भारत राज्य के समक्ष अगर कोई सबसे अहम्् चुनौती है तो वह है शासन की। आज कल लोग शासन को व्याख्यित करने के लिये या महिमा मंडित करने के लिये सुशासन शब्द का इस्तेमाल करने लगे है और मीडिया भी उस शब्द को गढ़कर प्रचार व राजनीति के बाजार में चला रहा है। बिहार के मुख्यमंत्री जी को प्रचार तंत्र में उनके दल और समर्थक दलों में सुशासन बाबू ही घोषित कर दिया गया है। जिनके राज्य में महिला आश्रम में बलात्कार हुए और उन बच्चियों के साथ यौन अपराध करने वाले उसी विभाग की मंत्री के पति थे जो बाद में गिरतार भी हुए तथा मुख्यमंत्री जी का संरक्षण उन्हें बना रहा फिर भी वे प्रचार तंत्र में सुशासन बाबू बने रहे।
एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या शासन का मतलब ही सुशासन नहीं है? और अगर शासन का मतलब नीति-नियम कानून के व संविधान सम्मत शासन है तो अलग से या जोर से सुशासन कहने की क्या आवश्यकता है। परन्तु इस जुमले का व्यवहारिक अर्थ यह हुआ कि या तो सत्ताधीशों ने शासन का स्तर इतना गिरा दिया गया है कि जनता की नजरों में वह कुशासन बन गया है। और इसलिए सुशासन शब्द नया गढ़ना पड़ा।
आजकल राजनीति के बाजार में राम का नाम काफी बिक रहा है और राम मंदिर के निर्माण तथा राममंदिर के दर्शन से लेकर राम शिला एवं राम जी के नाम चंदा भी मीडिया की सुर्खियों में है। भगवान राम का मंदिर कितना भव्य बनेगा, किस प्रकार जनता उत्साह से चंदा दे रही है, राजनेता जिनकी राजनीति का आधार मंदिर के विरूद्ध रहा है वे सब भी बड़े उत्साह से लाख, दो लाख की रसीद कटवा रहे है। मंदिर निर्माण के लिए अधिकृत अधिकारी भी अखबारों को साक्षात्कार दे रहे है और बता रहे है कि लक्ष्य तो पन्द्रह सौ करोड़ था परन्तु पैंतीस सौ करोड़ रूपया इकठ्ठा हो चुका है। जो लक्ष्य से लगभग 40 प्रतिशत राशि अधिक है, इकठ्ठे होने के बावजूद चंदा अभियान बंद नहीं किया जा रहा। सिद्धांतत: आवश्यकता पूरी होने के बाद भी संग्रह यह लिप्सा ही मानी जायेगी परन्तु हमारे मुल्क में यह सब चलता है।
महात्मा गांधी राम राज की चर्चा करते थे और उसे अपनी कल्पना के राज्य का आदर्श मानते थे। तुलसीदास ने भी रामायण में कई दोहे व चौपाईयों के माध्यम से राम राज्य की अवधारणा वर्णित की है। वे लिखते है कि "दैहिक दैविक भौतिक तापा: राम राज्य काहू नहीं व्यापा।" यानि राम राज्य एक ऐसी शासन व्यवस्था की कल्पना है जिसमें राज्य के निवासियों को शारीरिक व प्राकृतिक और भौतिक किसी प्रकार की कोई व्याधि न हो। परन्तु देश में राम राज्य के नाम की राजनीति का खेल खेलने वाले सत्ताधीश अपनी सरकारों के लिए क्या इन कसौटियों पर कसने के लिए तैयार है? हाल ही में उत्तराखण्ड में वर्फ के पिघलने से जो तूफान व बाढ़ आयी उससे जन धन की भारी क्षति हुई है उससे पहले भी केदार मठ में अतिवृष्टि से क्षति हुई थी। देश और दुनिया में पर्यावरण विशेषज्ञ यह मानते है कि उत्तराखण्ड में यह घटनायें वैश्विक तापमान की वृद्धि और प्रकृति से छेड़छाड़ का परिणाम है यानि जो बड़े बड़े बांध बनाये जा रहे है वे इसका एक प्रमुख कारण है। इसके बावजूद भी केन्द्र व राज्य की सरकारें भी इस गंभीर पर्यावरणीय संकट पर कोई विचार नहीं कर रही है और अभी 28 और नये बड़े बांध बनाने की तैयारियां है।
