कोरोना महामारी दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है, पिछले वर्ष जब इस महामारी की शुरूआत हुई थी तब अधिकांश मरने वाले, बुजुर्ग उम्र दराज और अनेक बीमारियों से ग्रस्त लोग थे, परन्तु इस बार महामारी का हमला बुजुर्गाें पर कम जवानों पर ज्यादा हो रहा है। बहुत संभव है कि, इसका कारण बुजुर्गाें ने पिछले अनुभवों से सीख कर सावधानियां ज्यादा बरती हों परंतु युवाओं ने जोश में होश खो दिया। युवाओ ने न सावधानियां बरती और अधिकांश ने मास्क न पहनने को बहादुरी मानी और छोटे-मोटे संकेतों को ध्यान नहीं दिया।
आलोचना करना व्यक्ति का अधिकार भी है, और लोकतंत्र में आवश्यक भी। परन्तु इस महामारी के दौर में इस समय आवश्यकता सुझाव, सहयोग और समर्थन की ज्यादा है। इसमें कोई दो मत नहीं है कि महामारी इस तरह भारी होगी, उसका आंकलन सरकार नहीं कर सकी और फरवरी माह तक जो स्थितियां थी उनमें यह स्वाभाविक था। यह भी सही है कि, सरकार ने वैश्विक सूचनाओं की, चुनाव व कुंभ के लिये उपेक्षा की, जिनसे स्थितियां भयावह हुई। ईमानदारी से मुझे स्वीकार करना होगा की फरवरी में वैक्सीनेशन शुरू होने के बाद और मीडिया से प्राप्त समाचार के अनुसार में और मेरे जैसे बहुत से लोग यह मानने लगे थे कि महामारी का दौर बीत चुका है, कुछ विदेशी मीडिया और संस्थाओं की ओर से यह सूचनायें जरूर आ रही थी की कोरोना वायरस अब स्टेन-2 के रूप में दुगुनी ताकत के साथ वापस आ रहा है।
इन समाचारों पर या सूचनाओं पर देश में आम तौर पर एकदम कोई राय नहीं बन पाती। हालांकि सरकारों को अवश्य ऐसी सूचनाओं के प्रति सतर्क होना चाहिये और अपने वैज्ञानिक स्त्रोतों के माध्यम से परीक्षण और पुष्टि करना चाहिये। यह भी एक तथ्य है कि ऐसी सूचनाओं को जारी करने वाले अमेरिका और यूरोप के देश भी अपने आपको बावजूद सारी संपन्नता तकनीकी ज्ञान, शोध विशेषज्ञता के बचा नहीं पा रहे है। यूरोप के देशों में भी स्थितियां लगभग ऐसी ही भयावह है, जैसी भारत और ऐशियाई देशों में हैं। और कुल मिलाकर देश और दुनिया को उन्हीं पुराने अनुभवों और साधनों पर निर्भर रहना पड़ रहा है, जो 2020 के महामारी काल में प्रयोग में लाये गये थे। मसलन लाॅकडाऊन जिसे अब भारत में कोरोना कफ्र्यू कहा जा रहा है, परस्पर दूरी, आइसोलेशन, कोरेनटाइन, विटामिन-सी, और डी, तथा प्रोटीन का पर्याप्त मात्रा में लेना ताकि शरीर की प्रतिरोधात्मक क्षमता बढ़ सके। पिछले वर्ष वाले प्रयोग थोड़े से घट बड़ के साथ अभी भी प्रयोग में लाने के सुझाव चिकित्सा संस्थानों की ओर से दिये जा रहे है।
