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आज भारत को अमेरिका की जितनी जरूरत है, उतनी ही उसे भी भारत की है

आज भारत को अमेरिका की जितनी जरूरत है, उतनी ही उसे भी भारत की है

अमेरिकी रक्षा मंत्री लॉयड ऑस्टिन शुक्रवार को भारत पहुंचे औौर उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय एवं आपसी हितों पर चर्चा। इसके अलावा अमेरिकी रक्षामंत्री ने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार  अजीत डोभाल से भी शुक्रवार की रात मुलाकात की। इस मुलाकात में को दोनों देशों के परस्पर हित से जुड़े मुद्दों, रणनीतिक साझेदारी और सुरक्षा एवं रक्षा के अलग-अलग पहलुओं पर सहयोग को लेकर चर्चा हुई। अमेरिकी रक्षामंत्री ने इसे बहुत अच्छी मुलाकात बताया है।
क्वाड समूह के हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अपना सहयोग विस्तारित करने का संकल्प लेने के कुछ दिनों बाद अमेरिकी रक्षामंत्री की भारत की यात्रा हो रही है। चार देशों के इस समूह में भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया शामिल हैं। अमेरिकी रक्षामंत्री ने भारत पहुंचने से पहले जापान और दक्षिण कोरिया का दौरा किया।अब  एशिया प्रशान्त क्षेत्र में  सामरिक सन्तुलन बनाये रखने के लिए समान विचारधारा वाले देशों के बीच अधिकाधिक सहयोग व रक्षा साझेदारी का है। भारत को इसमें मात्र संशोधन यही करना है कि प्रशान्त सागर से मिलता हिन्द महासागर क्षेत्र पूरी तरह तनाव मुक्त और सामरिक स्पर्धा से मुक्त इस प्रकार हो कि इस क्षेत्र के सभी देश पूर्ण शान्तिपूर्ण माहौल में रह सकें। यह बेवजह नहीं है कि सत्तर के दशक में भारत अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर यह आवाज बहुत तेजी से बुलन्द करता रहता था कि हिन्द महासागर क्षेत्र को अन्तर्राष्ट्रीय शांति क्षेत्र घोषित किया जाये। इसी क्रम में वह दियेगो गार्शिया में अमेरिका द्वारा स्थापित किये गये परमाणु अड्डे का विरोध भी करता था परन्तु इसके बाद परिस्थितियों में जो आधारभूत परिवर्तन आया और सोवियत संघ के बिखरने के बाद जिस तरह शक्ति सन्तुलन एकल ध्रुवीय होने के बाद चीन के शक्ति रूप में उदय होने से गड़बड़ाया उसने एशिया-प्रशान्त महासागरीय क्षेत्र के सामरिक भूगोल को बदलने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
चीन ने हिन्द महासागर और प्रशान्त सागर क्षेत्र में अपना प्रभाव जमाने की गरज से और अमेरिका का मुकाबला करने के लिए न केवल सामरिक बल्कि आर्थिक मोर्चे पर भी इस क्षेत्र के देशों में अपनी पैठ बढ़ानी शुरू की। चीन ने इससे भी आगे जाकर अपना दबदबा कायम करना चाहा जिससे इस क्षेत्र में अमेरिका को अपने प्रभाव में ह्रास होने का डर सताने लगा और खास कर आर्थिक गतिविधियों में क्योंकि हिन्द व प्रशान्त सागर इलाका पूरी दुनिया का कारोबारी जल परिवहन क्षेत्र है। एशिया और यूरोप व अमेरिकी आर्थिक कारोबार के इस परिवहन क्षेत्र पर चीन अपना दबदबा कायम करके अपनी आर्थिक समृद्धि को उतावला है। मगर भारत के लिए महत्वपूर्ण यह भी है कि चीन उसका ऐसा निकटतम पड़ोसी देश है जिसकी जल सीमाएं भारत केे अन्य पड़ोसी देशों के साथ छूती हुई चलती हैं। अतः विशाल हिन्द महासागर क्षेत्र का तटवर्ती देश होने के साथ इसकी भूमिका बहुत बढ़ जाती है और यह चीन व अमेरिका के बीच उदासीन या तटस्थ सेतु का कार्य कर सकता है जिसे कूटनीतिक शब्दों में हम सन्तुलक (बैलेंसिंग पावर) भी कह सकते हैं। इस नजरिये से देखें तो जितनी आवश्यकता अमेरिका को आज भारत की है उतनी इससे पहले कभी नहीं थी परन्तु पिछले तीस सालों में भारत व अमेरिका के सम्बन्धों में क्रान्तिकारी बदलाव आया है और दोनों देशों के सम्बन्ध हर क्षेत्र में प्रगाढ़ हुए हैं। इस प्रगाढ़ता की