटना हिमालय की चेतावनी है या प्रकृति से इसका कोई संबंध  है ।       यह सही है कि उत्तराखंड की जनता में रोष है।  उत्तराखंड की जनता यह मानती  है जब  अधिकांश नदियां उनके प्रदेश से निकलती हैं तब उनका लाभ उनके प्रदेश को नहीं मिलता।  जब वहां की नदियां दूसरे प्रदेशों में जाती हैं‌ तब उन प्रदेशों में बड़े बांध बनते  हैं जिनसे सिंचाई  होती है, खेत लहलहाते हैं ,बिजली बनती है , प्रकाश मिलता है। उत्तराखंड की जनता के इस  असंतोष को दूर करने के लिए जल विद्युत परियोजनाएं बनीं। उत्तराखंड में प्रस्तावित इन पन बिजली योजनाओं का दुहरा लाभ होगा। एक ओर जनअसंतोष  दूर होगा वहां प्रांत में विद्युत  की कमी समाप्त होगी और यह प्रदेश  बिजली की दृष्टि से सरप्लस स्टेट होगा। आज सभी  उद्योग विद्युत आधारित होते हैं ,यह सभी जानते हैं।
उत्तराखंड सरकार की सोच ठीक है लेकिन इस सोच के कारण कुछ प्रश्न चिन्ह उपस्थित होते हैं। हिमालय में  अकूत वन और प्राकृतिक संपदा है। यदि नदियों का जल प्रवाह रुकता है , वन कटते हैं  तो इस प्राकृतिक सम्पदा का क्या होगा ! इस समस्या का हल सरकार के पास नहीं है ! हिमालय में ग्लेशियर बहुत बड़ी संख्या में  हैं। ये  ग्लेशियर नदियों को सदानीरा बनाते हैं।  नदियों के जीवन में इनका बहुत  महत्व हैं।  ये ग्लेशियर जब क्रोधित होते हैं तब ही मुसीबत  आती  है।  लेकिन उत्तराखंड के मुख्यमंत्री इसे ग्लेशियर का क्रोध या प्रकृति का प्रकोप मानने तैयार नहीं हैं।उनका कहना है कि  यह पहला मौका नहीं है जब यहां आपदा आई लेकिन इस डर से विकास की उपेक्षा करना अफोर्ड नहीं कर सकते। हमारे पहाड़ों के लोक गीत आपदाओं के उदाहरणों  से भरे पड़े हैं।
हिमांचल में पेड़ों की रक्षा के लिये चिपको आन्दोलन की परंपरा रही है।इस परंपरा के अन्तर्गत गौरादेवी सहित अनेक महिलाओं ने सत्याग्रह भी किया। आन्दोलनकारी महिलाओं का मत है कि ठेकेदारों के द्वारा आन्दोलन के दौरान बहुत अत्याचार किया जाता है लेकिन स्थानीय  पुलिस तथा  प्रशासन द्वारा उनका  ही पक्ष लिया जाता है।   
अनेक वैज्ञानिक और पर्यावरणविदों का मत है कि इन परियोजनाओं में भू गर्भ संरचना की  जो चिन्ता होना चाहिये वह नदारद है।  इस आशंका के बावजूद विकास नाम विनाश के बीच सन्तुलन का ध्यान नहीं रखा गया। केदार नाथ कांड  पर लोक सभा मे चर्चा के दौरान श्रीमती सुषमा स्वराज ने  यह मांग की थी कि गंगा मैया पर बनने वाले सारे बांध निरस्त  किये जांय। यह बात कांग्रेस सरकार के जमाने की है। 
