अर्थव्यवस्था में मंदी की चर्चा शुरू हो गई है । भारत सहित दुनिया के कई देशों में आर्थिक गतिविधियों में सुस्ती के स्पष्ट संकेत दिख रहे हैं. अर्थव्यवस्था के मंदी की तरफ बढ़ने पर आर्थिक गतिविधियों में चौतरफा गिरावट आती है । ऐसे कई दूसरे पैमाने भी हैं, जो अर्थव्यवस्था के मंदी की तरफ बढ़ने का संकेत देते हैं । इससे पहले आर्थिक मंदी ने साल 2007-2009 में पूरी दुनिया में तांडव मचाया था. यह साल 1930 की मंदी के बाद सबसे बड़ा आर्थिक संकट था.यहां हम ऐसे संकेतों पर चर्चा कर रहे हैं ।
यदि किसी अर्थव्यवस्था की विकास दर या जीडीपी तिमाही-दर-तिमाही लगातार घट रही है, तो इसे आर्थिक मंदी का बड़ा संकेत माना जाता है । किसी देश की अर्थव्यवस्था या किसी खास क्षेत्र के उत्पादन में बढ़ोतरी की दर को विकास दर कहा जाता है. यदि देश की विकास दर का जिक्र हो रहा हो, तो इसका मतलब देश की अर्थव्यवस्था या सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) बढ़ने की रफ्तार से है । जीडीपी एक निर्धारित अवधि में किसी देश में बने सभी उत्पादों और सेवाओं के मूल्य का जोड़ है । अर्थव्यवस्था में यदि उद्योग का पहिया रुकेगा तो नए उत्पाद नहीं बनेंगे ।इसमें निजी सेक्टर की बड़ी भूमिका होती है । मंदी के दौर में उद्योगों का उत्पादन कम हो जाता. मिलों और फैक्ट्रियों पर ताले लग जाते हैं, क्योंकि बाजार में बिक्री घट जाती है । यदि बाजार में औद्योगिक उत्पादन कम होता है तो कई सेवाएं भी प्रभावित होती है । इसमें माल ढुलाई, बीमा, गोदाम, वितरण जैसी तमाम सेवाएं शामिल हैं. कई कारोबार जैसे टेलिकॉम, टूरिज्म सिर्फ सेवा आधारित हैं, मगर व्यापक रूप से बिक्री घटने पर उनका बिजनेस भी प्रभावित होता है ।
अर्थव्यवस्था में जब लिक्विडिटी घटती है, तो इसे भी आर्थिक मंदी का संकेत माना जा सकता है । इसे सामान्य मानसिकता से समझें, तो लोग पैसा खर्च करने या निवेश करने से परहेज करते हैं ताकि उसका इस्तेमाल बुरे वक्त में कर सकें । इसलिए वे पैसा अपने पास रखते हैं । मौजूदा हालात भी कुछ ऐसी ही हैं. कुल मिलाकर देखा जाए तो अर्थव्यवस्था की मंदी के सभी कारणों का एक-दूसरे से ताल्लुक है । इनमें से कई कारण मौजूदा समय में हमारी अर्थव्यवस्था में मौजूद हैं । इसी वजह से लोगों के बीच आर्थिक मंदी का भय लगातार घर कर रहा है. सरकार भी इसे रोकने के लिए तमाम प्रयास कर रही है. आम लोगों के बीच मंदी की आशंका कितनी गहरी है, इसक अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि बीते पांच सालों में गूगल के ट्रेंड में ' स्लो डाउन ' सर्च करने वाले लोगों की संख्या एक-दो फीसदी थी, जो अब 100 जा पहुंची है। यानी आम लोगों के जहन में मंदी का डर घर कर चुका है ।कई रेटिंग एजेंसियों और समीक्षकों ने तालाबंदी की वजह से वित्त वर्ष 2020-21 की पहली तिमाही में जीडीपी में 20 प्रतिशत तक की कटौती का पूर्वानुमान लगाया है । आरबीआई का कहना है कि इतिहास में पहली बार भारतीय अर्थव्यवस्था के सिकुड़ने के आसार हैं और इसके महामारी से पहले के स्तर तक वापस पहुंचने में काफी वक्त लगेगा ।रिपोर्ट में बताया जाता है कि खपत को जो झटका लगा है वो गंभीर है और जो सबसे गरीब हैं उन्हें सबसे ज्यादा चोट लगी है । रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि मई और जून में अर्थव्यवस्था ने जो गति पकड़ी थी वो भी अब राज्यों द्वारा स्थानीय तालाबंदी लगाने की वजह से जा चुकी है । इसका मतलब है कि आर्थिक गतिविधि का सिकुड़ना दूसरी तिमाही में भी जारी रहेगा ।
