कुम्भकर्ण तथा श्रीराम के साथ युद्ध का वर्णन प्राय: सभी रामायणों में है। कुम्भकर्ण को लंका के युद्ध में श्रीराम ने उसे मारा यह कथा प्रसंग अत्यन्त ही रहस्यपूर्ण है। अत: इसे जानने के पूर्व कुम्भकर्ण के जीवनचक्र को जानना अति आवश्यक है। वाल्मीकि रामायण में कुम्भकर्ण के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी वर्णित है। महर्षि पुलस्त्य के पुत्र ऋषि विश्रवा थे। विश्रवा की चार सन्तानें थी। इनमें रावण, कुम्भकर्ण, शूर्पणखा तथा विभीषण थे। इन सबकी माता सुमाली राक्षस की पुत्री कैकसी थी। महर्षि विश्रवा ने इन सन्तानों के जन्म के पूर्व ही कैकसी से कहा था कि तुम्हारे पुत्र क्रूर स्वभाववाले और भयंकर शरीरवाले होंगे। वे राक्षसों से प्रेम करेंगे। अन्त में महर्षि विश्रवा ने कैकसी से कहा-
पश्चिमो यस्तव सुतो भविष्यति शुभानने।
मम वंशानुरूप: स धर्मात्मा च न संशय:।।
वा.रा. उत्तरकाण्ड सर्ग ९-२७
शुभातने! तुम्हारा जो सबसे छोटा एवं अंतिम पुत्र होगा, वह मेरे वंश (विश्रवा) के अनुरूप धर्मात्मा होगा, इसमें संशय नहीं है। तद्नुसार सबसे बड़ा पुत्र दस ग्रीवाएँ लेकर उत्पन्न हुआ, इसलिए उसका नाम दशग्रीव रखा गया। उसके बाद महाबली कुम्भकर्ण का जन्म हुआ, जिसके शरीर से बड़ा शरीर इस जगत् में दूसरे किसी का नहीं था। इसके बाद विशाल शरीर एवं विकराल मुखवाली शूर्पणखा उत्पन्न हुई तथा अन्त में धर्मात्मा विभीषण का जन्म हुआ, वे कैकसी के अन्तिम पुत्र थे।
वाल्मीकि रामायण में रावण, कुम्भकर्ण एवं विभीषण के वन में जाकर तपस्या का तथा वर प्राप्त करने का वर्णन उत्तरकाण्ड के सर्ग 10 में है। श्रीराम को महर्षि अगस्त्यजी ने इन तीनों भाईयों के कठोर तपस्या के बारे में बताते हुए कहा कि-
कुम्भकर्णस्ततो यत्तो नित्यं धर्मपथे स्थित:।
तताप गीष्मकाले तु पञ्चाग्रीन परित: स्थित:।।
मेघाम्बुसिक्तो वर्षाषु वीरासनमसेवत।
नित्यं च शिशिरे काले जलमध्यप्रतिश्रय:।।
एवं वर्षसहस्त्राणि दश तस्यापचक्रमु:।
धर्मे प्रयतमानस्य सत्पथे निष्ठितस्य च।।
वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग १०-३-४-५
कुम्भकर्ण अपनी इन्द्रियों को संयम में रखकर धर्म के मार्ग में स्थित हो गर्मी के दिनों में अपने चारों ओर आग जला धूप में बैठकर पञ्चाग्निका सेवन करने लगा। फिर वर्षा ऋतु में खुले मैदान में वीरासन से बैठकर मेघों के बरसाये हुए जल से भीगता रहा और जाड़े के दिनों में प्रतिदिन जल के भीतर रहने लगा। इस प्रकार सन्मार्ग में स्थित हो धर्म के लिए प्रयत्नशील उस कुम्भकर्ण के दस हजार वर्ष बीत गए। रावण और विभीषण को प्रजापति ब्रह्माजी ने प्रसन्न होकर वर दिए अंत में जब ब्रह्माजी कुम्भकर्ण को जैसे ही वर देने के लिए उद्यत हुए तब सब देवताओं ने उनसे हाथ जोड़कर बोले- हे प्रभो आप कुम्भकर्ण को