पर्यावरण  वैज्ञानिकों के अनुसार पन बिजली योजनाओं की भूख बढ़ती गई। इनके  लिये नदियों के स्वाभाविक बहाव को रोका गया। यही तबाही का कारण है। इसके विपरीत संयुक्त राज्य अमेरिका और  कुछ विकसित देशों का जल विद्युत  परियोजनाओं  का अनुभव अच्छा नहीं है। इन देशों का अनुभव यह है कि जल विद्युत परियोजनाओं में रख रखाव का खर्च अधिक होता है। अब ये परियोजनाएं सरकारी हों या प्रायवेट , इनकी लागत और रख रखाव का का  भार अन्तत: जनता को ही उठाना पड़ता है।  एक बात और , पन बिजली योजनाओं में पूरे वर्ष बिजली प्राप्त नहीं की जा सकती। भारत में केवल चार प्रतिशत बांध ऐसे हैं जहां निरन्तर  जल विद्युत पैदा की जाती है।
चमोली की आपदा प्राकृतिक  थी जिसे पनबिजली परियोजनाओ ने अधिक व्यापक  कर दिया। प्रश्न यही है कि क्या इस बार अधिक सतर्कता से काम होगा और इन परियोजनाओं पर नियंत्रण लगेगा  या हिमालय को ही चेतावनी देने के लिये  बाध्य होना पड़ेगा !लेकिन यह लगता है कि उत्तराखंड में  शान्ति नहीं है !   नवीनतम समाचार यह है कि धौलीगंगा और ऋषिगंगा नदियों में बाढ़ की स्थिति समाप्त नहीं हुई है।
(लेखक-हर्ष वर्धन पाठक )उत्तराखंड की जल विद्युत परियोजनाओं पर प्रश्न चिन्ह 
चमौली की घटना को हिमालय की चेतावनी के रूप में लिया जाना चाहिए। धौलीगंगा , ऋषि गंगा ये नदियां अलकनंदा की सहायक नदियां हैं जो अलकनंदा में मिलती हैं। इन नदियों पर जल विद्युत परियोजनाएं निर्माण के विभिन्न चरणों में हैं। वैसे समूचे उत्तराखंड में लगभग दो सौ परियोजनाएं प्रस्तावित हैं जिनमें से 58  पनबिजली परियोजनाओं पर काम  चल रहा है। इसके अलावा लगभग डेढ़ सौ जल विद्युत परियोजनाएं उत्तराखंड की विभिन्न छोटी बड़ी नदियों पर प्रस्तावित हैं। ग्लेशियर पिघलने की घटना ने इन सभी पनबिजली परियोजनाओं  के निर्माण पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है।  उत्तराखंड के मुख्यमंत्री श्री रावत यद्यपि इन सभी जल विद्युत परियोजनाओं के पक्ष में हैं  और दृढ़ता से इन परियोजनाओं को राज्य के विकास के लिए जरूरी अबता रहे हैं।  वे चमौली की घटना को लेकर चिन्तित जरूर हैं लेकिन इसे स्वीकार नहीं  करते कि यह घटना हिमालय की चेतावनी है या प्रकृति से इसका कोई संबंध  है ।       यह सही है कि उत्तराखंड की जनता में रोष है।  उत्तराखंड की जनता यह मानती  है जब  अधिकांश नदियां उनके प्रदेश से निकलती हैं तब उनका लाभ उनके प्रदेश को नहीं मिलता।  जब वहां की नदियां दूसरे प्रदेशों में जाती हैं‌ तब उन प्रदेशों में बड़े बांध बनते  हैं जिनसे सिंचाई  होती है, खेत लहलहाते हैं ,बिजली बनती है , प्रकाश मिलता है। उत्तराखंड की जनता के इस  असंतोष को दूर करने के लिए जल विद्युत परियोजनाएं बनीं। उत्तराखंड में प्रस्तावित इन पन बिजली योजनाओं का दुहरा लाभ होगा। एक ओर जनअसंतोष  दूर होगा वहां प्रांत में विद्युत  की कमी समाप्त होगी और यह प्रदेश  बिजली की दृष्टि से सरप्लस स्टेट होगा। आज सभी  उद्योग विद्युत आधारित होते हैं ,यह सभी जानते हैं।
