सीआरपीएफ जवान राकेश्वर सिंह का बंधक संकट खत्म तो हुआ है लेकिन इस पूरी घटना ने देश के नक्सल संकट को फिर सामने रखा है । नक्सलियों ने जिस तरह सुरक्षाबलों पर यू शेप में घेरकर हमला किया था, वो बेहद दुस्साहसपूर्ण था । 3 अप्रैल को सुरक्षाबल और नक्सलियों की मुठभेड़ में बंधक बनाए गए सीआरपीएफ के कोबरा कमांडो राकेश्वर सिंह मन्हास को नक्सलियों ने छोड़ दिया । बीजापुर में नक्सलियों और सुरक्षा जवानों के बीच हुई मुठभेड़ के बाद बंधक बनाए गए कोबरा के जवान राकेश्वर सिंह मनहास को आखिर रिहा कर दिया गया । राकेश्वर सिंह को नक्सलियों ने बीजापुर हमले के बाद बंधक बना लिया था । आखिरकार लंबे समय के बाद जवान को गुरुवार शाम को वापस भेजा गया ।
गौरतलब है 3 अ्रपैल को सुकमा व बीजापुर के सरहर्दी इलाका जोनागुड़ा में नक्सलियों के बीच मुठभेड़ हुई। जिसमें 22 जवान शहीद हुए ठीक दूसरे दिन 4 अप्रैल को नक्सलियों ने कोबरा जवान राकेश्वर सिंह को अगवा कर लिया। उसके बाद लगातार नक्सलियों से संर्पक पत्रकारों ने किया तो 5 अप्रैल को नक्सलियों ने पत्रकारों से संर्पक कर जवान को कब्जे में होने की बात कही। जिसके बाद 6 अप्रैल की शाम को नक्सलियों ने एक प्रेसनोट जारी किया जिसमें नक्सलियों के मध्यस्ता टीम की शर्त रखी। जिसके बाद मध्यस्ता टीम में बस्तर के पदमश्री धर्मपाल सैनी व गोड़वाना समाज के अध्यक्ष तेलम बोरैया को 7 अप्रैल की शाम को बीजापुर से तरेम के लिए रवाना किया गया।
बताया जाता है की 8 अप्रैल को मध्यस्ता की टीम जोनागुड़ा के लिए रवाना हुई। जहां नक्सलियों ने वहां से करीब 15 किमी दूर ले गई जहां पर नक्सलियों ने जनअदाल लगाई थी जिसमें आसपास के करीब 20 गांवों के सैकड़ो ग्रामीण मौजूद थे। वहां पर टीम का स्वागत किया गया और खाना खिलाया गया। उसके बाद नक्सलियों ने सभी का परिचय कराया और बिना शर्त के मध्सस्थथर्मपाल सैनी को सौप दिया गया। उसके बाद मध्यस्थता करने वाली टीम मोटरसाइकिल पर करीब 40 किमी. का सफर तय कर तरेम कैप पहुंची। जहां उसे सीआरपीएफ के डीआईजी कौमल सिंह को सौप दिया गया।अक्सर नक्सली जनअदाल में ग्रामीणों के समक्ष आरोप लगाते हैं। लेकिन इस बार नक्सलियों ने अगवा जवान राकेश्वर सिंह पर कोई भी आरोप नहीं लगाया। बल्कि ग्रामीणों के सामने जवान का परिचय दिया और मध्यस्त टीम को सौप दिया गया। लेकिन ऐसा पहली बार हुआ है। क्योंकि इससे पहले जब भी नक्सली जन अदालत लगाते है तो कोई ना कोई आरोप जरूर लगाते है उसके बाद उसको या तो रिहा करते हैं या फिर सजा देते हैं।
यदि हम इस प्रकार की पुरानी घटनाओं को याद करें तो नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ और ओडिशा में कलैक्टरों का अपहरण कर अपनी मांगें मनवा कर उन्हें रिहा किया था। अब सवाल उठता है कि 22 जवानों की जान लेने वाले नक्सलवादियों ने राकेश्वर को रिहा क्यों किया? ऐसा करके क्या नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ सरकार के सामने चुनौती दी है या फिर वार्ता का संदेश दिया है। हो सकता है कि उन्हें डर था कि मोदी सरकार और छत्तीसगढ़ सरकार उन्हें छोड़ने वाली नहीं। उन्हें डर था कि सरकार उन पर बड़ी स्ट्राइक कर देगी और इसमें वे स्थानीय लोगों के साथ अपने कैडर का भरोसा भी खो देंगे। राकेश्वर सिंह की रिहाई के लिए पद्मश्री धर्मपाल सैनी समेत सामाजिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों ने अहम भूमिका निभाई वे धन्यवाद के पात्र हैं ।
