आज से ठीक एक साल पहले याने दस मार्च 2020 को कांग्रेस के युवा नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस छोड़ भाजपा में प्रवेश किया था और उनके साथ दो दर्जन से अधिक समर्थक कांग्रेसी विधायकों ने भी कांग्रेस को तिलांजली देकर कांग्रेस की राज्य सरकार को धराशायी कर दिया था, इसके बाद भाजपा की सरकार बनी और भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व ने ज्योतिरादित्य को राज्यसभा में पहुंचा दिया, वे आज से करीब नौ माह पर्वू जुलाई 2020 के अंत मे राज्यसभा पहुंचे, किंतु नौ महीने की अवधि गुजर जाने के बाद भी उन्हें वादे के अनुसार केन्द्रीय मंत्री परिषद में शामिल नहीं किया गया, जब कि उम्मीद की जा रही थी कि 2020 में ही वे मंत्री बना दिए जाएगें। इस कथित उपेक्षा से ज्योतिरादित्य क्या महसूस कर रहे है, यह तो उन्होंने अभी तक स्पष्ट नहीं किया है, किंतु उनके पुराने परम मित्र और कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी ने उनकी ”तमन्ना के घाव“ पर नमक छिडकने का काम अवश्य कर दिया है? उन्होंने स्वीकार किया कि ”कांग्रेस छोड़ने से पहले ज्योतिरादित्य ने उनसे (राहुल से) भेंट की थी और उन्हें उन्होंने (राहुल ने) ऐसा कदम उठाने से रोका भी था, किंतु ज्योतिरादित्य नहीं माने और आज अब भाजपा में घुटन महसूस कर रहे हैं, यहां (कांग्रेस में) रहते तो अब तक मुख्यमंत्री बन गए होते।“ साथ ही राहुल ने यह विश्वास भी प्रकट किया कि ”एक न एक दिन सिंधिया वापस कांग्रेस में आ जाएगें।“
अब राहुल जी के इस कथन में कितनी सच्चाई है यह तो सिंधिया जी या राहुल जी जाने, किंतु राहुल का यह कथन सिंधिया के राजनीतिक घावों को रिसने के लिए मजबूर करने को काफी था, यद्यपि सिंधिया जी ने राहुल जी के इस कथन पर अभी तक अपनी कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की है, किंतु यह जरूर है कि राहुल जी के इस बयान से वे उद्वेलित अवश्य हुए होंगे।
यदि राहुल के इस बयान में सच्चाई खोजी जाए तो उनका कथन तो शत-प्रतिशत सही है, क्योंकि आज सिंधिया समर्थक विधायक जरूर मंत्री बने हुए है, किंतु उनके साथ भी भाजपा पार्टी संगठन व सरकार का उतना अधिक सामंजस्य नहीं है, जितना कि भाजपा के मंत्रियों के साथ है और जहां तक सिंधिया जी का सवाल है, वे तो भाजपा में वास्तव में ही ’पिछली सीट‘ (बैक बैंचर) पर बैठने को मजबूर है और यह पता भी नहीं कि उन्हें कब तक इसी स्थिति में रहना पड़ेगा? पर इस बात पर आश्चर्य अवश्य है कि राहुल जी के इस बयान के चौबीस घंटे बाद भी न तो भाजपा और न ही सिंधिया खेमें ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त की? सभी मौन स्वीकृति की मुद्रा में दिखाई दे रहे है।
अब यदि ’राजनीतिक घुटन‘ का इतिहास पूर्व सिंधिया राजवंश में खोजा जाए तो वह हर काल में देखने को मिलेगा। ज्योतिरादित्य के दादा जी स्व. जीवाजी राव सिंधिया के निधन के बाद राजमाता विजयाराजे सिंधिया सरकार आंग्रे की सलाह पर राजनीति में आई और वे मौजूदा भारतीय जनता पार्टी की ”जननी“ कहलाई, आज भाजपा जो कुछ भी है, उसमें स्वत्र राजमाता की अहम भूमिका रही है। राजमाता ने कई वर्षों तक भरसक प्रयास किया कि उनका एकमात्र पुत्र स्व. माधवराज सिंधिया भी कांग्रेस छोड़ भाजपा में आ जाए, किंतु माधवराव जी ने कांग्रेस से नाराज होकर नई पार्टी बनाना मंजूर किया, किंतु वे भाजपपा में नहीं आए, उनका एक हवाई दुर्घटना में अचानक निधन हो गया और वे अपने एकमात्र पुत्र ज्योतिरादित्य को राजनीतिक प्रशिक्षण नहीं दे पाए और माधवराव के निधन के बाद उनकी राजनीतिक विरासत भी उनके पुत्र ज्योतिरादित्य ने संभाल ली, किंतु माधवराव जी के समय के उनके पार्टी प्रतिद्विन्दियों ने उनके पुत्र ज्योतिरादित्य को आगे नहीं बढने दिया और पार्टी आलाकमान ने भी उनका (ज्योतिरादित्य का) साथ नहीं दिया तब उपेक्षित इस युवानेता ने पार्टी त्यागकर उन्हीं की राज्य सरकार गिरा दी, जिनके कारण वे पार्टी में कथित रूप से उपेक्षित रहे। किंतु अब शायद वे यह महसूस करने को मजबूर है कि राजनीतिक दल और उनकी कार्यप्रणाली एक जैसी ही है और वे उसी उपेक्षित माहौल में आज अपना समय गुजा रहे हैं।
अब आगे क्या होगा? भाजपा की चेतना जागेगी या वह जगाने के बाद भी ऐसे ही सोती रहेगी? यह तो भविष्य के गर्भ में है, किंतु यह सही है कि राहुल ने सिंधिया जी की चेतना को शायद झकझोर जरूर दिया है?
(लेखक-ओमप्रकाश मेहता)
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