वरदान न दीजिए क्योंकि आप जानते हैं कि यह दुर्बुद्धि राक्षस किस तरह समस्त लोकों को त्रास देता है। हे ब्रह्मण! इसने नन्दनवन की सात अप्सराओं, देवराज इन्द्र के दस अनुचरों तथा बहुत से ऋषियों और मनुष्यों को भी खा लिया है। यदि आपने इसे वर दे दिया तो यह तीनों लोकों को खा जाएगा। ब्रह्माजी ने देवताओं के कहने पर सरस्वती का स्मरण किया तथा सरस्वती उनके पास आ गई। ब्रह्माजी ने सरस्वती से कहा कि तुम राक्षसराज कुम्भकर्ण की जिह्वा पर विराजमान होकर देवताओं के अनुकूल वाणी के रूप में प्रकट होओ। इसके पश्चात् ब्रह्माजी ने उस राक्षस से कहा महाबाहु कुम्भकर्ण! तुम भी अपने मन के अनुकूल कोई वर माँगों।
कुम्भकर्णस्तु तद्वाक्यं श्रुत्वा बचनमब्रतीत्।
स्वप्तुं वर्षाण्यनेकानि देवदेव ममोप्सितम्।।
एवमस्त्विति तं चोक्त्वा प्रयाद् ब्रह्मा सुरै: समम्।।
वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग १०-४४-४५
उनकी बात सुनकर कुम्भकर्ण बोला देव देव! मैं अनेकानेक वर्षों तक सोता रहूँ। यही मेरी इच्छा है। तब एवमस्तु (ऐसा ही हो) कहकर ब्रह्माजी देवताओं के साथ चले गए।
रावण ने अपनी बहन शूर्पणखा का विवाह कालका के पुत्र विघ्रुज्जिह्व से किया। मय दानव ने अपनी अप्सरा पत्नी हेमा के गर्भ से उत्पन्न मन्दोदरी से रावण का विवाह किया। रावण ने विरोचन कुमार बलि की दौहित्री का जिसका नाम वज्रज्वाला था, कुम्भकर्ण से विवाह किया। गन्धर्वराज महात्मा शैलूष की कन्या सरमा से विभीषण का विवाह हुआ था। ब्रह्माजी के द्वारा कुम्भकर्ण को नींद सताने लगी तब रावण ने उसके लिए योग्य शिल्पियों के द्वारा दो योजन लम्बा और एक योजन चौड़ा सुन्दर चिकना घर निर्माण करवा दिया। महाबली कुम्भकर्ण उस घर में जाकर निद्रा के वशीभूत होकर कई हजार वर्षों तक सोता रहा। उसे जगाना अत्यन्त ही कठिन था।
लंका के युद्ध में कुम्भकर्ण का आगमन प्रहस्त के वध उपरान्त तथा स्वयं रावण के युद्ध के मैदान में जाकर युद्ध करते हुए श्रीराम से परास्त होकर लंका में आ जाने के बाद अपनी पराजय से दु:खी होकर एवं वानरों से भयभीत हो जाने के बाद कुम्भकर्ण को जगाया गया। कुम्भकर्ण के जागने पर रावण के सचिव यूपाक्ष तथा प्रधान योद्धाओं में महोदर ने हाथ जोड़कर कहा कि आप महाबाहो। पहले चलकर महाराज रावण की बात सुन लीजिए। कुम्भकर्ण पर्वत शिखर के समान ऊँचा था। उसके मस्तक पर मुकुट शोभा दे रहा था। इतने बड़े विशालकाय एवं अद्भुत राक्षस को देखकर सभी वानर भय से पीड़ित होकर इधर-उधर भागने लगे। अपनी सेना को भागते तथा राक्षस कुम्भकर्ण को बढ़ते देख श्रीराम को भी बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने विभीषण से पूछा-
कोऽसो पर्वत संकाश: किरीट हरिलोचन:।
लंकायां दृश्यते वीर: सविद्युदिव तोयद:।।
वा.रा. लंकाकाण्ड सर्ग ६१-५
