5 अगस्त 2020 का दिन केवल राममंदिर आंदोलन का सुखद पटाक्षेप भर नही है।बल्कि इसे भारत के स्वत्व का प्रकटीकरण कहना उचित होगा। वस्तुतः मंदिर निर्माणारम्भ के पश्चावर्ती सामाजिक माहौल को गहराई से समझने की आवश्यकता भी है ।इसे केवल एक न्यायिक निर्णय की अनुपालना समझना बेहद सतही किस्म का विमर्श है। सुस्थापित धारणा है कि राममन्दिर एक राष्ट्रमंदिर की भव्यता का पड़ाव है। इससे भी महत्वपूर्ण तथ्य यह कि भारतीय समाज नकली बौद्धिकता के नाजीवादी आवरण से मुक्त हो रहा है।बहुलता,विविधता,अल्पसंख्यकवाद,सामासिक सँस्कृति,मनुवाद,ब्राह्मणवाद,फासीवाद,नाजीवाद,दलितवाद,नस्लवाद,सामाजिक न्याय,फुले -अम्बेडकर विचारधारा, दलित मुस्लिम एकीकरण,वनवासी हिन्दू अलगाव,जैसी अवधारणाओं औऱ इन सबकी आधारभूमि सेक्युलरवाद के विदाई गीत नया हिंदुस्थान मुखरता के साथ गा रहा है।इसे आप साधारण सामाजिक बदलाब कहकर आगे नही बढ़ सकते हैं।वस्तुतः यह भारत की पुण्यभूमि पर उसके स्वत्व का अभ्युदय भी है।ध्यान से अगर इस परिवर्तन को समझने का प्रयास करें तो यह मात्र राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दर्शन का स्वर्णकाल ही नही है अपितु सेक्युलरवाद में अपमानित की गई आचार्य विष्णुगुप्त,आदि शंकराचार्य, स्वामी विवेकानंद,दयानन्द सरस्वती,राजा राममोहन राय,अरविंद,रामकृष्ण परमहंस,सावरकर,मुंजे और गांधी जैसी महान वैचारिकी के संघर्षपूर्ण विजय का पावन पड़ाव भी है। 'राम अब 'केवल संसदीय सियासत के उत्प्रेरक नही है वे "भू सांस्कृतिक निधि" के रूप में धारण हो रहे है।सेक्युलरवाद ने जिन मिथ्या सामाजिक -सांस्कृतिक प्रस्थापनाओं को खड़ा किया था वे आज भरभरा कर संसदीय राजनीति के मैदान पर ध्वस्त हो रही है।सबसे महत्वपूर्ण पक्ष इस नए अभ्युदय का यह भी है कि 'हिन्दू एकीकरण' की अवधारणा संसदीय राजनीति की चुनावी जय पराजय से परे एक स्वतंत्र धरातल पर आकार ले चुकी है।संघ की स्थापना के साथ जिस दर्शन को डॉ केशव बलिराव हेडगेवार भारतीय सन्दर्भ में प्रतिपादित कर नए पथ का निर्माण कर रहे थे उसका सामाजिक और सांस्कृतिक धरातल आज मजबूती से सामने खड़ा है-
"हिंदुओं की सामाजिक बहुलता उनकी सांस्कृतिक विविधता हिंदुत्व की एकता में कोई अवरोधक नही है।"
इस मौलिक विचार को संघ भी मानता है और शंकराचार्य से लेकर,गांधी विवेकानंद तक इसी विमर्श को केंद्र में लेकर चले है।2014 से 2020 की अवधि में उभरी भारत की सामाजिक राजनीतिक तस्वीर को अगर निष्पक्ष भाव से देखें तो इस तथ्य की ही पुष्टि होती है।
भाजपा और मोदी के राजनीतिक उभार को एक कोने में रख कर भी विचार करें तो यह स्पष्ट है कि वामपंथी प्रस्थापनाओं को बहुसंख्यक चेतना ने खारिज कर दिया है।इसलिये भविष्य में बीजेपी की चुनावी पराजय सकल हिन्दू चेतना का प्रतिनिधित्व करेगी यह भी एक बड़ी बौद्धिक भूल ही होगी।इसे हमें यूं समझना चाहिए कि 2004 एवं 2009 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी की पराजय के बाबजूद उसे हिन्दू समाज के वोट यूपीए से अधिक प्राप्त हुए थे।
