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कार छोड़ो साईकिल अपनाओ 

कार छोड़ो साईकिल अपनाओ 

पिछले कुछ दिनों में पेट्रोलियम पदार्थां याने डीजल, पेट्रोल, गैस आदि के दामों में भारी वृद्धि हुई, खाना पकाने की एल.पी.जी. गैस के दाम तो लगभग रू. 100 से अधिक तक बढ़े हैं। भले ही सरकारें अपने विकास की तुलना विश्व स्तर पर दुनिया के देशों से करती है और अपनी पीठ थपथपाती हो, परन्तु दुनिया के अन्य देशों में पेट्रोलियम पदार्थां के दाम भारत की तुलना में बहुत कम यानि लगभग 1/3 के बराबर है, फिर अभी दुनिया में तेल उत्पादक देशों ने या गैस निर्यात करने वाले देशों ने तेल या गैस के दामों में कोई वृद्धि भी नहीं की है, इसलिए यह वृद्धि किसी भी प्रकार से तार्किक नहीं है।
डीजल, पेट्रोल, गैस ये आज के समय में व्यक्ति की लगभग बुनियादी जरूरतों जैसी बन गई है। वनों का घटता रकबा शहरों में लकड़ी की गंभीर समस्या और छोटे-छोटे किराए के मकानों में रहने वाली करोड़ों की आबादी जो लकड़ी का इस्तेमाल नहीं कर सकती जिसे लकड़ी उपलब्ध भी नहीं है, और वह अपने घरों में लकड़ी जला भी नहीं सकती, लकड़ी का धुंआ निकासी का प्रबंध भी इन घरों में नहीं तथा इस सुविधा की गुंजाईश तक नहीं है। आर्थिक और स्वास्थ्य कारणों से प्राकृतिक गैस ही इनकी एक मात्र सहारा है। इन गरीबों के लिए गैस के दामों की वृद्धि एक बड़ा आर्थिक हमला जैसा है। सरकार ने पिछले वर्षां में कई करोड़ गैस सिलेंडर उज्जवला योजना के नाम से निशुल्क न केवल शहरों के गरीबों को बल्कि ग्रामीण अंचल वालों को वितरित किए थे अब स्थिति यह हो रही है कि, यह सिलेन्डर घरों में जमा है और कबाड़ बन रहे है, क्योंकि बहुत सारे गरीब परिवारों के लिए इन्हें भराना संभव नहीं हो पा रहा है। दिन प्रति दिन बढ़ रही शहरी और महानगरी आबादी के चलते लोग गाँव से शहरों की ओर पलायन कर गये है, कुछ इसलिए कि गाँव में बिजली, पानी, शिक्षा, चिकित्सा जैसी बुनियादी समस्याओं की या तो व्यवस्था नहीं है या पर्याप्त रूप से नहीं है। एक बहुत बड़ी आबादी का हिस्सा रोजगार की तलाश में शहरों की ओर पलायन करने को लाचार है। औसतन 40-50 लाख लोग प्रतिवर्ष गाँव और खेतों को छोड़कर शहरों की ओर पलायन कर रहे है। इनके पास भोजन पकाने के लिए फिलहाल गैस ही एक मात्र जरिया है। लकड़ियां व कोयला मिलना भी मुश्किल है, और मिल जाए तो महँगा तथा अस्वास्थकर भी है। बिजली से भी इनका जीवन चलाना एक कठिन कार्य है, क्योंकि एक तो बिजली की आपूर्ति न केवल निर्वाध रूप से ग्रामीण अंचल में कठिन है बल्कि बाधित भी है। यह जो लोग ग्रामीण इलाकों से पलायन करके आए है, यह शहरों के दूरस्थ इलाकों में जाकर रहते हैं, और इन्हें दुपहिया वाहन जैसे साधन की आवश्यकता होती है। पेट्रोल के दाम बढ़ने से इनके ऊपर अतिरिक्त आर्थिक बोझ बढ़ा है। पेट्रोल, डीजल के दाम बढ़ने से सार्वजनिक यातायात का खर्चा बढ़ा तथा माल ढुलाई आदि की वृद्धि से वस्तुओं के दाम भी बढ़े हैं। जब पेट्रोलियम पदार्थां के दाम बढ़ते हैं तो समूचे देश में महँगाई का एक नया चक्र शुरू होता है, और बाजार में वस्तुओं के दाम बढ़ते हैं, इसके पीछे मुख्य कारण माल ढुलाई इत्यादि का खर्च बढ़ जाना होता है। 