पराकाष्ठा 2008 में ‘भारत-अमेरिका परमाणु करार’ के रूप मे हुई  जिसके बाद दोनों देशों के बीच रक्षा सहयोग में लगातार वृद्धि होती रही। इसी क्रम में दोनों देशों के बीच साझा सैनिक अभ्यास होने शुरू हुए और जिसकी परिणिती हिन्द-प्रशान्त सागरीय क्षेत्र को स्वतन्त्र व खुला बनाये रखने की गरज से चार देशों भारत, आस्ट्रेलिया, जापान व अमेरिका के बीच सैनिक सहयोग में हुई। यह रणीतिक सहयोग निश्चित रूप से चीन के खिलाफ नहीं है क्योंकि इन सभी देशों को एशिया प्रशान्त व हिन्द महासागर क्षेत्र के जल मार्गों का उपयोग करने का अधिकार है और इस कार्य में आने वाली किसी भी बाधा को दूर करने का भी अधिकार है। मगर इसी क्षेत्र में चीनी जंगी बेड़ों की मौजूदगी और जवाब में अमेरिकी बेड़ों की मौजूदगी स्थिति को कभी भी गंभीर बनाने की संभावनाएं पाले बैठी है। भारत की असली भूमिका यही है कि वह ऐसी स्थिति कभी भी न आने दे और अपने रणनीतिक सहयोग व कूटनीतिक नीतियों से चीन व अमेरिका दोनों को ही थामे रखे। अमेरिका और चीन के बीच भारत किसी भी खेमे की तरफ से पक्षकार नहीं हो सकता क्योंकि ऐसा करते ही उसके राष्ट्रीय हित आहत हो सकते हैं। निरपेक्ष रह कर ही उसे हिन्द महासागर क्षेत्र को शान्ति व स्वतन्त्र और खुला बनाये रखने पर जोर देना होगा। इसके साथ ही भारत पर अमेरिका समेत कोई भी अन्य देश ऐसी शर्तें नहीं थोंप सकता जिनका सम्बन्ध उसकी राष्ट्रीय सुरक्षा से हो। भारत रूस से यदि एस-400 प्रक्षेपास्त्र प्रणाली खरीद रहा है तो इसमें अमेरिका को क्या आपत्ति हो सकती है?
भारत पृथ्वी से हवा में मार करने वाली पांच एस-400 मिसाइलें रूस से खरीदना चाहता है और इस बारे में उसने डोनाल्ड ट्रम्प के राष्ट्रपति रहते ही रूस से साढ़े पांच अरब मूल्य की इन पांच मिसाइलों को खरीदने का समझौता भी कर दिया था। ट्रम्प प्रशासन ने भी इसका विरोध किया था और अब बाइडेन प्रशासन भी विरोध कर रहा है क्योंकि श्री आस्टिन के भारत आने से पहले ही अमेरिकी सीनेट की विदेशी मामलों की समिति के चेयरमैन सिनेटर बाब मेनेडेज ने आस्टिन को खत लिख कर कहा था कि वह अपनी यात्रा के दौरान भारत को यह समझौता रद्द करने के लिए कहें। यदि भारत ऐसा नहीं करता है तो उसे रक्षा क्षेत्र की अमेरिकी उच्च टैक्नोलोजी उपलब्ध नहीं कराई जायेगी। इससे पहले अमेरिका तुर्की के साथ भी ऐसा ही कर चुका है और उनके खिलाफ प्रतिबन्ध लगा चुका है।
अमेरिकी नीति-नियंताओं को इसकी अनदेखी नहीं करनी चाहिए कि यदि भारत अमेरिका का सहयोगी बनने को तैयार है तो इसका यह मतलब नहीं कि वह उसके पिछलग्गू की तरह काम करे। तेजी से बदलते और आगे बढ़ते भारत के लिए यह संभव नहीं और किसी को ऐसी अपेक्षा भी नहीं करनी चाहिए। अमेरिका को इस तथ्य से भी अवगत होना चाहिए कि भारत किसी खेमे का हिस्सा बनने का हामी नहीं है। वह बहुध्रुवीय विश्व का पक्षधर है और अपने हिसाब से अपने मित्रों का चयन करने की स्वतंत्रता अपने लिए भी चाहता है और दूसरों के लिए भी। वास्तव में मोदी के नेतृत्व वाले भारत की विदेश नीति की यही विशेषता है। अमेरिका को भारत को इस तरह की शर्तों से बांधने से बचना होगा कि वह इस या उस देश से अपने संबंध रखे या फिर न रखे। इससे ही दोनों देश मिलकर अपनी और साथ ही वैश्विक चुनौतियों का सामना करने में सक्षम होंगे। यह भी ध्यान रहे कि आज भारत को अमेरिका की जितनी जरूरत है, उतनी ही उसे भी भारत की है।  प्रधानमन्त्री मोदी और रक्षामन्त्री राजनाथ सिंह के रहते हमें इस बात की कोई चिन्ता नहीं करनी चाहिए कि अमेरिका क्या करता है बल्कि यह सोचना चाहिए कि भारत क्या करता है। क्योंकि भारत तुर्की नहीं है, यह 21वीं सदी की उबरती हुई शक्ति है।
 (लेखक-अशोक भाटिया) 

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