एक इन्जेक्शन रेमेडिसिविर जरूर ज्यादा चर्चा में आया है और इसकी माँग भी बहुत बढ़ी है। परन्तु यह कोई नई खोज नहीं है, बल्कि पुरानी खोज को ही लंबे अरसे के बाद व्यापक रूप में प्रयोग किया जा रहा है। दरअसल यह इंजेक्शन व्यक्ति की प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है, और प्रतिरोधक क्षमता बढ़ने से इंसान कोरोना वायरस को परास्त करने में शक्ति पाता है। बड़े पैमाने पर माँग बढ़ने पर सरकार को इसमें उत्पादन की वृद्धि में लिये कई कदम उठाना पड़े। जिससे कंपनियों को अपनी क्षमता भर उत्पादन बढ़ाने की अनुमति, विदेशों को निर्यात पर रोक, काला बाजारी और मिलावट रोकने के लिये केन्द्रीकृत वितरण प्रणाली आदि। लगभग यही स्थिति आक्सीजन स्लेंडर, और वैन्टीलेटर आदि के मामलों की भी है, कोरोना से जिनके फेंफड़े ज्यादा संक्रमित हुये हैं, उन्हें फौरी तौर पर आक्सीजन ही सबसे बड़ा सहारा देता है। निसंदेह आक्सीजन की माँग बहुत बड़ी है, देश में कुछ राजनैतिक नेताओं ने वैक्सीन के निर्यात और रेमीडिसिविर इंजेक्शन के निर्यात की आलोचना की है। यह उनका अधिकार भी है, परन्तु मैं यह मानता हूॅ कि, अगर अपनी जरूरतों के अलावा संभव हो और उपलब्धता हो तो इनका निर्यात उन पीड़ित और जरूरतमंद दुनिया के लोगांें को होना चाहिये जो अपने जीवन को बचाने के लिये इन पर निर्भर हैं। मानवता की विखंडित सीमा बहुत तार्किक नहीं है और जब व्यवहारिक तौर पर यह महसूस हुआ कि जब हमारी अपने देश की आवश्यकता बहुत बढ़ गई है, तब निर्यात पर रोक लगाना विलंबित कदम तो है पर जरूरी था।
वैक्सिनेशन के क्रम में तो फर्क हो सकता है, और अलग-अलग राय हो सकती है। जैसे अगर वैक्सीन की प्रमाणिकता के बाद प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों ने नामधारी नेताओं ने पहले चरण में कोरोना वाॅरियर्स के साथ वैक्सीन लगवा ली होती तो लोगों के मन में भय पैदा नहीं होता तथा, वैक्सीन की प्रक्रिया ज्यादा सफल होती। हमारे देश में मीडिया की भूमिका बहुत ही संकीर्ण और स्वार्थपरक ह,ै तथा मर्यादा विहीन आलोचना का दौर है। अगर सŸााधीशों और नेताओं ने पहले वैक्सीन लगवाई होती तो यही मीडिया जो लोगों के गम में वैक्सीन के प्रति भय पैदा कर रहा था शायद यह प्रचार करता कि देखों बड़े लोगांे ने खुद तो लगवा ली और गरीबों को छोड़ दिया। जैसा की अभी रूस के राष्ट्रपति श्री पुतिन और उनकी बेटी के वैक्सीन लगवाने को लेकर आलोचना हो रही हैं। फिर भी मेरी राय में प्रथम और दूसरे चरण में वैक्सीन लगवाने में जो लोगों के मन में भय और शिथिलता पैदा हुई थी वह कम होती और बड़ी संख्या में लोग वैक्सीन लगवाने को आते। तब, उसकी पूर्ति को भी पर्याप्त समय मिल जाता। तो जो वैक्सीन कम लोगों के आने के कारण बरबाद हुई वह भी नहीं होती।
इस समय मौतों की संख्या बड़ी है और इसमें भी मीडिया का एक हिस्सा तथ्यों को अप्रमाणित ढंग से प्रस्तुत कर रहा है। एक अखबार में खबर छपी की भोपाल शहर में 121 लोग कोरोना मौत के शिकार हुये और सरकार के अनुसार केवल 4-5 लोग कोरोना के कारण मृत बताये गये याने सरकार कोरोना की मौतें छिपा रही है। इस खबर पर सरकार की ओर से कोई खंडन नहीं आया है, और ना ही पुष्टि की गई। वैसे तो आम तौर पर लोग स्वतः भी अपने परिजन की मौत को कोरेाना मौत कहने से डरते है, और छिपाते हैं। एक