यह लंकापुरी में पर्वत के समान विशालकाय वीर कौन है? जिसके मस्तक पर किरीट शोभा पा रहा है और नेत्र भूरे हैं। यह ऐसा दिखाई देता है मानो बिजली सहित मेघ हैं। मैंने ऐसे प्राणी को पहले कभी नहीं देखा। इसे देखकर सारे वानर इधर-उधर भाग रहे हैं। यह सुनकर विभीषण ने कहा- भगवन् जिसने युद्ध में वैवस्वत यम और देवराज इन्द्र को भी पराजित किया था वही यह विश्रवा का प्रतापी पुत्र कुम्भकर्ण है। इसके बराबर लम्बा दूसरा कोई राक्षस नहीं है। कुम्भकर्ण ने जन्म लेते ही बाल्यावस्था में भूख से पीड़ित होकर कई सहस्त्र प्रजाजनों को खा डाला था। अत: प्रजाजन इसके भय से पीड़ित होकर देवराज इन्द्र को अपना कष्ट निवेदन किया। यह सुनकर इन्द्र को बहुत क्रोध आया तथा उन्होंने अपने ही तीखे वज्र से कुम्भकर्ण को घायल कर दिया। तदनन्तर कुपित हुए महाबली कुम्भकर्ण ने ऐरावत के मुँह से एक दाँत उखाड़ लिया और उसी से इन्द्र की छाती पर प्रहार किया। कुम्भकर्ण के एकाएक प्रहार से व्याकुल होकर इन्द्र देवता तथा ऋषिगण ब्रह्माजी के पास गए। इन्द्र की बात सुनकर ब्रह्माजी ने उस राक्षस को बुलाया और कुम्भकर्ण से भेंट की। कुम्भकर्ण को देखते ही स्वयंभू प्रजापति थर्रा उठे फिर अपने को संभालकर वे उस राक्षस से बोले-
ध्रुवं लोकविनाशाय पौलस्त्येनासि निर्मित:।
तस्मात् त्वमद्यप्रभृति मृतकल्प: शयिष्यसे।।
वा.रा. युद्धकाण्ड सर्ग ६१-२४
कुम्भकर्ण! निश्चय ही इस जगत् का विनाश करने के लिए ही विश्रवा ने तुझे उत्पन्न किया है अत: मैं शाप देता हूँ आज से तू मूर्दे के समान सोता रहेगा। कुम्भकर्ण यह सुनकर रावण के सामने ही गिर पड़ा। रावण ने ब्रह्माजी से कहा कि यह आपका नाती है इसे इस प्रकार शाप देना कदापि उचित नहीं है। आपका यह शाप असत्य नहीं होगा। इसलिए अब इसे सोना ही पड़ेगा, इसमें कोई संशय नहीं है किन्तु आप इसके सोने और जागने का कोई समय नियत कर दें।
रावणस्य वच: श्रुत्वा स्वयंभूरिदमब्रवीत
शयिता ह्येष षण्मासमेकाहां जागरिष्यति।।
वा.रा. युद्ध सर्ग ६१-२८
रावण का यह कथन सुनकर स्वयंभू ब्रह्मा ने कहा- यह छ: मास तक सोता रहेगा और एक दिन जागेगा। विभीषण ने श्रीराम से कहा- इस समय आपत्ति में पड़कर और आपके पराक्रम से भयभीत होकर राजा रावण ने कुम्भकर्ण को जगाया है। कुम्भकर्ण भाई (रावण) के भवन में जाकर जब वह भीतर की कक्षा में प्रविष्ट हुआ तब उसने अपने बड़े भाई को उद्विग्न अवस्था में पुष्पक विमान पर विराजमान देखा। कुम्भकर्ण को उपस्थित देखकर रावण तुरन्त उठकर खड़ा हो गया और बड़े हर्ष के साथ उसे अपने समीप बुला लिया। कुम्भकर्ण ने बड़े भाई के चरणों में प्रणाम किया और पूछा कौन सा कार्य आ पड़ा है? फिर कुम्भकर्ण ने रावण से कहा राजन्! किसलिए तुमने मुझे बड़े आदर के साथ जगाया है। बताओ यहाँ तुम्हें किससे भय प्राप्त हुआ है? अथवा कौन परलोक का पथिक होने वाला है? रावण ने कहा- महाबली! तुम दीर्घकाल से सो रहे हो। तुम गहरी निद्रा में थे। अत: मेरे भय का कारण नहीं जानते हो। मेरे भय का कारण राम है जो कि समुद्र लाँघकर हमारे कुल का विनाश कर रहे हैं। तुम्हें इसलिए जगाया गया है कि आज तुम वानरों को नष्ट कर दो तथा हमारी इनसे रक्षा करो। हमारा खजाना (राजकोष) भी खाली हो गया है।