वामपंथियों द्वारा सामाजिक न्याय,दलित चिंतन,ब्राह्मणवाद,बहुजनवाद,फासीवाद,मनुवाद जैसे डरावने बौद्धिक उपकरणों से हमारी समवेत चेतना को सामाजिक स्तर पर सशक्त राज्याश्रय से बंधक बना लिया गया था। पिछले 95 बर्षों से संघ ने इन शरारती अवधारणाओं से जो धैर्यपूर्ण संघर्ष किया है आज उसके परिणाम स्पष्ट नजर आ रहे है।सामाजिक न्याय के नाम पर जो नवसामंत संसदीय राजनीति के ठेकेदार बन गए थे वे आज संघ के समावेशी राजनीतिक औऱ सामाजिक प्रयासों के आगे पिट गए है।यूपी,बिहार,मप्र,हरियाणा,राजस्थान से लेकर पूर्वोत्तर के सामाजिक राजनीतिक मिजाज को ध्यान से देखें तो हम पायेंगे कि सत्ता में सर्वहारा की वास्तविक भागीदारी तो सही मायनों में अब बीजेपी के प्लेटफार्म से सुनिश्चित हो रही है।यूपी के 2017 के विधानसभा औऱ 2019 के लोकसभा नतीजे केवल राष्ट्रव्यापी मोदी लहर के साथ विश्लेषित किया जाना निरी मूर्खता है क्योंकि यह दोनों नतीजे जाति आश्रित सिंडिकेट्स के लिए एकीकृत हिन्दू चेतना का संसदीय दस्तावेज भी है।इसे यूं भी समझना चाहिये कि सामाजिक न्याय असल मायनों में कुछ प्रभुत्वशाली जातियों के मुस्लिम गठजोड से उपजा ऐसा नासूर था जो अंततः राष्ट्र की एकता के लिए खतरा तो है ही समानन्तर रूप से भारत के बहुसंख्यक कमजोर तबके के लिए भी मुख्यधारा से विमुख करता रहा है।संघ की आरम्भ से ही धारणा रही है कि आर्थिक,राजनीतिक न्याय का समान वितरण होना चाहिये।इसे लेकर संघ ने सदैव स्पष्ट नजरिया रखा है बिहार के 2016 चुनाव में डॉ मोहनराव भागवत के आरक्षण सबंधी व्यवहारिक बयान को बीजेपी की पराजय का कारण बताया गया लेकिन राष्ट्रीय सन्दर्भ में इसकी उपयोगिता को आज कार्यरूप में सफल निरूपित किया जा सकता है-यूपी,बिहार में आज पिछड़ी औऱ दलित जातियों का मौजूदा सियासी प्रतिनिधित्व असल में महज सोशल इंजीनियरिंग नही है बल्कि यह हिन्दू समाज के समावेशी उभार का दौर भी है।खास बात यह है कि सब बीजेपी और मोदी के मजबूत भरोसे पर आकार ले रहा है।यानी ब्राह्मणवाद या मनुवाद की आस्थानुमा बौद्धिक दलीलों के मध्य सत्ता के जो चंद सिंडिकेट्स खड़े किए गए थे वे ध्वस्त हो चुके है।ब्राह्मणवाद के शोर में दलित और पिछड़ी जातियों के मध्य जो झूठी प्रतिक्रियावादी अस्मिता खड़ी की गई वह वास्तविक प्रतिनिधित्व के सवाल पर बेनकाब हो गई।अमित शाह की सोशल इंजीनियरिंग का नाम देकर इसके गहरे सामाजिक और सांस्कृतिक निहितार्थ को आज भी कमतर साबित करने का प्रयास किया जाता है लेकिन सच्चाई यह है कि संघ जिस हिन्दू समरूपता की बुनियादी वकालत दशकों से जमीन पर करता रहा है यह उसी की कार्य परिणीति भी है।आखिर कब तक ब्राह्मणवाद का नकली भय खड़ा कर अल्पसंख्यक औऱ सिंडिकेट्स की दुकानें चल सकती थी?
