भगवान शीतलनाथ का जन्म माघ कृष्ण द्वादशी (21 जनवरी) को हुआ था। यह दिन न केवल जैन धर्मावलंबियों के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि झारखंड के लिए भी खास है. क्षेत्र की खुदाई से प्राप्त तीर्थंकर की प्रतिमाओं और अवशेषों से यह सिद्ध हो चुका है कि चतरा में आज का भदुली ही भदलपुर है, जो दसवें तीर्थंकर की गर्भ-जन्म कल्याणक भूमि है।
नवम तीर्थन्कर के निर्वाण के सुदीर्घ काल के पश्चात दसवे तीर्थकर श्री शीतलनाथ जी का जन्म हुआ। भदिदलपुर नरेश द्रढरथ एवम महारानी नन्दादेवी ने प्रभु के जनक -जननी होने का सौभाग्य पाया। माघ क्रष्ण द्वादशी के दिन प्रभु का जन्म हुआ।
प्रभु जब मात्रगर्भ मे थे , तब किसी समय महाराज द्रढरथ को दाहज्वर हुआ था। उनकी देह ताप से जलने लगी थी। समस्त उपचार विफ़ल हो गए। तब महारानी के कर -स्पर्श मात्र से महाराज दाहज्वर से मुक्त हो गए थे। महाराज ने इसे अपनी भावी सन्तान का ही पुण्य -प्रभाव माना। फ़लत: पुत्र के नामकरण के प्रसन्ग पर उक्त घट्ना का वर्णन करते हुए महाराज ने अपने पुत्र का नाम शीतलनाथ रखा।
युवावस्था मे कई राजकान्याओ से शीतलनाथ जी का पाणिग्रहण हुआ। पिता द्वारा दीक्षा लेने पर उन्होने राजपद पर आरुढ हो अनेक वर्षो तक प्रजा का पुत्रवत पालन किया। भोगावली कर्म जब समाप्त हो गए , तब माघक्रष्णा द्वादशी के दिन शीतलनाथ ने श्रामणी दीक्षा अन्गीकार की। तप और ध्यान की तीन मास की स्वल्पावधि मे ही प्रभु ने चारो घन घाती कर्मो को अशेष कर केवलज्ञान केवलदर्शन प्राप्त किया। देवो और मानवो ने मिलकर प्रभु का कैवल्य महोत्सव आयोजित किया। प्रभु ने उपस्थित विशाल परिषद के समक्ष धर्म -देशना दी। अनेक लोगो ने सर्वविरति एवम अनेको ने देशविरति धर्म अन्गीकार किया। इस प्रकार चतुर्विध तीर्थ की स्थापना की।
भगवान के आनन्द आदि इक्यासी गणधर हुए। भगवान के धर्म परिवार मे एक लाख साधु , एक लाख छ्ह हजार साध्विया , दो लाख नवासी हजार श्रावक एवम चार लाख अठानवे हजार श्राविकाए थी।
लम्बे समय तक वि्श्वकल्याण का अलख जगाते हुए प्रभु शीतलनाथ इस भुतल पर विचरण करते रहे। बाद मे वैशाख क्रष्णा द्वितीया को स्म्मेद शिखर से नश्वर देह का विसर्जन कर मोक्ष पधारे।
भगवान के चिन्ह का महत्व
श्रीवत्स – भगवान शीतलनाथ के चरणो का यह चिन्ह सभी महापुरूषों ने अपने वक्षस्थल पर धारण किया है। श्री + वत्स का अर्थ होता है -लक्ष्मी पुत्र। श्री (लक्ष्मी ) , वत्स (पुत्र) , किन्तु वास्तव में जिन महापुरूषों के वक्षस्थल पर श्रीवत्स होता है वे लक्ष्मी -पुत्र न होकर धर्म -पुत्र होते हैं। संसार के समस्त सुख – ऐश्वर्य तो उनके दास होते हैं। लक्ष्मी उनकी दासी होती है। श्रीवत्स को क्षमा और धैर्य का प्रतीक भी बताया गया है। इस गुण को धारण करने वाला ही महापुरूष बनता है। अष्ट मंगल में श्रीवत्स भी एक मंगल है। जिसके ह्रदय पर श्रीवत्स होता है वह संसार का मंगल -कल्याण करता है।
श्री माघ की द्वादशी श्याम जायों,
भूलोक में मंगल सार आयो
शैलेन्द्र पै इंद्र फणीन्द्र जज्जै
मैं ध्यान धारों भवदुख भज्जै
ॐ ह्रीं श्री माघकृष्द्वादश्यां जन्ममंगलमण्डिताय श्री शीतलनाथ िनेन्द्राय अर्घं स्वाहाः .
श्री माघ की द्वादशी श्याम जानों .
वैराग्य पायो भवभाव हानों
ध्यायो चिदानंद निवार मोहा
चर्चो सदा चर्न निवारि कोहा
ॐ ह्रीं श्री माघकृष्द्वादश्यां तपोमंगलमण्डिताय श्री शीतलनाथ िनेन्द्राय अर्घं स्वाहाः
जय हो भगवान् शीतल नाथ जी की
(लेखक-विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन )
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(चार अप्रैल २०२१) भगवान् शीतलनाथ का जन्म और तप कल्याणक