राम राज्य की कुछ कल्पना तुलसी रामायण में राम और भरत के मिलाप के समय हुए वार्तालाप से सामने आती है। राम भरत से पूछते है कि राज्य यानि अयोध्या में कोई दुखी तो नहीं है, कोई भूखा तो नहीं है, शिक्षकों का और सैनिकों का वेतन उन्हें समय से मिलता है, किसी पीड़ित की शिकायत बिना सुनवाई के तो नहीं रह जाती है और ऐसे अनेकों मापदण्ड और कसौटियां अपने प्रश्नों के माध्यम से राम ने प्रस्तुत की है। परन्तु इनके बारे में आज शासन वर्ग मौन धारण करता है। वह तो केवल राम प्रतिमा की पाषाण पूजा को ही रामभक्ति या राम पूजा मानता है। राम के जनकल्याणकारी सरोकारों से बचता है।
शासन को एक व्यवस्था के रूप में मानवीय और संवेदनशील होना चाहिए। परन्तु आज के सत्ताधीश सोचे कि क्या उनकी सरकारें या सत्ता इन कसौटियों पर खरी है? 90 के दशक में म0प्र0 के एक जिले रायगढ़ में श्री नंदन गुप्ता नामक सज्जन को हथकड़ियों में डालकर अस्पताल में भर्ती किया गया। बाद में मानव अधिकार आयोग ने भी इसे गलत करार दिया। परन्तु सरकार ने 5000/- रू0 की क्षतिपूर्ति कर अपने दायित्व की इतिश्री कर ली। उन्हीं पूर्व मुख्यमंत्री जी ने अभी राम मंदिर निर्माण के लिए 111000/- रू0 दिया है। क्या यही राम राज्य है?
उज्जैन के कुंभ में भारी वर्षा से बड़े जनधन की हानि हुई और अखबारों में मुख्यमंत्री के टेंट बांधने और चाय पिलाते फोटो छपे तथा उन्हें संवेदनशीलता का प्रमाण पत्र मिल गया। अपराधी बच गये। इलाहाबाद के कुंभ में रेलवे स्टेशन पर प्लेटफार्म बदलने की भगदड़ में बड़ी संख्या में गरीब श्रद्धालु गिर गये और कुछ मरे कुछ चोटिल हो गये। परन्तु किसी भी शासन केन्द्र या राज्य ने उनके प्रति किसी प्रकार की चिन्ता करना और सहायता देना उचित नहीं समझा। दिल्ली में जो सरकार है वह अपने आरंभिक घोषण पत्र में हमें चाहिए स्वराज्य के नाम पर सत्ता में आयी थी और बाद में अपनी कार्य पद्धति से उसने स्वराज्य का मतलब जनता का राज्य नहीं बल्कि अपना व्यक्तिपरक राज्य मान लिया। शासन की यह स्थिति है कि दिल्ली में हमारे कार्यालय मातासुन्दरी रोड पर पिछले एक माह से नलों में पानी के नाम पर मिट्टी मिले गंदे पानी की कुछ बूंदे भर आती रहीं। फरवरी अंत में मैंने उप मुख्यमंत्री के लिए ईमेल के माध्यम से शिकायत भेजी। उन्होंने उस शिकायत को संबंधित जे0ई0 को भेज दिया परन्तु पानी नहीं आया। अभी 10 मार्च पुन: हमने उनके मेल पर शिकायत भेजी। उनके कार्यालय से पुन: सूचना प्राप्त हुई कि उन्होंने मेरी शिकायत को संबंधित जे0ई0 को भेज दिया है। इस सूचना में संबंधित जे0ई0 का नाम और टेलीफोन नंबर भी है। जे0ई0 के नंबर पर लगभग मैंने आधा दर्जन बार फोन लगाया परन्तु वह अनुत्तरित ही रहता है।
निसंदेह सरकार ने पानी, बिजली पर अनुदान दिया है पर अगर पानी हीं नहीं मिलेगा तो उस नल या पानी के अनुदान का क्या किया जायेगा? मैंने पुन: यह लिखकर उप मुख्यमंत्री जी के ई मेल पर शिकायत भेजी। परन्तु अब तक तंत्र मौन है। कई दिनों पश्चात्् जे0ई0 महोदय से फोन पर बात हो सकी। उन्होंने बताया कि वे बीमार हैं तथा अस्पताल में भरती है। उनकी ओर से कोई सज्जन संपर्क करेंर्गे। बाद में एक सज्जन का फोन भी आया। उन्होंने कहा कि कई बार नल के पानी के साथ प्लास्टिक की पन्नी आ जाती है और उन्हें निकलवाना उपभोक्ता का दायित्व है। याने दिल्ली जल बोर्ड का काम है - पाईप लाईन में पन्नी भिजवाना और उपभोक्ता का काम है उन्हें निकलवाना। और ऐसी घटनायें मेरे साथ ही नहीं बल्कि दिल्ली में लाखों वाशिदों के साथ रोज घटतीं है और न केवल दिल्ली में बल्कि समूचे देश में सभी सरकारों में चाहे वे किसी भी दल की हो घट रहीं हैं। जब शासन व्यक्ति परक हो जायेगा मुख्यमंत्रियों का और मंत्रियों का दर्द ही देश का दर्द माना जायेगा तब यही होगा।
