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बाटला हाउस : आतंकवादियों के समर्थन में कौन कौन

बाटला हाउस : आतंकवादियों के समर्थन में कौन कौन

सन 2008 में दिल्ली कनॉट प्लेस,करोल बाग,  ग्रेटर कैलाश और इंडिया गेट के पास  आतंकी संगठन इंडियन मुजाहिद्दीन (आईएम) द्वारा सीरियल बम ब्लास्ट किये गए जिसमें कई निरपराध लोग मारे गए । घटना की जाँच में जामिया नगर दिल्ली के बाटला हाउस में छिपे  आईएम के आतंकवादियों से पुलिस की मुठभेड़ हुई और उसमे दो आतंकी मोहम्मद साजिद  और आतिफ अमीन मारे गए, आरिज खान नामक आतंकी फ़रार होगया तथा एक अन्य आतंकवादी पकड़ा गया। इस अभियान में बहादुर पुलिस इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा  को अपने जीवन का बलिदान देना पड़ा। संयोग से उस समय दिल्ली राज्य एवं केंद्र दोनों स्थान पर कांग्रेस की सरकार थी। इस एनकाउंटर की विडम्बना यह हुई कि देश के कई राजनेता, हुतात्मा पुलिस अधिकारी को श्रद्धांजलि देने के स्थान पर आतंकवादियों के पक्ष में खड़े हो गए। मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति  के चलते सलमान खुर्शीद ने तो यहाँ तक कह दिया कि मारे गए लड़कों  (आतंक वादियों ) के अखबार में फोटो देख कर सोनिया जी की आखों में आँसू आ गए थे। पता नहीं तब सोनिया जी की आँख में आँसू आए थे कि नहीं किन्तु न्यायालय के निर्णय से उनकी आँखें अवश्य ही झुक गई होंगी वे सोचती होंगी कि कांग्रेस का  पतन ऐसे ही नेताओं ने किया है ।
 मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने इस इसे फ़र्जी एनकाउंटर कह कर देश भर के मुसलमानों को यह सन्देश दिया कि सरकार भले ही कांग्रेस की है पर एनकाउंटर  फर्जी है और कांग्रेस पुलिस के साथ नहीं है वह तो मारे गए आतंकवादियों को निर्दोष मानती है ! दिल्ली के एक अदालत ने दूध का दूध, पानी का पानी कर दिया। उसने आतंकवादी  आरिज खान  को मौत की सजा सुनाते हुए  इस एनकाउंटर को सही ठहरा दिया है। अब कांग्रेस के सामने धर्म संकट है, उसके बड़बोले नेता इस निर्णय के बाद जनता को क्या मुँह दिखाएँ ?
 इस घटना से तीन बातें रेखांकित हो जाती हैं 
एक – जब भी कहीं कोई मुस्लिम चरमपंथी युवक किसी आतंकवादी गतिविधि में या देश विरोधी घटना में मारा जाता है तब हमारे ही देश के कई राजनेता बिना विचार किये उसके पक्ष में खड़े हो जाते हैं क्यों ? जामिया मिलिया इस्लामिया, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय जैसी शैक्षणिक संस्थाओं से सैकड़ों युवा विद्यार्थी और अध्यापक  मारे गए आतंकवादी को न्याय दिलाने के लिए आन्दोलन, हड़ताल करने लगते हैं। कुछ तथाकथित इस्लामिक एक्टिविस्ट,कम्युनिस्ट लेखक और बुद्धिजीवी संदेह और अविश्वास का वातारण बनाकर यह दिखाने का प्रयास करते हैं कि जो मारा गया वह आतंकी होने के कारण नहीं अपितु मुस्लिम होने के कारण मारा गाया। जिन परिवारों से ऐसे असामाजिक तत्व निकलते