70 साल से सेक्युलरवाद का मतलब भी सामाजिक न्याय की तरह ही सुन्नीवाद तक सिमटा रहा है यानी संसदीय राजनीति में सेक्युलरवाद का मतलब क्या केवल सुन्नी मुसलमानों के तुष्टीकरण तक नही सिमटा ? खासकर राजीव गांधी के बाद तो यह सेक्युलरवाद मुस्लिम वर्ग की हर राष्ट्रविरोधी हरकत पर पर्दा डालने की बेशर्म हद तक जा पहुँचा।संघ ने इस खतरनाक अल्पसंख्यकवाद को सदैव चुनौती दी है और सतत सर्वधर्म समभाव की बात कही।इसीलिए आज समाज में सुन्नीवाद के विरुद्ध सशक्त वातावरण निर्मित हुआ है। नतीजतन सामाजिक न्याय और सुन्नीवाद के गठजोड़ों से उतपन्न हुए सिंडिकेट्स प्रासंगिकता के लिए तरस रहे है।न केवल राजनीतिक मोर्चे पर अपितु समवेत भारतीय चेतना के स्तर पर भी हिंदुत्व की मूलशक्ति को अधिमान्यता मिल रही है।विविधता भारतीय जीवन का आधार अनादिकाल से रहा है।इसे सेक्युलरवाद ने बहुलता की ऐसे सिद्धांत में तब्दील कर दिया था जिसका आशय केवल हिन्दुत्व का मानमर्दन औऱ सुन्नीवाद का पोषण हो गया था। वामपंथियों ने आधुनिक भारत की संसदीय राजनीति में एकसूत्रीय एजेंडा हाथ में ले रखा था -संघ औऱ उसकी वैचारिकी को हर कीमत पर सामाजिक स्वीकार्यता से दूर रखना।इस कवायद में वे भूल गए कि संघ हिन्दू समाज का पहला औऱ इकलौता विचार संगठन नही है जो भव्य हिन्दू एकता या वैभव पुनर्स्थापना के लिए काम कर रहा है।शंकराचार्य से लेकर गांधी तक में इसी भाव की एक निरन्तरता आधुनिक भारत में विद्यमान रही है।वामपंथियों ने इसे न कभी समझा है न विमर्श का हिस्सा बनने दिया।मनुस्मृति या ब्राह्मणवाद के सस्ते औऱ खोखले तत्वों के जरिये केवल शाश्वत सामाजिक विविधताओं को आगे रखकर अलगाव औऱ सुन्नीवाद की फसल खड़ी की गई।ब्राह्मणवाद का भारतीय लोकजीवन में कहीं भी कोई प्रमाणिक अस्तित्व नही मिलता है इसे गढ़ने वाले भी स्वयं वामपंथी है।इसी तरह मनुस्मृति को कभी किसी दौर में मेंडेटरी नही माना गया।स्वयं सावरकर ने जातीय भेदों के साथ सभी हिंदुओं को एक ही रक्त सबन्ध की उपज बताया है।मनुस्मृति को लेकर भी सावरकर का स्पष्ट अभिमत था कि यह पुस्तक दैवीय नही मानवरचित है इसलिए इसका सर्वकालिक उपयोग संभव नही है।संघ की स्थापना से पूर्व 1923 में ही सावरकर अपनी रचना " हिंदुत्व" में साफ साफ कह रहे थे कि 'ब्राह्मण हो या शूद्र सभी हिन्दू है'.आर्य समाज( 1875),विवेकानंद शिकागो भाषण(1893),स्वामी दयानंद(1863)उपेंद्र मुखर्जी(1868),बीएस मुंजे ( 1883),भाई लालचन्द्र(1852)स्वामी श्रदानन्द (1856)तिलक,लाजपतराय औऱ गांधी को वैचारिक धरातल पर समझने की कोशिश की जाए तो यह स्पष्ट है कि भव्य हिन्दू परम्परा की उस मौलिकता को पुनर्स्थापित करना इन सभी का लक्ष्य रहा है।