उत्तराखंड सरकार की सोच ठीक है लेकिन इस सोच के कारण कुछ प्रश्न चिन्ह उपस्थित होते हैं। हिमालय में  अकूत वन और प्राकृतिक संपदा है। यदि नदियों का जल प्रवाह रुकता है , वन कटते हैं  तो इस प्राकृतिक सम्पदा का क्या होगा ! इस समस्या का हल सरकार के पास नहीं है ! हिमालय में ग्लेशियर बहुत बड़ी संख्या में  हैं। ये  ग्लेशियर नदियों को सदानीरा बनाते हैं।  नदियों के जीवन में इनका बहुत  महत्व हैं।  ये ग्लेशियर जब क्रोधित होते हैं तब ही मुसीबत  आती  है।  लेकिन उत्तराखंड के मुख्यमंत्री इसे ग्लेशियर का क्रोध या प्रकृति का प्रकोप मानने तैयार नहीं हैं।उनका कहना है कि  यह पहला मौका नहीं है जब यहां आपदा आई लेकिन इस डर से विकास की उपेक्षा करना अफोर्ड नहीं कर सकते। हमारे पहाड़ों के लोक गीत आपदाओं के उदाहरणों  से भरे पड़े हैं।
हिमांचल में पेड़ों की रक्षा के लिये चिपको आन्दोलन की परंपरा रही है।इस परंपरा के अन्तर्गत गौरादेवी सहित अनेक महिलाओं ने सत्याग्रह भी किया। आन्दोलनकारी महिलाओं का मत है कि ठेकेदारों के द्वारा आन्दोलन के दौरान बहुत अत्याचार किया जाता है लेकिन स्थानीय  पुलिस तथा  प्रशासन द्वारा उनका  ही पक्ष लिया जाता है।   
अनेक वैज्ञानिक और पर्यावरणविदों का मत है कि इन परियोजनाओं में भू गर्भ संरचना की  जो चिन्ता होना चाहिये वह नदारद है।  इस आशंका के बावजूद विकास नाम विनाश के बीच सन्तुलन का ध्यान नहीं रखा गया। केदार नाथ कांड  पर लोक सभा मे चर्चा के दौरान श्रीमती सुषमा स्वराज ने  यह मांग की थी कि गंगा मैया पर बनने वाले सारे बांध निरस्त  किये जांय। यह बात कांग्रेस सरकार के जमाने की है। 
पर्यावरण  वैज्ञानिकों के अनुसार पन बिजली योजनाओं की भूख बढ़ती गई। इनके  लिये नदियों के स्वाभाविक बहाव को रोका गया। यही तबाही का कारण है। इसके विपरीत संयुक्त राज्य अमेरिका और  कुछ विकसित देशों का जल विद्युत  परियोजनाओं  का अनुभव अच्छा नहीं है। इन देशों का अनुभव यह है कि जल विद्युत परियोजनाओं में रख रखाव का खर्च अधिक होता है। अब ये परियोजनाएं सरकारी हों या प्रायवेट , इनकी लागत और रख रखाव का का  भार अन्तत: जनता को ही उठाना पड़ता है।  एक बात और , पन बिजली योजनाओं में पूरे वर्ष बिजली प्राप्त नहीं की जा सकती। भारत में केवल चार प्रतिशत बांध ऐसे हैं जहां निरन्तर  जल विद्युत पैदा की जाती है।
चमोली की आपदा प्राकृतिक  थी जिसे पनबिजली परियोजनाओ ने अधिक व्यापक  कर दिया। प्रश्न यही है कि क्या इस बार अधिक सतर्कता से काम होगा और इन परियोजनाओं पर नियंत्रण लगेगा  या हिमालय को ही चेतावनी देने के लिये  बाध्य होना पड़ेगा !लेकिन यह लगता है कि उत्तराखंड में  शान्ति नहीं है !   नवीनतम समाचार यह है कि धौलीगंगा और ऋषिगंगा नदियों में बाढ़ की स्थिति समाप्त नहीं हुई है।
(लेखक-हर्ष वर्धन पाठक )

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