हैं उन्हें मीडिया के सामने निस्सहाय और पीड़ित की भाँति प्रस्तुत किया जाता है जबकि सत्यनिष्ठ अधिकारी और उनके परिवार को मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है। इसका दुष्परिणाम यह होता है कि घटना के कई वर्षों बाद तक या न्यायलय से निर्णय आने तक आम जनता को भ्रम और संदेह बना रहता है। इसका एक परिणाम यह भी होता है कि जाँच एजेंसियां कट्टरपंथियों पर हाथ डालने से पहले सौ-सौ बार सोचती हैं।  कट्टरपंथी संगठन इसी बात  का लाभ उठाकर अपने संगठनों का विस्तार कर लेते हैं। 
दो – देश के मुसलमानों को यह आभास नहीं होने दिया जाता कि उनके मध्य से बड़ी संख्या में युवा आतंकवादी संगठनों की ओर मुड़  रहे हैं। देश में जब भी कोई आतंकवादी घटना घटित होती है तब अपवाद छोड़कर, उसका सूत्रधार कोई न कोई मुस्लिम युवक या इस्लामिक संगठन ही होता है क्यों ? देश विरोधी घटनाओं के बाद सकारात्मक सोच रखने वाले,राष्ट्रवादी मुसलमानों को पीछे धकेल कर राजनीतिक दलों से जुड़े  मुल्ले मौलवी टाइप के कुछ लोग इस्लाम ख़तरे में है और हमें निशाना बनाया जा रहा है जैसे जुमले उछालने लगते हैं। भारत में ऐसे कई मदरसे हैं जिन पर आतंकवादी गतिविधियों को संचालित करने या समर्थन करने के आरोप हैं। ये मदरसे और उनसे जुड़े विदेशी चरम पंथी ऐसे समय और वयानों का भरपूर लाभ उठाते हैं। 
तीन – देश में ऐक ऐसा वातारण निर्मित किया जा रहा है कि लोग आतंकवादियों से घृणा न करें। निरपराध लोगों को मारने वाले  आतंकवादियों, नक्सलवादियों और माओवादियों का महिमा मंडन किया जा रहा है। संसद पर हुए हमले का कुख्यात आतंकी मोहम्मद अफ़जल गुरु  पहले निर्दोष बताया गया फिर भटका हुआ नौजवान कहा गया जब दोष सिद्ध होने पर सर्वोच्च न्यायलय द्वारा फाँसी पर लटकाया गया तब भी  उसके सम्मान में आयोजन किये जाते रहे। ऐसे कई कुख्यात नाम हैं जिन पर हमारे बड़े-बड़े बुद्धिजीवी और प्राध्यापकों ने घड़ियाली आँसू बहाए हैं। 
देश में मुसलमानों की एक बड़ी जनसंख्या है या कहें कि उनका अपना एक बड़ा वोट बैंक है। देश के कई राजनीतिक दल इस वोट बैंक को  प्राप्त करने के लिए किसी भी प्रकार का समझौता करने को तत्पर हैं।  ये लोग चाहते हैं कि देश के मुसलमान एक प्रथक समूह  के रूप में रहें और उन्हीं को वोट करते रहें। यदि देश का मुसलमान आम भारतीय नागरिक के रूप में राष्ट्रीय मुद्दों पर मतदान करने लगे तो कई दलों के अस्तित्व ही समाप्त हो जाएँगे।  मुसलमानों में भी सकारात्मक विचारों वाले कई लोग हैं किन्तु ऐसे लोग वहाँ भी अल्पसंख्यक ही हैं। अब जबकि बाटला हाउस का सत्य हम सबके समक्ष है आ चुका है तब मुस्लिम समाज के जागरुक लोगों का यह कर्तव्य है कि इन आतंकवादियों का  महिमा मंडन करने वाले दलों और राजनेताओं को हतोत्साहित कर युवाओं को इनका अनुसरण करने से रोकें।  
 (लेखक- डॉ.रामकिशोर उपाध्याय)

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