एक दूसरा पक्ष यह कि संघ को राजनीतिक इशारों पर टारगेट करने के चक्कर में राज्याश्रित वामपंथियों ने स्वयंभू विमर्श का ऐसा इकोसिस्टम खड़ा कर दिया जो केवल संघनिंदा की दुश्मनी तक ही केंद्रित रहा।इस प्रायोजित बौद्धिक अभियान की धार ठीक हिटलर की तर्ज पर थी और तथ्य यह भी की हिंदुत्व के गौरवशाली अतीत का कोई अध्ययन भी इनके द्वारा नही किया गया।इसीलिये कभी सावरकर,कभी गोलवलकर तो कभी मनुस्मृति के नाम पर सामाजिक विमर्श को दूषित बनाये रखा गया।हिन्दू समाज के बीच इस विमर्श से परे जाकर संघ का ध्येयनिष्ठ कार्य जब फलीभूत होने लगा तो इन नकली अवधारणाओं का ध्वस्त होना स्वाभाविक ही था।इस सतत संघ कार्यनीति में समाज के कमजोर वर्गों को अपने उत्कर्ष में ब्राह्मणवाद या मनुस्मृति कहीं नजर नही आई उलटे सामाजिक राजनीतिक फलक में इन वर्गों की आनुपातिक भागीदारी सुनिश्चित हुई।नतीजतन एक ऐसे वातावरण का टिकाऊ निर्माणारम्भ हुआ है जो इन वामपंथियों के दूषित विमर्श को अपने अभ्युदय से खारिज कर रहा है।राममंदिर के प्रति स्वस्फूर्त गौरवभाव द्विज जातियों में नही बल्कि ब्राह्मणवाद से भयादोहित किये गए वर्ग में अधिक है।मंदिर निर्माण के लिए 5 लाख गांवों तक पहुँचने औऱ सरकारी धन की मनाही असल में भव्य हिन्दू चेतना की पुनर्स्थापना का ही प्रमाण है।
सवाल यह है कि क्या सामाजिक विविधता ही हिंदुत्व की प्राणशक्ति है?इसका प्रमाणिक जबाब आज का भारत स्वयं दे रहा है।इसका आशय यह भी की बहुलतावाद,ब्राह्मणवाद,मनुवाद,फासीवाद,मनमाना अंबडेकर फुलेवाद,सुन्नीवाद मूलतः नकली दलीलें थी।सच तो यह है कि हिंदुत्व औऱ खासकर संघ विरोधियों को न हिंदुत्व की समझ रही है न धर्म की।अपने उथले औऱ थोपे गए ज्ञान के अहंकार ने उन्हें स्वयंभू बुद्धिजीवी बना दिया था जिसकी दृष्टि केवल पश्चिमी थी। जो हिन्दुत्व को भी अहले किताब धर्म( सिख,बौद्ध ईसाई, इस्लाम की तरह) मानकर चलता है और मनुस्मृति को खुद ही एकमेव पवित्र पुस्तक( बाइबिल,कुरान की तरह)भी घोषित करता रहा है।इसी स्वयंभू चरित्र ने फासीवाद मनुवाद ब्राह्मणवाद जैसी मनगढ़ंत बातों को जन्म दिया।आज संघ की अहर्निश सेवा और कार्यनीति ने इस नकली आवरण को हटा दिया है।असली सामाजिक न्याय विविधता की प्राणशक्ति पर खड़ा होकर स्वत्व को शान से आत्मसात भी कर रहा है।नए भारत की सामाजिकी को ध्यान से देखने की आवश्यकता है वह राममय है-वंचितों,दलितों,वनवासियों,द्विजों के शाश्वत अस्तित्व को बरकरार रखते हुए रामराज्य के उन्मुखीकरण का चित्र भी खींच रहा है।
यानी-70 साल का बौद्धिक जिहाद जा रहा है और अद्वैत की मौलिकता पुनर्प्रतिष्ठित हो रही है।
जिहाद के तत्व शाहीन बाग औऱ सिंधु बॉर्डर तक सिमट रहे है।नया भारत है यह-कामरेड!
(लेखक-डॉ अजय खेमरिया)
आर्टिकल
बौद्धिक जिहाद को विदा करती हिन्दूत्व की सामाजिक चेतना -नए भारत में अब कहां खड़े है बौद्धिक नाजिज्म के ठेकेदार