क्षमा वीरत्व की अलंकृति है। दुर्बल और विवश व्यक्ति द्वारा उद्गीत क्षमा का माहात्म्य उतना प्रखर नहीं हो सकता। ज्ञान की स्फुरणा में मौन की सार्थकता है। शक्ति-संपन्नता में क्षमा की सार्थकता है और त्याग-भावना में आत्मगोपन या अप्रशस्ति की सार्थकता है। शक्ति के अभाव में स्वीकृत का कवच व्यक्ति को कई अवांछनीय परिस्थितियों से त्राण तो दे सकता है, पर उससे क्षमा का वर्चस्व धुंधला हो जाता है। मन के प्रतिकूल परिस्थिति उत्पन्न होने पर संभावित प्रोध को शांति से प्रतिहत करने वाला व्यक्ति अपनी क्षमा को तेजस्वी बनाता है।
क्षमा के स्वरूप और उसकी क्रियान्विति के संबंध में कोई निश्चित सिद्धांत नहीं बन सकता। अपराध करने वलों और क्षमाशील रहने वालों की अनेक भूमिकाएं हैं। एक मुनि, अपराधी व्यक्ति को क्षमा नहीं करता है तो उसका मुनित्व संदिग्ध हो जाता है। भगवान महावीर के साधना काल में कितनी बार प्रतिकूल परिस्थितियां पैदा की गई, पर महावीर का महावीरत्व उनकी क्षमाशीलता में ही पल्लवित हुआ।
राजधर्म क्षमा को ऐकांतिक महत्व नहीं देता। दुष्ट व्यक्ति को दंडित करना राजधर्म के अनुसार विहित है। दंडनीय को दंड न देना राजधर्म का लोप माना जाता है। इससे अराजकता को प्रोत्साहन मिलता है और अपराधी तत्व निरंकुश हो जाते हैं। दंडसंहिता की सारी धाराएं अपराधों का प्रतिकार करने के लिए हैं।
समाज के साथ अपराध और अपराधों के साथ दंड-पद्धति का सृजन स्वाभाविक माना जाता है। किंतु यह लोक-व्यवस्था या राज्य-व्यवस्था का सिद्धांत है। अध्यात्म की भूमिका इससे भिन्न है। इसमें अपराधी व्यक्ति स्वयं अपराध-शोधन के लिए प्रायश्चित स्वीकार करता है। अपराधी को बलात दंडित करने या उसके प्रति प्रोध प्रदर्शित करने की बात क्षमा-धर्म द्वारा संभव नहीं है। साधना के पथ पर अग्रसर साधकों के लिए क्षमा के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही नहीं हैं। क्षमा का प्रभाव अप्रतिहत होता है, पर क्षमा-धर्म की साधना है बहुत कठिन।
आर्टिकल
(चिंतन-मनन) वीरत्व की अलंकृति है क्षमा