हालिया संपन्न विधानसभा चुनावों के परिणाम आशातित आए, सिवाए पश्चिम बंगाल को छोड़कर। यहां हरदम उहापोह की स्थिति बनी हुई थी लेकिन अंतत: तृणमूल को भारी बहुमत मिला। यह वाकई में तृणमूल के कार्यकर्ताओं की जीत है। जिसके लिए वे बधाई के हकदार है। इस जीत में बराबरी का साथ मिला दशकों से यहां राज करने वाली वामपंथी और कांग्रें\कांग्रेस पार्टी का। जिन्होंने भारतीय जनता पार्टी को हराने के लिए अपने वजूद को ही दाव पर लगा दिया। नतीजा हुआ भी ऐसा की इनको हासिल का शून्य मिला। फिर भी यह इस बात से खुश है कि हमनें अपने आप को मिटाकर भाजपा को जीतने से रोक दिया। इसे कहते है अपने घर में आग लगाकर तमाशा देखना। तमाशबीन इन दलों के नेता बेगानी शादी में अब्दुला दीवाना की भांति खुशियों का ईजहार कर रहे है। अच्छा है इन्हें कहीं ना कहीं शांति तो मिली। यदि ये दल अपने लिए लड़ लिए होते तो आज परिणाम विपरित होते है, क्योंकि 80 से 90 सीटों में हार-जीत का अंतर महज 3 से 4 हजार के बीच है। चलिए, यह तो राजनीति है जहां हार-जीत तो लगी रहती है। कोई बड़ी बात नहीं।
दरअसल, यह चुनाव भाजपा बनाम सब हो गया। सभी दलों ने ठानकर रखा था कि चाहे कुछ भी हो जाए भाजपा नहीं जीतना चाहिए। बिल्कुल हुआ भी ऐसा ही। भाजपा से तृणमूल जीती, नाकि ममता बनर्जी। वह तो जनता से हार गई। नंदीग्राम के संग्राम में सुबेन्दु अधिकारी को जीता कर जनता ने ममता बनर्जी को सिरे नकार दिया। वह इतनी ही लोकप्रिय थी तो खुद को क्यों नहीं जीता पाई? वहां की जनता यह सब जानती है। इतने पर भी दिल नहीं भरा तो दीदी ने हार का ठीकर चुनाव आयोग के सिर फोंड़ दिया। चुनाव आयोग को ऐसा ही करना था तो सिर्फ नंदीग्राम ही नहीं पूरे बंगाल में हरा देता। बाकि जगह जीत नंदीग्राम में षडयंत्र यह कहना ठीक नहीं है दीदी। जनमत को स्वीकारों, इसी में जनतंत्र की भलाई है। वह तो उपजे हालातों और समीकरणों के बदौलत अब सत्तासीन होगी। जनता की पसंद से नहीं बल्कि आंकड़ों के बल पर। जिसकी ही सर्वमान्यता है, जिसके लिए आप को मुबारक बात।
बहरहाल, पश्चिम बंगाल के चुनाव से यह बिल्कुल साफ हो गया कि भाजपा से तृणमूल जीती है। उस भाजपा से जो यहां के राजनैतिक परिदृश्य में कुछ साल पहले तक गुमनाम थी। वह आज इस प्रांत की हारने, जीतने वाली पार्टियों में शुमार होकर सूबे की दूसरी बडी पार्टी बन गई। इसमें वहां के भाजपा कार्यकर्ताओं का बहुत बडा समर्पण है। जिन्होंने सत्तारूढ दल के रक्तरंजिश राजनैतिक दौर में अपने प्राणों की आहुति देकर अपने दल को इस मुकाम तक पहुंचाया की वह अब प्रांत का प्रमुख हिस्सा बन गई। लिहाजा, अपने लिए सूनसपाट जमीन पर भाजपा 3 से 80 तक पहुंच गई। यह भी अपने आप में बहुत बडी बात है कि चारोंखुट राजनीतिक विरोध के बावजूद भाजपा के इतने अधिक विधायक जीत गए। और दल ने मुख्य प्रतिपक्ष का रूतबा हासिल कर लिया। जहां कभी भाजपा का नाम लेना वाला तक नहीं था। वहां आज भाजपा घर-घर तक पहुंच गई।
वीभत्स, बहुमत का माखौल उडाते हुए तृणमूल कार्यकर्ता जीत के उन्माद तथा बदले की नियति से अब भी भाजपा कार्यकर्ताओं के साथ खूनी खेल रहे है। उनके घर और दुकानें जला रहे है, धमकी देकर बर्बरता की हद पार कर रहे है। बजाए कार्रवाई करने के वहां का प्रशासन बेसुध बैठा हुआ है। और तो और प्रदेश की मुखिया भी इन्हें सह देने में कोई कोर कसर नहीं छोड रही है। ऐसी वारदातें स्वस्थ लोकतंत्र के वास्ते हरगिज भी मुनासिब नहीं है। भलीमत तो इसी में है कि जनमत का सम्मान करते हुए हिंसा व वैमनस्ता की राजनीति छोड़कर कोरोना पर आक्रमण, जनकल्याण और प्रदेश के विकास में नवनिर्वाचित सरकार अपना ध्यान लगाएं। अन्यथा जैसे आए हो वैसे ही चले जाने में देर नहीं लगेंगी। ऐसा करिश्मा पश्चिम बंगाल की वीर भूमि ने करके दिखाया है। फलीभूत आप सत्ता में आए थे। ये जनता सब जानती है, क्योंकि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती। खतरे की घंटी ने इसी बार आहट दे थी वह तो गनीमत है तथाकथित कारणों से बजी नहीं। अलबत्ता, हालात ऐसे अराजक और तुष्टीकरण के रहे तो गणतंत्र एक दिन जरूर सबक सीखाएंगा।
(लेखक- हेमेन्द्र क्षीरसागर)
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जनता से हारी ममता, भाजपा से जीती तृणमूल