दरअसल हमारे देश में पेट्रोलियम पदार्थां के दाम वृद्धि के पीछे कोई वैश्विक कारण नहीं है, बल्कि सरकारों के द्वारा बढ़ाए जाने वाला टैक्स मुख्य कारण है। अभी भी स्थिति यह है कि, पेट्रोलियम पदार्थां के वर्तमान दामों में याने पेट्रोल-डीजल कच्चे तेल व गैस के आयात के दाम वमुश्किल 20 प्रतिशत है, शेष 80 प्रतिशत केन्द्र राज्य आदि के द्वारा लगाए गये टैक्स है, सरकारों ने पेट्रोलियम पदार्थां को भी अपनी कमाई का एक जरिया जैसा बना लिया है, जहाँ एक तरफ यह स्थिति है, वही दूसरी तरफ पेट्रोल डीजल और गैस की गैर जरूरी खपत या विलासी खपत को रोकने के लिए भी कोई उपाय सरकारें नहीं करना चाह रही है। शायद इसलिए कि सरकारें स्वतः इन पैसे वालों के चंदे से बनती और चलती हैं इसलिए उन पर सरकारों का कोई नियंत्रण नहीं है, बल्कि सरकारें उनके नियंत्रण में है।  लो.स.पा. लम्बे समय से यह माँग करती रही है कि एक परिवार में अधिकतम एक कार का कानून बनाया जाए परन्तु सरकारे रोजगार के बहाने कारों के उद्योग को फैला रही है और कारों की खरीददारी को बढ़ा रही है, सरकार इसके लिए तर्क देती है कि, कार उद्योग को आर्थिक संकट से मुक्त कराना व मंदी से बचाना है। याने देश के मुश्किल से 40-50 कार उत्पादकों और उनके यहाँ काम करने वाले 4-5 लाख कर्मचारियों के बहाने सरकार देश के एक अरब गरीब और मध्य वर्गीय आबादी को सूली पर लटकाने को तैयार है। 
पिछले दिनों स्वतः सरकारी सर्वेक्षणों से यह सिद्ध हो गया है कि महानगरों में मुश्किल से 20 प्रतिशत प्रदूषण पराली को जलाने या उद्योगों का है, 80 प्रतिशत प्रदूषण तो कारों और चै पहिया वाहनों का है, कार्बनडाई आक्साइड की मात्रा वायुमंडल में इतनी अधिक बढ़ रही है वह बच्चों तक को अस्थमा का शिकार बना रही है। एक अंतरराष्ट्रीय अध्ययन के अनुसार दुनिया में सर्वाधिक कार्बनडाई आक्साइड प्रदुषण फैलाने में पहले नंबर पर चीन है और दूसरे नंबर पर भारत। लगभग 19 लाख लोग प्रति वर्ष भारत में कार्बनडाई आक्साइड के प्रदूषण से मौत का शिकार हो रहे है। शहरी सभ्यता ने ग्रामीण समाज पर दो तरफा हमला किया है एक ग्रामीण समाज की जमीनों को महानगर और सम्पन्न समाज निगल रहा है, दूसरी तरफ महानगरी सभ्यता का अजगर ग्रामीण समाज को दिन प्रति दिन लीलते जा रहा है तथा गाँवों की शुद्ध हवा, शुद्ध पानी, हरी-भरी जमीन को हड़प कर गाँवों में घूरे, अपराध और असभ्यता का प्रदूषण फैला रहा है। 
शहरों की सड़के अब आम आदमी के चलने लायक भी नहीं बची है। उन पर पैदल चलना, दुर्घटना और मृत्यु को निमंत्रण देना है। अधिकांश सड़कों पर न तो फुटपाथ और न साइकिल पथ बने और यदि थोड़े बहुत फुटपाथ बने भी थे उन पर या तो कारों ने या फुटपाथ विक्रेताओं ने कब्जा कर लिया है। ऐसा लगता है कि, जैसे देश के गरीब और आम आदमी से सड़क तो दूर फुटपाथ पर चलने का अधिकार भी छीन लिया गया है। शहरों के पुराने कबाड़खाने की कारें गाँव में सस्ते दामों पर पहुंच रही है, और धुंआ फैला रही है। 
पेट्रोलियम पदार्थां की दाम वृद्धि और घातक प्रदूषण जो एक प्रकार के नरसंहार की स्थिति में पहुंच चुका है, दोनों को साथ-साथ देखना होगा, अगर सरकार आज भी ये प्रतिबंधात्मक कानून बना दें:-