रावण का यह विलाप सुनकर कुम्भकर्ण ठहाका मारकर हँसने लगा तथा कहा- भाई साहब! पहले विभीषण आदि के साथ विचार करते समय हम लोगों ने जो दोष देखा था, वही तुम्हें इस समय प्राप्त हुआ है क्योंकि आपने हितैषी पुरुषों और उनकी बातों पर विश्वास नहीं किया है। तुम्हें शीघ्र ही अपने पापकर्म का फल मिल गया। जैसे कुकर्मी पुरुषों का नरकों में पड़ना निश्चित है, उसी प्रकार तुम्हें भी अपने दुष्कर्मों का फल मिलना अवश्यम्भावी था।
प्रथमं वै महाराज कृत्यमेतदचिन्तितम्।
केवलं वीर्यदर्पेण नानुबन्धो विचारित:।।
वा.रा. युद्ध सर्ग ६३-४
महाराज! केवल बल के घमण्ड से आपने पहले इस पापकर्म की कोई चिन्ता नहीं की। इसके (सीताहरण) का परिणाम का कुछ भी सोच-विचार नहीं किया था। जो ऐश्वर्य के अभिमान में आकर पहले करने योग्य कार्यों को पीछे करता है और पीछे करने योग्य कार्यों को पहले कर डालता है, वह नीति तथा अनीति को नहीं जानता। जो कार्य उचित देशकाल न होने पर विपरीत स्थिति में किए जाते हैं, वे संस्कारहीन अग्रियों में होमे गए हविष्य की तरह केवल दु:ख के ही कारण हैं। जो राजा सचिवों के साथ विचार करके क्षय, वृद्धि और स्थान रूप से उपलक्षित साम, दाम और दण्ड इन तीनों कर्मों के पाँच प्रकार के प्रयोग को काम में लाता है वही उत्तम नीति मार्ग पर विद्यमान है। तुम्हारी प्रिय पत्नी मंदोदरी और मेरे छोटे भाई विभीषण ने पहले तुमसे जो कुछ कहा था, वही हमारे लिए हितकर था। आगे तुम्हारी जैसी इच्छा हो वैसा करो। यह सुनकर रावण ने कुम्भकर्ण से कहा कि- तुम माननीय गुरु और आचार्य की भाँति उपदेश क्यों दे रहे हो। इस तरह भाषण देने का परिश्रम करने से क्या लाभ होगा? इस समय जो उचित और आवश्यक हो वह काम करो। तुम लंका तथा मेरे लिए राम से युद्ध करो। रावण की दयनीय दशा देखकर कुम्भकर्ण ने कहा- महाबाहो! आज मैं संग्राम भूमि में राम का सिर काटकर लाऊँगा। उसे देखकर तुम सुखी होना और सीता दु:ख में डूब जाएगी। तुम आज राम-लक्ष्मण से भय त्याग दो। मैं महाबली सुग्रीव को अवश्य मार डालूँगा। इसी बीच महोदर ने कुम्भकर्ण को समझाया कि कुम्भकर्ण! तुम उत्तम कुल में उत्पन्न हुए हो किन्तु तुम्हारी दृष्टि-बुद्धि निम्न श्रेणी के लोगों के समान है। तुम ढीठ और घमण्डी हो, इसलिए सभी विषयों में क्या कर्तव्य है? इस बात को तुम अच्छी तरह नहीं जान सकते हो। महोदर की अनेक उपदेशपूर्ण बात सुनने के बाद कुम्भकर्ण ने उसे डाँटा तथा रावण से कहा-