दूसरी ओर चिंता की सबसे बड़ी वजह बढ़ रही महंगाई और बेरोजगारी बन गई है। महामारी के दौर में जहां साधारण लोगों से उनके रोजगार छिन गए वहीं डिग्री धारकों को भी हाथ बांधे बैठे रहना पड़ रहा है। सरकारी नौकरियों के लिए निकलने वाली वैकेंसी भी नाममात्र आ रही हैं। अब तो अर्थव्यवस्था को गतिमान बनाए रखने के लिए धन के निरंतर प्रवाह की जरूरत है। सरकार के सामने धन जुटाना बहुत बड़ी चुनौती है। सरकार का मानना है कि उसके पास पैसे नहीं हैं क्योंकि कोरोना काल में काफी धन खर्च किया जा चुका है। पैट्रोल-डीजल की कीमतें आम आदमी की कमर तोड़ रही हैं। रसोई गैस की कीमतों में बढ़ौतरी ने रसोई में पकने वाले खाने तक को चिंता का मामला बना दिया है। कोरोना काल में ट्रेनें भी ठप्प रहीं, रेलवे को बहुत नुक्सान हुआ। अब छोटी दूरी की ट्रेन सेवाओं के किराए में बढ़ौतरी कर दी गई है। चिंता गहरा रही है कि अगर महंगाई इसी तरह बेलगाम रही तो कुछ समय बाद आम लोगों के सामने गुजारा करने के कितने दिन बचेंगे। तेल-डीजल के दामों में बढ़ौतरी का असर सभी वस्तुओं पर पड़ता है। दरअसल वस्तुओं की आपूर्ति आमतौर पर डीजल चालित वाहनों पर निर्भर करती है क्योंकि ढुलाई का खर्च बढ़ता है, जिसके असर से खुदरा वस्तुओं की कीमतें बढ़ जाती हैं। किसान अपनी खेती को बाज़ार में लाने की बजाय जलाना पसंद कर रहे हैं । दुग्ध उत्पादक दूध का भाव 100 रूपया करने की धमकी दे रहे है ऐसे में महंगाई और बढ़ेगी ।
भारत के साधारण परिवारों में छोटे स्तर पर की जाने वाली घरेलू बचतों की प्रवृति के चलते लोगों ने कोरोना काल में लगभग एक साल तक अकाल का सामना किया, जैसे-तैसे समय निकाल लिया, लेकिन अगर यही स्थिति की निरंतरता बनी रही तो बहुत दिनों तक लोग खुद को सम्भाल नहीं पाएंगे। महंगाई का सबसे बड़ा असर निम्न, मध्यम और कमजोर वर्गों पर पड़ रहा है।अगर अर्थव्यवस्था को बैंकिंग क्षेत्र के नजरिये से देखें तो सामने चुनौतियां ही चुनौतियां नजर आएंगी। कोरोना काल में विभिन्न ऋणों पर मोरेटोरियम दिया गया। ब्याज को भी निलम्बित रखा गया। उसका असर बैंकों की बैलेंस शीट पर दिखाई देने लगा है। बैंकिंग इंडस्ट्री इस बात को लेकर चिंतित है कि पिछले 6 महीनों से कोई भी खाता एनपीए घोषित नहीं किया गया। अब जब आकलन किया जाएगा तो न सिर्फ बैंकों का एनपीए बढ़ जाएगा बल्कि उनका मुनाफा भी काफी कम हो जाएगा। इस समय पैट्रोल-डीजल की कीमतों को कम करने के लिए केन्द्र और राज्य सरकारों को समन्वित प्रयास करने चाहिएं। कुछ राज्यों ने तेल पर वैट की दरें कम की हैं। मांग तब बढ़ेगी जब लोगों की जेब में कुछ बचत होगी और वह बाजार में खरीददारी करने जाएगा। मांग बढ़ेगी तो उद्योग गतिशील होंगे। लेकिन लगता है कि गतिशील होने में कुछ समय लग सकता है, मौजूदा रुझान भविष्य के लिए आश्वस्त तो करते ही हैं पर जब गतिशील हो तब जनता को राहत मिले तो ठीक नहीं तो जनता मनोज कुमार के पूरब – पश्चिम फिल्म के गाने ‘ बाकी जो बचा है उसे महंगाई मार गई ‘ गाकर मन मार कर महंगाई को नीयति समझ चुप कर बैठ जाएगी । संत रहीम ने सच ही कहा हैं :-रहिमन चुप हो बैठिये, देखि दिनन के फेर।जब नीके दिन आइहैं, बनत न लगिहैं देर॥
(लेखक- अशोक भाटिया)
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बाकी कुछ बचा तो महंगाई मार गई .... !