YUV News Logo
YuvNews
Open in the YuvNews app
OPEN

फ़्लैश न्यूज़

आर्टिकल

बस्तर में नक्सली हमला : एक विश्लेषण  

बस्तर में नक्सली हमला : एक विश्लेषण  

4 अप्रैल 2021 को छत्तीसगढ़ के बस्तर में नक्सल विरोधी अभियान में भेजे गये पुलिस बल के ऊपर नक्सलवादियों ने घेरकर हमला किया, जिसमें बड़ी संख्या में पुलिस जवानों की मृत्यु हुई। कुछ जवान अभी भी गंभीर रूप से घायल है, जिनका इलाज प्रदेश की राजधानी रायपुर में चल रहा है, तथा एक जवान जो कश्मीरी है वह नक्सलवादियों के कब्जे में ही था, उसकी पत्नी और पाँच वर्षीय बेटी के नाम से मार्मिक अपील अखबारों और मीडिया में भी दिखाई गई थी, जिसे हाल ही में रिहा भी कर दिया गया। यद्यपि सरकार ने अभी तक 23 जवानों की मौत को स्वीकार किया है, परन्तु अन्य स्त्रोतों और मीडिया के कुछ हिस्सों के समाचारों के अनुसार मृतक जवानों की संख्या कहीं ज्यादा है। इस मुठभेड़ में बताया जा रहा है कि, तीन नक्सली भी शहीद हुये है। मीडिया की भूमिका बड़ी विचित्र है जब यह घटना हुई उसके बाद मीडिया के कुछ उत्साही मित्रों ने 15 नक्सलियों के मरने की खबर प्रसारित की थी, और यह खबर देश के गैर जिम्मेवार यानि सोशल मीडिया में भी चली थी। यह संख्या बाद में घटकर तीन पर आई। और दूसरी तरफ आरंभ में सोशल मीडिया में पुलिस मृतकों की संख्या 3 बताई गई थी जो अब बढ़कर 23 और अपुष्ट समाचार के अनुसार 30 तक पहुंच गई।  
    घटना के तत्काल बाद देश के गृहमंत्री श्री अमित शाह और छ.ग. के मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल एक साथ घटना का जायजा लेने पहुंचे। रायपुर में घायल जवानों से हाल चाल जाने और जिस प्रकार के घिसे पिटे बयान पहले भी सरकार देती रही है कि शहीदों का खून व्यर्थ नहीं जायेगा, यह कायराना हमला है, आदि-आदि जुमले उछाल कर अपने-अपने ठिकानों पर वापिस पहुंच गये। छ.ग. के मुख्यमंत्री जी ने मृतक जवानों के परिजनों को 80-80 लाख रूपये देने की घोषणा की है। केन्द्रीय बल के नाते जो साधन सुविधायें मृतकों के परिवारों को मिलती है, वह तो मिलेंगी ही। यह सरकारों का पिछले ढाई-तीन दशकों का रूपांतरित स्वरूप है जो क्रमश: मुठभेड़ों में मरने वाले सैनिकों या जवानों की राशि को बढ़ा रहा है। इसके पूर्व दिल्ली के मुख्यमंत्री श्री अरविंद केजरीवाल ने प्रत्येक पुलिस वाले के मरने पर     1 करोड़ रूपया देने का एलान किया था और कुछ लोगों को यह राशि दी भी गई है। यह इंसान की जान की कीमत की धन राशि है, और यह बढ़ती जायेगी। क्योंकि राजनैतिक प्रतिस्पर्धा बढ़ती ही जाना है, इन घोषणाओं से मूल मुद्दे पर से ध्यान भी हट जाता है और सरकारों के लिये सरकारी खजाने का वह भी जनता का पैसा लुटा कर मुद्दे को द्रष्टि गोचर करना एक सस्ता सौदा होता है।  
    कांग्रेस पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष श्री राहुल गाँधी ने इस घटना को केन्द्रीय बलों की गुप्तचर शाखा की असफलता कहा है, और केन्द्रीय सुरक्षा बल के वरिष्ठ अधिकारी ने उनकी इस बात का खंडन भी कर दिया है कि, गुप्तचर शाखा की इस घटना में कोई चूक नहीं है।  