सोऽहं तव भयं घोरं वधात् तस्य दुरात्मन:।
रामास्याद्य प्रमार्जामि निर्वेरो हि सुखी भव।।
वा.रा. युद्धकाण्ड सर्ग ६५-२
राजन्! आज मैं उस दुरात्मा राम का वध करके तुम्हारे घोर भय को दूर कर दूँगा। तुम वैर भाव से मुक्त होकर सुखी हो जाओ। कुम्भकर्ण ने महोदर से कहा- जो भीरू मूर्ख और झूठे ही अपने आपको पंडित मानने वाले होंगे उन्हीं राजाओं को तुम्हारे द्वारा कही जाने वाली ये चिकनी चुपड़ी बातें सदा अच्छी लगती है। युद्ध में कायरता दिखाने वाले तुम जैसे चापलुसों ने ही सदा राजा की हाँ में हाँ मिलाकर सारा काम चौपट कर दिया। अब तो लंका में केवल अकेला राजा शेष रह गया है। खजाना खाली हो गया है और सेना भी मार डाली गई है। इस राजा को पाकर तुम लोगों ने मित्र के रूप में शत्रु का काम किया है। अंत में कुम्भकर्ण ने रावण के हृदय से लगकर उसकी परिक्रमा करके उस महाबली वीर ने उसे मस्तक झुकाकर प्रणाम किया। तत्पश्चात् वह युद्ध के लिए चल पड़ा। कुम्भकर्ण ने गदा उठाकर शत्रुओं को घायल करके चारों ओर बिखेर दिया। कुम्भकर्ण की मार खाकर आठ हजार सात सौ वानर तत्काल धराशायी हो गए। कुम्भकर्ण सोलह, आठ, दस, बीस और तीस-तीस वानरों को अपनी दोनों भुजाओं से समेट लेते और जैसे गरुड़ सर्पों को खाता है उसी प्रकार अत्यन्त क्रोधपूर्वक उनका भक्षण करता हुआ सब ओर दौड़ता फिरता। उसने हनुमान्जी से भी युद्ध किया तत्पश्चात् ऋषभ, शरभ, नील, गवाक्ष और गन्धमादन इन पाँचों प्रमुख वानरों ने कुम्भकर्ण पर धावा बोल दिया। इन सब महामनस्वी प्रमुख वानरों के धराशायी हो जाने पर हजारों वानर एक साथ कुम्भकर्ण पर टूट पड़े। कुम्भकर्ण ने अंगद पर शूल से प्रहार किया किन्तु अंगद ने आते हुए उस शूल से अपने आपको बचा लिया। कुम्भकर्ण वानरराज सुग्रीव के पास जाकर इन्हें भी उठा लिया। सुग्रीव को मूर्च्छा आ गई। सुग्रीव को थोड़ी देर बाद सचेत होने पर कुम्भकर्ण के दोनों कानों को नोच डाला, दाँतों से उसकी नाक काट ली तथा अपने पैरों के नखों से उस राक्षस की दोनों पसलियाँ फाड़ डाली। सुग्रीव आकाश से उछलकर श्रीराम से आ मिले।
अंत में श्रीराम ने रौद्रास्त्र का प्रयोग करके कुम्भकर्ण के हृदय में अनेक तीखे बाण मारे। श्रीराम के बाणों से कुम्भकर्ण के सारे अंग अत्यन्त घायल हो गए। वह खून से नहा उठा और जैसे पर्वत से झरना बहता है, उसी तरह वह अपनी देह से रक्त की धारा बहाने लगा। वह इतना भयभीत हो गया था कि न तो वानरों को पहचानता था न राक्षसों को। वह अपने और पराये दोनों ही पक्षों के योद्धाओं का भक्षण करने लगा। यह देखकर श्रीराम ने वायव्य नामक अस्त्र का संधान करके उसे कुम्भकर्ण पर चलाया और उसके द्वारा उस राक्षस की मद्गर सहित दाहिनी बाँह काट डाली। तत्पश्चात् श्रीराम ने