1.    एक परिवार अधिकतम एक कार का नियम बनें तो देश की सड़कों से करोड़ों कारें हट जाएंगी और एक मोटे अनुमान के अनुसार अगर 10 करोड़ कारें इस कानून के आधार पर सड़कों से हट जाए तो औसतन 100 करोड़ लीटर डीजल- पेट्रोल यानि आज के हिसाब से 10 हज़ार करोड़ रूपया प्रतिदिन का बच जाएगा। इससे न केवल हमारी विदेशी मुद्रा बचेगी बल्कि साल का 36 लाख करेाड़ तेल का आयात बिल भी कम हो जाएगा। इतना ही नहीं इससे प्रदूषण खत्म होगा और सड़कों का जाम भी समाप्त हो जाएगा। नए-नए फ्लाई ओवर व सड़कों की चैड़ाई इत्यादि करने की आवश्यकता भी नहीं पड़ेगी। इनको बनाने के नाम पर जो लाखों गरीब विस्थापित किए जाते है, उन्हें विस्थापित करने की जरूरत नहीं होगी और सम्पन्न तबके की विलासता मुक्त कारो को दौड़ाने पर सड़क पर चलने और सोने वालों की हत्या से भी मुक्ति मिलेगी। 
2.    सड़कों पर खड़ी होने वाली कारंे आज सबसे बड़ी अतिक्रमणकारी बन गई है। अगर सरकार यह कानून भी पारित करंे कि केवल वही लोग कार खरीद सकेंगे जिनके पास निजी पार्किंग व्यवस्था हो तथा इसका प्रमाण पत्र हो तो यह भी कारों की खरीद को रोकने का एक महत्वपूर्ण कदम होगा। 
3.    जो पुरानी कबाड़खाने के लायक कारें है उन्हें भी अब सरकार को जब्त कर ठिकाने लगाने का कानून बनाना चाहिए। इन कबाड़ी कारों के बोझ से न केवल भारत बल्कि सारी दुनिया संकट का सामना कर रही है, यहाँ तक कि ब्रिटिश और यूरोप के कई छोटे-छोटे देश इससे इतने प्रभावित हुए है कि, जिसकी कल्पना करना कठिन है। ब्रिटिश भारत की आबादी का लगभग 1/5 के बराबर आबादी वाला देश है, परन्तु ब्रिटिश में इस वर्ष 7 लाख से अधिक पुरानी कारें खड़ी हो गई है, पुरानी कारों का बाजार 31 प्रतिशत तक गिर गया है। जहाँ 2019 में 23 लाख पुरानी कारें बिक्री योग्य थी अब उनकी संख्या घटकर 16 लाख से कम हो गई और ब्रिटिश के स्टेडियम में अब इन पुरानी कारों को खड़ा किया गया है। समूचे यूरोप में और विशेषतः स्पेन, जर्मनी, ब्रिटेन, इटली और फ्रांस में नई कारों का बाजार 26 प्रतिशत तक गिरा है, तथा पुरानी कारों का बाजार 30 प्रतिशत। याने अब यूरोप भी नई पुरानी कारों से मुक्ति का मार्ग तलाश रहा है, तथा फ्रांस, जर्मनी आदि ने तो अपनी राजधानियों में बाहर से आने वाली कारों पर रोक लगा दी है, और साईकिल नाके बना दिये हैं, जहाँ से साइकिल लेकर अंदर जा सकते है। 
4.    भारत सरकार को भी राजधानियों, महानगरों में बाहर से आने वाली कारों को अंदर आने से रोककर साइकिल के प्रयोग का प्रावधान करना चाहिए। बीमार, विकलांग, बुजुर्ग लोगांे को अनुमति दे सकते है। हर सरकारी सड़क के साथ फुटपाथ और साइकिल पथ का प्रावधान किया जाए इससे न केवल कारों, प्रदूषण और जाम से मुक्ति मिलेगी बल्कि शारीरिक परिश्रम से देश भी स्वस्थ रहेगा और इससे लाख दो लाख कार व्यापार से संबंधित कर्मचारियों का रोजगार जाएगा पर इससे 30-40 लाख लोगों को साइकिल उद्योग के व्यापार का रोजगार मिल भी जाएगा। याने एक का रोजगार छिनेगा तो 40 लोगों को स्वास्थ्यवर्धक रोजगार मिलेगा। इससे विषमता भी कम होगी, देशवासी गरीब और अमीर की मानसिक कुंठा से भी मुक्त होंगे और इसमें आपस में मेल जोल बढ़ेगा। 
ये कदम उठाना कठिन नहीं है, बस केवल संकल्प, दृढ़ निश्चय की आवश्यकता है। मैं नहीं जानता हूं कि, हर बात पर मोदी है, तो मुमकिन कहने वाले इन मुद्दों पर मोदी है तो न मुमकिन है क्यों कह रहे है? यह कार्पाेरेट सभ्यता, पूँजीवादी तंत्र और उसके प्रचार का असर है, या फिर मानसिक कमजोरी पर यह कमी तो है, इसे दूर करना होगा। 
(लेखक- रघु ठाकुर )

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