25 जनवरी 2021 को एक मंत्री जी जो 26 जनवरी के शपथ समारोह के लिए पहुंच थे की आव भगत के लिए अधिकारी नहीं पहुंचे तो उन्हें अपराधी मानकर अनुशासनात्मक कार्यवाही कर दी गई। अगर सत्ताधीशों को एक गिलास पानी मिलने में बिलंव हो तो सरकार के लिए राष्ट्रीय अपराध और मीडिया के लिए राष्ट्रीय घटना हो जाती है। परन्तु जनता को, करदाताओं को महिनों पानी न मिले या पानी के नाम पर कीचड़ मिल तो यह शासन के लिये कोई गुनाह नहीं है।
पिछले कई वर्षें से उ.प्र. के गोरखपुर में जो कि अब मुख्यमंत्री श्री योगी आदित्यनाथ का ग्रह नगर है, मस्तिष्क ज्वर से सैकड़ों बच्चों की मौते हुई थी, ये मोतें भा.ज.पा., ब.स.पा., सपा यानि सभी सरकारों के कालखण्डों में हुई परन्तु किसी भी सरकार ने इसके लिये अपनी जवाबदारी नहीं ली। गोरखपुर की अस्पताल में जो बच्चे भर्ती थे उन्हें ऑक्सीजन स्लेन्डर भी नहीं मिल सके और इस कारण से बड़ी संख्या में बच्चे मौतों के शिकार हुये। इसी प्रकार की एक घटना 1 अप्रैल 2021 को भोपाल राजधानी के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल (जे.पी. हॉस्पिटल) में भी हुई जहाँ ऑक्सीजन की अनुपलब्धता और सप्लाई अचानक रूक जाने की वजह से दो मरीजों की मौत हो गई, चार माह पहले भी हमीदिया मेडीकल कॉलेज में अचानक बिजली की सप्लाई जाने से तीन मरीजों की मौत हुई थी।
बिहार के हाजीपुर में सरकारी अस्पताल में ऐसी ही मौतें हुई थी परन्तु किसी भी मुख्यमंत्री ने या स्वास्थ्य मंत्री ने इसके लिये अपनी जवाबदारी नहीं ली। केवल खानापूर्ति करके मामले को टाल दिया गया। क्या यह मौतें वास्तव में व्यवस्था की हत्या नहीं है? क्या निर्वाचित सरकारें जवाबदार नहीं है? ऐसे मामले में अकसर संसदीय विपक्ष भी या तो मौन रहता है या फिर दिखावटी ध्यानबाजी कर बात समाप्त हो जाती है।
हालांकि इसके लिए जनता ही जिम्मेदार है क्योंकि जनता कभी भी जन समस्याओं या शासन व्यवस्था को लेकर मतदान नहीं करती। शासन का मतलब ही संवैधानिक व वैधानिक - नीतिगत और नागरिकों के लिए शासन है। सभी पक्षों को और आम जनता को प्रचार तंत्र और सत्ता की निरंकुशता पर विचार कर सुधार करने की आवश्यता है। वरना व्यक्ति केन्द्रित शासन अंतत: शासन नहीं बल्कि कुशासन होगा। और इसकी परिणति कभी न कभी व्यक्ति तानाशाही में होगी।
दरअसल हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली में सत्ता और शीर्ष पर बैठे हुए लोगों ने जवाबदेही को मानना छोड़ दिया है। अब देश में इस पर विचार होना चाहिये कि अधिकार, कर्तव्य और उत्तरदायित्व तीनों को लेकर एक समीचीन कानून संसद और विधानसभा में पारित हो तभी लोकतंत्र स्वस्थ, सुंदर, जनोन्मुखी, विश्वसनीय और टिकाऊँ बन सकेगा।
(लेखक-रघु ठाकुर)
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जनोन्मुखी शासन हो, व्यक्तिपरक नहीं