इसमें कोई संदेह नहीं कि सरकार और सीआरपीएफ 22 जवानों की मौत का हिसाब जरूर लेगी। नक्सलियों के लिए अफसरों का अपहरण कर फिरौती वसूलना नई बात नहीं। नक्सली ऐसा करते रहते हैं, साथ ही वे इस बात का ध्यान रखते हैं कि कहीं वे स्थानीय लोगों की सहानुभूति न खो दें। एक अनुमान के अनुसार छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, बिहार, झारखंड, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, आंध्र आदि दस राज्यों में 30 हजार के करीब सशस्त्र नक्सली हैं, जिनका नियमित कैडर कम से कम 50 हजार लोग हैं। नक्सली लगातार जवानों का खून बहा रहे हैं, फिर भी कहते हैं कि जवानों से उनकी कोई दुश्मनी नहीं, उनका विरोध तो सरकार की नीतियों के खिलाफ है। नक्सली लोगों से टैक्स वसूलते हैं, तथाकथित वर्ग शत्रुओं का सफाया करते हैं और अपनी जन अदालतें लगाकर तथाकथित न्याय करते हैं। जंगल वार-फेयर में उनका वर्चस्व है। कई बार जेलों पर हमला करके अपने साथियों को छुड़ा कर ले गए। इनके पास अत्याधुनिक हथियार भी आ जाते हैं। भारत ने बहुत प्रगति की है लेकिन सच यह भी है कि अार्थिक विकास का लाभ गरीबों और आदिवासियों तक नहीं पहुंचा। गरीबी और बेरोजगारी बढ़ी है, जल, जंगल, जमीन के मुद्दे चर्चा में हैं। आदिवासियों को उनके इलाकों से बेदखल किया गया। बड़ी-बड़ी कम्पनियां जमीन से खनिज सम्पदा निकालने में जुटी हुई हैं।
नक्सलवादियों में अधिकतर गरीब आदिवासी लोग ही हैं, इनमें से मुट्ठी भर लोग देश विरोधी हो सकते हैं। गृहमंत्री अमित शाह स्पष्ट रूप से चेतावनी दे चुके हैं कि हथियार छोड़ने वालों का स्वागत है लेकिन नक्सलियों के खिलाफ लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाया जाएगा। शहरों में रहने वाले बुद्धिजीवी, प्रोफैसर, साहित्यकार भी नक्सलवादियों का समर्थन करते हैं। कुछ दशक पहले तक नक्सली पुलिसकर्मी या सुरक्षा बलों की हत्याएं नहीं करते थे, लेकिन अब यह सारे हमले नृशंसतापूर्वक करते हैं साथ ही शवों के साथ भी बर्बरता करना भी नहीं छोड़ते। इन रक्त पिपासुओं को चीन, पाकिस्तान जैसे देशों से हथियार भी मिलते हैं और पैसे भी। इन नक्सलियों का उद्देश्य ही हत्याएं करना हो तो फिर हमारे देश के बुद्धिजीवियों का समर्थन मिलना आश्चर्यजनक है। इतनी हिंसा और नृशंसता करने वालों को क्या यह देश स्वीकार कर सकता है, क्या इन्हें देशद्रोही नहीं समझा जाना चाहिए। विडम्बना यह है कि जब देशद्रोहियों का सफाया करने के लिए पुलिस, अर्द्धसैनिक बल एक्शन करते हैं तो इन्हें ‘होली काउ’ कहा जाने लगता है। नक्सलवाद कोई विचारधारा नहीं बल्कि आपराधिक मनोवृत्ति वाले लोगों का संगठित गिरोह है।अब वक्त आ चुका है कि सुरक्षा बल एक बार फिर समन्वित रणनीति बनाकर नक्सलवाद को जड़ से खत्म करने के लिए अंतिम प्रहार करे। जो लोग राष्ट्र की मुख्यधारा में लौटने को तैयार हैं, उनके पुनर्वास की व्यवस्था हो लेकिन हत्यारों को यह राष्ट्र कभी माफ नहीं कर सकता। हमारा एक-एक कोबरा कमांडर देश के लिए बहुत कीमती है, उनकी जान लेने वालों को दंड भुगतना ही होगा। देश के लोगों को विश्वास है की यदि मोदी और शाह है तो सब मुमकीन हैं ।
(लेखक-अशोक भाटिया)