    निसंदेह गुप्तचर शाखा की यह असफलता तो है कि उन्होंने नक्सलियों के आक्रमण की रणनीति, बचाओं की रणनीति और अपने आक्रमण की रणनीति को संभवत: ठीक ढंग से प्रस्तुत नहीं किया। वरना 900 आधुनिक हथियारों से लेस जवान मात्र 200-250 नक्सलियों के आक्रमण में कैसे फंसे और पुलिस बल की इतनी बड़ी जन हानि कैसे संभव हुई। अगर गुप्तचर शाखा की सूचना सही होती और रणनीति सही होती तो 900 जवान उन 200-250 नक्सलियों को चारों ओर से घेर सकते थे और तब शायद घटना के आंकड़े विपरीत होते। अब जब पुलिस गुप्तचर शाखा सक्रिय हुई तो, पूर्व विधायक धनीराम पुजारी के बेटे जगन पुजारी जो भा.ज.पा. के उपाध्यक्ष है, नक्सलियों को सामान भेजते पकड़े गये दुखद है कि भा.ज.पा. के आला कमान ने अभी तक इतनी गंभीर घटना पर खेद तक व्यक्त नहीं किया।  
    यह भी आश्चर्यजनक है कि, श्री राहुल गाँधी ने गुप्तचर शाखा के अधिकारियों को जिम्मेवार तो माना परन्तु राजनैतिक जिम्मेवारी जो ज्यादा महत्वपूर्ण होती है उस पर ऊँगली नहीं उठाई। केन्द्रीय पुलिस बल, केन्द्रीय गृह मंत्री के अधीन होता है और लोकतांत्रिक प्रणाली में निर्वाचित सत्ताधीशों की जवाबदारी अधिक होती है। यह आश्चर्यजनक है कि श्री राहुल गाँधी ने केन्द्रीय गृह मंत्री को जिम्मेवार नहीं माना और इस्तीफे की माँग भी नहीं की। एक कहावत है कि काँच के घर में रहने वाला दूसरे के काँच के घर में पत्थर नहीं फेंकता। शायद इसका एक कारण यह भी होगा कि अगर वह केन्द्रीय गृह मंत्री से इस्तीफा माँगते तो भा.ज.पा. कांग्रेस के मुख्यमंत्री से इस्तीफा मांगती। चूंकि दोनों दलों के मखिया इन घटनाओsं के लिये जिम्मेवार है, अत: कौन किससे इस्तीफा माँगे यह राहुल गाँधी जी की परपक्वता मानी जाए या राजनैतिक लाचारी इसका उत्तर तो वह स्वयं ही बेहतर ढंग से दे पायेंगे।  
    मीडिया के कुछ हिस्से में, और सोशल मीडिया में नक्सल संगठन के प्रवक्ता की ओर से भी एक बयान आया है जिस पर उन्होंने कहा है कि हम पुलिस को अपना दुश्मन नहीं मानते। अब यह सवाल है कि उनका इस प्रकार का बयान कैसे आता है, और बगैर किसी प्रमाणिकता के छप कैसे जाता है पर वास्तविक रूप में ऐसा लगता है कि नक्सल या माओवादियों ने अपने अनुभवों से यह रणनीति बनाई है कि हिंसा भी जोरदार करो और बयानों में उदारता या नम्रता की रणनीति अपनाओं ताकि आम जन मानस खिलाफ न हो। यह पहली बार नहीं है इसके पहले भी जब छत्तीसगढ़ में भा.ज.पा. सरकार थी और बस्तर में ही कांगेस के नेताओं पर हमला हुआ था जिसमें स्व. नंद कुमार पटेल, महेन्द्र कर्मा, विद्याचरण शुक्ला जैसे कई वरिष्ठ कांगेसीजन मारे गये थे इसके बाद भी नक्सल संगठनों या उनके प्रवक्ता के नाम से ऐसे बयान अखबारों में आये थे कि हम इनकी हत्या नहीं करना चाहते थे और यह भूल हो गई। नक्सल मार कर उदारता के बयान देते है, और सरकारें जवानों को मरवा कर बहादुरी और कठोर हिंसा के बयान देती है, हालांकि दोनों का कोई अर्थ नहीं है। और दोनों पक्ष जानते है यह बयान गुमराह करने के लिये या लोगों के आक्रोश की आग को बुझाने के लिये थोड़ी पानी की बूंदे भर है।  