सुवर्णभूषित बाण निकालकर उसे ऐन्द्रास्त्र से अभिमंत्रित किया और उसके द्वारा सर्प के समान बाण लेकर उनके द्वारा युद्धस्थल में उस राक्षस के दोनों पैर भी उड़ा दिए। श्रीराम ने एक तीखाबाण जो इन्द्रास्त्र से अभिमंत्रित कर उस पर छोड़कर मस्तक उड़ा दिया। श्रीराम के बाणों से कटा हुआ कुम्भकर्ण का वह पर्वताकार मस्तक लंका में जा गिरा। उसके धक्के मात्र से लंका में नगर की सड़कों के आसपास के कितने ही मकानों दरवाजों और ऊँचे परकोटे को भी धराशायी कर दिया। इसी प्रकार उस राक्षस का विशाल धड़ भी जो हिमालय के समान जान पड़ता था, तत्काल समुद्र के जल में गिर पड़ा और बड़े-बड़े ग्राहों, मस्त्यों तथा साँपों को पीसता हुआ पृथ्वी के भीतर समा गया। राक्षस कुम्भकर्ण को रणभूमि में मारकर श्रीरामजी को वैसी ही प्रसन्नता हुई जैसी वृत्रासुर का वध करके देवराज इन्द्र को हुई थी।
सन्त श्री एकनाथजी महाराज विरचित मराठी भावार्थ
रामायण में कुम्भकर्ण का रहस्यमय अंत
संत श्री एकनाथजी महाराज की इस मराठी भाषा की भावार्थ रामायण में प्राय: सभी अन्य श्रीरामकथाओं से हटकर कुम्भकर्ण के वध का प्रसंग बड़ा ही रोचक एवं रहस्यपूर्ण है। इस रामायण में यह प्रसंग युद्धकाण्ड के अध्याय २८ में है।
कुम्भकर्ण की मृत्यु का रहस्य
श्रीराम ने अपनी ओर आने वाला कुम्भकर्ण का सिर बाणों की धार से आकाश में उड़ाया और धड़ को बाणों से बिद्ध कर लंका में गिरा दिया। धड़ के लंका में गिरते ही हाहाकार मच गया। वह धड़ घरों और भवनों को गिराते हुए श्रीराम को भी कुचलने हेतु उनकी दिशा में दौड़ने लगा। श्रीराम उस धड़ को बाणों से दूर करते थे तथा ग्रसने के लिए आए हुए सिर को बाणों से आकाश में उड़ा देते थे। इस प्रकार धड़ भूमि पर तथा सिर आकाश में दौड़ रहा था। कुम्भकर्ण को वरदान प्राप्त था कि जिसकी महत्ता इस प्रकार थी कि शरीर के दो भाग हो जाने पर भी जब तक शत्रु पीछे नहीं घूमेगा, तब तक कुम्भकर्ण धराशायी नहीं होगा। शिवजी के वरदान की विशेषता यह थी कि युद्ध में शत्रु के पीछे मुड़ते ही कुम्भकर्ण निर्जीव होकर भूमि पर गिर पड़ेगा। ऐसा होने के कारण विभीषण श्रीराम से बोले, 'आप क्षण मात्र के लिए उसकी ओर पीठ करें तभी कुम्भकर्ण की मृत्यु होगी, अन्यथा कल्पान्त तक भी उसकी मृत्यु नहीं हो सकती।Ó श्रीराम विभीषण के यह वचन सुनकर क्रोधित होकर बोले, 'मैं कल्पान्त तक युद्ध करूँगा, परन्तु अपनी पीठ नहीं दिखाऊँगा। मैं तिलभर भी पीछे हटा तो सूर्यवंश अपमानित होगा। पूर्वजों को लज्जित कर क्षत्रियों का जीवित रहना निन्दनीय है।Ó श्रीराम का पीछे न हटने का निश्चय होने के कारण विभीषण चिन्तित हो उठे। उन्होंने वानरों को बताया- 'श्रीराम द्वारा कल्पान्त तक भी युद्ध करने पर कुम्भकर्ण नहीं मरेगा। यह एक बड़ी बाधा उत्पन्न हो गई है।Ó यह सुनकर अंगद, सुग्रीव इत्यादि योद्धा बड़े सोच विचार में पड़ गए। श्रीराम को कौन, किस तरह समझाए, सभी को यह चिन्ता होने लगी। महाबली हनुमान्जी ही इस चिन्ता का और समस्या का निराकरण कर सकते थे।