वजह यह भी हो सकती है कि, जो लोग बीमार होकर अस्पतालों में भर्ती होते हैं उनके टेस्ट रिपोर्ट आते-आते 4-5 दिन लग जाते हैं, और इस बीच उनकी मौत हो जाये तो वह तकनीकी रूप से कोरोना की मौत नहीं है। परन्तु आम लोगों की नज़रों में ऐसी हर मौत कोरेाना मौत होती है। इससे आम लोगों में भय का फैलाव हो रहा है, रेमेडिसिविर इंजेक्शन की इतनी ज्यादा माँग बढ़ी की वह 30-40 हज़ार में ब्लेक में जबकि उसकी कीमत मात्र 1600/- रूपये थी बिकने लगा। हालांकि बाद में भारत सरकार ने कुछ नियंत्रित करने के कदम उठाये हैं पर वह अपर्याप्त हैं। मेरे एक जिम्मेदार मित्र ने जानकारी दी कि रेमेडीसिविर, तोशी वेराफिन आदि इजेक्शनों की गुजरात के अहमदाबाद शहर में सुबह से बाजार बोली शुरू होती है, जिन्हें खरीदना हैं, उसने दाम पर खरीदे। याने काला बाजारी सरेआम सरकार की नाक के नीचे हो रही है। और सरकार मूक दर्शक बनी है। इन कम्पनियांे पर सरकार को तत्काल नियंत्रक बिठाकर इनके उत्पादन बढ़ाने व शासन द्वारा निर्धारित दरों पर बिक्री व राज्यवार वितरण की व्यवस्था करना चाहिये।
यह बहुत ही शर्मनाक है कि दवा कंपनियों के लोग व बिचैलिये, मानव की मौत को भी बेच रहे हैं। क्या यह मामूली अपराध है? क्या यह इंसान का जानवर से भी बद्तर होना नहीं है। यह समाज को ही सोचना होगा।
तंत्र की स्थिति यह है कि भोपाल में 850 रेमेडिसिविर इंजेक्शन आये थे उन्हें सरकारी मेडीकल काॅलेज हमीदिया में रखा गया था। इन इंजेक्शन के चोरी होने का समाचार अखबारों में आया। फिर यह खबर भी आई की चोरों ने खिड़की की जाली काटकर इंजेक्शन चुराये हैं और इसके लिये 3 कर्मचारी और 1 डाॅक्टर के खिलाफ कार्यवाही हुई। राज्य सरकार ने अधीक्षक को भी हटा दिया। फिर खबर आई के 1 इंजेक्शन दिल्ली में बिका है और घटना के 8-10 दिन के बाद खबरे आ रही है, कि इंजेक्शन चोरी नहीं हुये थे। जांच पड़ताल और स्टाक मिलानो में गड़बड़ हुई थी आदि-आदि। क्या यह खबरंे विश्वसनीय है? वही पुलिस जो 10 दिन पहले स्टोर रूम की जाली काटकर चोरी की खबरे बताती है वही पुलिस बाद में इंजेक्शन पा लेती है। अपुष्ट जन भावना यह है कि इंजेक्शन चोरी नहीं हुये थे बल्कि सŸााधीशों और बड़े अफसरों ने मंगा-मंगा कर अपने घरों में रख लिये थे तथा अधीक्षक को लाचार होकर इंजेक्शन चोरी हुये कहना पड़ा। क्योंकि इनका आवंटन भारत सरकार के नियमों के अनुसार नहीं हुआ था। अगर चोरी नहीं हुई थी तो पुलिस के वे बड़े अधिकारी इस काल्पनिक षड़यंत्र के लिये जिम्मेवार हैं, जिन्होंने इन्हें चोरी बताया था और अगर अवैध आवंटन हुआ था तो यह तो चोरी से भी बड़ा अपराध है। तो उसके लिये जिम्मेवार इंजेक्शन देने वाला और लेने वाला दोनों दोषी हैं। बल्कि देने वाला कम क्योंकि वह माध्यम भर है, लेने वाला ज्यादा क्योंकि वह ताकतवर है। उनके ऊपर कार्यवाही होना चाहिये पर चूँकि मामला बड़े लोगों का है इसलिये ठंडे बस्ते में जा चुका है।