    अभी कुछ मित्रों ने अखबारों में बयान देना या बताना शुरू किया है कि यह पुलिस को मारने वाले नक्सलवादी नहीं बल्कि माओवादी है। यह इन मित्रों की अज्ञानता है या कोई सोची समझी रणनीति, इसके लिये अभी और शोध की आवश्यकता है, परन्तु इतना अवश्य स्पष्ट कर दें कि पं. बंगाल से सी.पी.एम. को कमजोर करने के लिये और देश के आदिवासी अंचलों में समाजवादी संगठन और विशेषत: डॉ. लोहिया के विचारों के संगठन को कमजोर करने के लिये, सी.पी.आई. एम.एल. याने कम्युनिस्ट मार्क्सवादी लेनिल शाखा शुरू कराई गई थी और श्री चारू मजुमदार कनु सान्याल, नाग भूषण पटनायक जैसे मार्क्सवादियों ने बंगाल के नक्सलवाड़ी से बड़े जमींदारों की हत्या कर समाजवाद लाने और देश की राजसत्ता पर कब्जा करने का अभियान शुरू किया था। कालान्तर में इसी विचार धारा के श्री विनोद मिश्र ने कई दशकों के हिंसा व असफलता से सबक सीख कर और अपने बचाव की रणनीति के तौर पर लोकतांत्रिक प्रक्रिया याने चुनाव में हिस्सेदारी लेना शुरू की और धीरे-धीरे अब हिस्सेदारी और सत्ता पाने वह इस सीमा तक पहुंच गये कि न केवल सी.पी.आई/सी.पी.एम. बल्कि           सी.पी.आई. माले भी श्री लालू यादव की शरण में जाकर चुनाव जीतने के लिए लालायित है तथा उनके साथ मिलकर चुनाव लड़ने लगे है और अब जैसा एक दौर में सी.पी.एम. को समझौतावादी या कम क्रान्तिकारी सिद्ध करने के लिये मामले को उछाला गया था उसी प्रकार से सी.पी.आई. याने माले या नक्सलवादियों को समझौतावादी और कम क्रान्तिकारी सिद्ध करने के लिये एक नया ढांचा माओवादियों के नाम से बनाया गया है और उसे देश व दुनिया में प्रचारित किया जा रहा है। जो लोग नक्सलवाद, माओवाद को अलग करके देख रहे है, वह यह भूल जाते है कि कौन आज हथियार लिये है, कौन उसका इस्तेमाल कर रहा है, और कौन भविष्य के लिये इन्हें सुरक्षित रख रहा है। इस बात पर कोई अंतर नहीं पड़ता कि उनका मूल विश्वास हिंसक बदलाव में है, और नाम के फर्क से कोई अंतर नहीं पड़ता। बस्तर में आरंभिक दौर हिंसक बदलाव के समर्थक नक्सलवादी के नाम से जाने गये थे अब उन्होंने माओवाद का चोला धारण कर लिया है।  
    दूसरा प्रश्न है कि, क्या माओवादी या पुराने नक्सलवादी विकास चाहते है? अगर कोई भ्रम में है कि इनकी हिंसा विकास के लिये या कारपोरेट के खिलाफ है तो वह भ्रम में है। कारपोरेट की फडिंग का अगर अध्ययन किया जाए तो वह चुनाव में क्रमश: सत्ताधारी संगठन और इसके बाद मुख्य विपक्षी दल और उसके बाद अन्य संसदीय दलों के लिये की जाती है जो उनके तब या भविष्य में इस्तेमाल के लायक है। और जंगलों में या वन क्षेत्रों में कारपोरेट फडिंग इन हिंसक धाराओं के लिये की जाती है जो उनके लिये संगठन या तथाकथित माओवादियों के लिये की जाती है। यह खेल अब पुराना हो चुका और सभी को समझ जाना चाहिये और साल में दो चार डम्पर, ट्रैक्टर, मशीन जलाने से कारपोरेट का कुछ नहीं बिगड़ता बल्कि यह नुकसान भी आम जनता को सहना पड़ता क्योंकि इन सबका बीमा होता है। और इसकी राशि सरकारी खजाने यानि जनता के पैसे से जाती है। इस प्रकार भय का आंतक पैदा कर यह नक्सलवादी या माओवादी अपने छिपे दान दाता कारपोरेट को जमीन के या खनन के पट्टे आदि लेने में सहयोगी बनते है, क्योंकि इन अंचलों में ठेकों आदि का फैसला सरकार नही करती बल्कि नक्सल या माओवादी तय करते है। वह जिसे चाहते है केवल वही आवेदन कर सकता है, बकाया को दूर हटना हाता है।  