श्रीराम रणक्षेत्र में कुम्भकर्ण के धड़ व सिर से युद्ध कर रहे थे, वहाँ हनुमान्जी श्रीरामजी के पीछे खड़े हो गए। उन्होंने अपनी पूँछ से श्रीराम को स्पर्श किया। श्रीराम घूमकर हनुमान्जी से पूछने लगे उसी समय कुम्भकर्ण का धड़ व सिर भूमि पर जा गिरा। देवता जय-जयकार करने लगे। सभी वानर मिलकर जय-जयकार करते हुए गर्जना करने लगे। श्रीरामजी विजयी हुए। उन्होंने कुम्भकर्ण को रणभूमि में धराशायी कर दिया। श्रीराम को क्रोधित किए बिना हनुमान् ने कार्य सिद्ध कर लिया। सभी वानर आनन्दित होकर हरिनाम की गर्जना करने लगे। सत्यव्रत का पालन करते हुए किसी के जाने बिना ही हनुमान्जी ने यह कार्य कर दिखाया, जिससे श्रीराम भी सन्तुष्ट हुए। हनुमान्जी बलशाली, विवेकवान, भक्ति, वैराग्य तथा ज्ञान से युक्त तथा सर्वार्ध साधक हैं- यह कहते हुए श्रीराम ने हनुमान्जी को आलिंगनबद्ध कर सुख प्रदान किया। कुम्भकर्ण के युद्ध में मारे जाने से सुरगण, सिद्ध, चारण, वानरगण सभी प्रसन्न और सुखी हो गए।
कुम्भकर्ण की मृत्यु तथा राक्षस सेना का पीछे हटना
कुम्भकर्ण के मुकुट, कुण्डल, अलंकार, विकराल दाँत, विशालकाय शरीर आदि को श्रीराम ने बाणों से छेद डाला। श्रीराम ने जब बाण से कुम्भकर्ण का सिर काटा तो वह वेगपूर्वक धरती पर जा गिरा और उसके नीचे दो सहस्त्र राक्षस दब गए और उनकी मृत्यु हो गई। श्रीराम को कुचलकर मारने के लिए लुढ़क कर आने वाले धड़ के युद्ध के आवेश से असंख्य राक्षस दब कर मर गए। अंत में वह शरीर रणवेग से लुढ़कते हुए समुद्र में जा गिरा। वहाँ उसने अनेक जलचरों को मार डाला, जिसमें तिमि, तिमिंगल आदि मछलियाँ, मगर, कछुए इत्यादि जलघर थे, वे सभी दबकर पाताल चले गए। कुम्भकर्ण के नीचे गिरते ही भूकम्प आ गया। लंका पूरी हिल उठी। समुद्र का जल उछलना शुरू हो गया। कुम्भकर्ण का शरीर रसातल में चला गया। वहाँ महासर्पों पर गिरने से अनेक सर्प उसके नीचे दबकर मर गए। कुम्भकर्ण का शरीर हिमालय सा विशाल था। उसके शरीर के नीचे अनेक जलघर दबकर मर गए तथा उसकी देह रसातल में चली गई। श्रीराम कुम्भकर्ण को मार कर विजयी हुए और इसके कारण वानरगण आनन्दित हुए।
वाल्मीकि रामायण में सुन्दरकाण्ड में राक्षसों के बारे में कहा गया है-
स्वधर्मो रक्षसां भीरू! सर्वदैव न संशय:।
गमनं वा परस्त्रीणां हरणं सम्प्रमथ्य वा।।
वा.रा. सु.का. २०-५
भीरू! पराई स्त्रियों से समागम अथवा उनका बलपूर्वक अपहरण करना- नि:सन्देह सदा ही राक्षसों का धर्म रहा है।
(लेखक-डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता )
आर्टिकल
कुम्भकर्ण के वध का रहस्य