कोरोना से सबसे ज्यादा जान बूझकर और जान को जोखिम में डालकर लड़ने का काम चिकित्साकर्मी, पुलिसकर्मी, प्रशासन के कानून व्यवस्था के लोग और मरघटों शमशानों पर काम करने वाले लोग कर रहे है। डाॅक्टर जानते है कि संक्रमण की बीमारी है इसके बाद भी सुबह से शाम तक और कभी-कभी बिना खाये-पिये काम कर रहे हैं। निजी अस्पतालों चिकित्सकों के लिये भले ही कोरोना काल लूट की छूट का माल हो, परन्तु सरकारी डाॅक्टरों में तो अपवाद भले हों, अधिकांश डाॅक्टर दिन रात काम कर रहे हैं। पुलिस लोगों को निकलने से रोकने के लिये 40 डिग्री तापमान में दिन भर धूप में खड़ी है। चिकित्सा कर्मी, पुलिस और प्रशासन के अधिकारी यहां तक कि कलेक्टर तक संक्रमित हो रहे हैं और कई तो इस दौरान बीमारी से मर भी रहे हैं।
शमशान घाटों में काम करने वाल,े निगम में काम करने वाले कर्मचारी दिन रात दाह संस्कार का काम कर रहे हैं। यहां तक की जब कोरोना के भय से मृतकों के परिजन तक उन्हें मुखाग्नि नहीं दे रहे, उनके खून के रिश्ते वाले जिन्हेें उत्तराधिकार में सारी संपŸिा मिलना है वे तो दूर से ही विदा कर रहे हैं, और कर्मचारी पी.पी. किट में बंद होकर अपने कर्तव्य का निर्वाहन कर रहे हैं। दुख होता है जब इन कर्मचारियों, चिकित्सा कर्मियों, पुलिस और प्रशासन के लोगों पर झूठे आरोपों और अफवाहों की बौछार निहित स्वार्थाें द्वारा की जाती है। मीडिया और शासन मीडिया के माध्यम से फैलाई जा रही असत्य खबरों के आधार पर उन्हें अपमानित व लांछित करते है, जो सही मायने में पुरूस्कार और प्रशंसा के हकदार है। यहां तक कि उन्हें निंदा और दण्ड का पात्र बनाया जाता हैं। आज मैं समाज के सभी प्रबुद्ध और संवदनशील लोगों से अपील करूॅगा की यह समय इन चिकित्साकर्मी, निगम कर्मियों पुलिस प्रशासन के कर्मचारियों और अधिकारियों को प्रोत्साहित करने का है ना कि आरोपित करने का। अपवाद हो सकते हैं जो अपराधी हो परंतु अधिकांश तो अपराधी नहीं है, वे भी इंसान हैं। उनके भी परिवार हैं, उनकी तकलीफ को भी समाज को व शासन को समझना होगा।
मैं प्रधानमंत्री जी, मुख्यमंत्री जी से अवश्य अपील करूॅगा की वे चिकित्सा, नगर पालिकाओं, प्रशासन के कर्मचारियों को अवकाश, राहत और इलाज के लिये समय दिलाने हेतु फौरी तौर पर संविदा नियुक्तियों कि प्रक्रिया अपनायें ताकि कम से कम लगातार काम करने वाले इन कोरोना वारियर्स को राहत मिल सके और - अभाव की पूर्ति हो सके। इसके साथ ही टेस्ट वैक्सिनेशन और रेमेडिसिविर इंजेक्शन के दायरे का विस्तार करें। इसके वितरण और प्रयोग के दायरे का विस्तार करें। ताकि शीद्य्र ही देश और प्रदेश कोरोना महामारी और संभावित आशंकाओं से मुक्त हो सके। नये अस्पतालों के बनने में वक्त लगेगा। अभी तो वर्तमान को ही सुव्यवस्थित, अधिकतम क्षमता वाला और प्रभावी बनाने पर ध्यान व जोर देना होगा।
(लेखक- रघु ठाकुर)
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कोरोना महामारी और समाज का दायित्व