    पिछले वर्ष में गृहमंत्रालय ने इन हिंसक संगठनों को फंडिंग के बारे में जो अध्ययन कराये है और जो गृह मंत्रालय की फाइलों में बंद पड़े हैं, अगर उन्हें देख लिया जाये तो यह तथ्य स्पष्ट हो जायेगा। यह अलग बात है कि, अन्य ग्रामीण अंचलों में अगर गरीब अपनी जान के भय से किसी डाकू को खाना खिला देता है तो वह धारा 116 का अपराधी बन जाता है परन्तु अमूमन सभी कारपोरेट जो इन संगठनों को करोड़ों-करोड़ का चन्दा देते है उनकी फाइलें न कभी निकली है और न कभी निकलेंगी। क्योंकि वे जंगल में बंदूक चलाने वाले हाथों को फंडिंग करते है, केन्द्र तथा राज्यों की फंडिग करते है। केन्द्र और राज्यों की पुलिस के हाथों में बंदूक देकर चलवाने वालों की फंडिंग करते है। मरने वाले भी वही, मरवाने वाले भी वही, और प्रचारित करवाने वाले भी वही। यह खेल लगातार जारी है नक्सलवादी या माओवादी न विकास चाहते है और न सरकारें आदिवासी के साथ विकास या न्याय चाहती है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण नगरी सहावा का डॉ. लोहिया के द्वारा शुरू किया गया आँदोलन व सरकार की भूमिका है। जहाँ 1987 के लिखित समझौते और सितम्बर 2009 के वन भूमि अधिकार नियम के लागू होने के बाद भी उन 5 गाँवों के आदिवासियों को जमीन का अधिकार पत्र नहीं दिया गया। जिस समस्या के बारे में अभी तक के सभी मुख्यमंत्री जानते और मानते है कि यह लोग 50 के दशक से वन भूमि पर काबिज रहे है और इन्हें 1985-86 में नये वन अधिनियम के आधार पर हटाया गया था। अगर सरकारें हिंसा को मिटाकर अहिंसा को चाहती तो वे नगरी सहावा के आंदोलन के लिये जो 70 वर्षी से अहिंसक ढंग से चल रहा है देश और दुनिया में एक अहिंसा के प्रतीक के रूप में प्रचारित और प्रतिष्ठित करती। हमारे देश के एन.जी.ओ. के नाम पर चलने वाले देशी-विदेशी फंडिंग के संगठन भी इस आंदोलन की चर्चा नहीं करते वह कभी शाहीन बाग के 2-3 माह के आंदोलन के लिये अहिंसा का पर्याय बतायेंगे, कभी अन्ना हजारे के 20 दिन के अभियान के लिये और कभी अन्य ऐसी ही घटनाओं के लिये। क्योंकि उनके भी दानदाता मालिक सभी एक है। 
    सच्चाई तो यह है कि, जो माओवादी या पुराने नक्सलवादी ये सभी राज्य सत्ता को बंदूक की ताकत से हथियाना चाहते हैं। इनका विश्वास, माओ की उक्ति में है“ सत्ता बंदूक की नली से निकलती है“। विकास की बात या कारपोरेट का विरोध तो मात्र दिखावा है। वरन कटु सत्य यह है कि, वनांचलों में इन हिंसक संगठनों के प्रवेश के बाद वहां, राजनैतिक रूप से, भा.ज.पा. मजबूत हुई है। पहले इन्हांने समाजवादियों के लोकतांत्रिक परिवर्तन के द्वार बंद किये और फिर अब कांग्रेस के। वार्ता तो इनके लिये जन युद्ध का अस्थाई युद्ध विराम है ताकि इस अवधि में वह अपने आपको फिर शस्त्र आदि से लेंस कर सकें। 
मैं कोई सुझाव यहां नहीं दे रहा हू क्योंकि बगैर मांगे सुझाव देना सरकारों को औचित्यहीन होता है।  
(लेखक-रघु ठाकुर)

Related Posts