वैसे तो हर माह में दो तृतीया होती है- एक कृष्ण पक्ष की तथा दूसरी शुक्ल पक्ष की। इन सभी में हरतालिका तीज, कजरी तीज (सातुड़ी तीज), आखा तीज (अक्षय तृतीया) तथा गणगौर तीज। हमारी सनातन संस्कृति में इन सभी प्रमुख तृतीया का विशेष महत्व प्रतिपादित किया गया है। हरतालिका तीज के दिन सुहागिन महिलाएँ तथा अविवाहित कन्याएँ बालू रेत के शिव पार्वती बनाकर पूजन करती हैं और रात में जागरण पूजन करती हैं। कजरी तीज (सातुड़ी तीज) भी सुहागिन महिलाओं का तथा कन्याओं का व्रत है। सत्तू के लड्डू का भोग लगाया जाता है और नीमड़ी का पूजन करते हैं। गणगौर तीज का उत्सव सोलह दिन तक मनाया जाता है। महिलाएँ तथा कन्याएँ सिर पर कलश रखकर फूलपाती लाती है। दो कन्याओं को वर-वधू का स्वरूप देकर चल समारोह निकालते हैं। किसी बगीचे में चल समारोह पूजन के साथ विसर्जित होता है। यह प्रमुख रूप से मालवा, नेमाड़, राजस्थान तथा गुजरात में मनाया जाता है।
आखा तीज (अक्षय तृतीया) यह दान पुण्य का दिन है। श्रद्धालु पवित्र नदियों में स्नान करते हैं। यदि यह संभव न हो तो घर में ही स्नान के पानी में गंगाजल डाल कर स्नान किया जाता है। इस दिन भगवान विष्णु का पूजन किया जाता है जिसमें विशेष रूप से श्वेत पुष्पों का उपयोग किया जाता है। श्री विष्णु पूजन में अक्षत का उपयोग आवश्यक है। पूजन के पश्चात ब्राह्मण को सत्तू का दान दिया जाता मत्स्य पुराण अध्याय ६५ में कहा गया है-
विप्रेषु दत्वा तानेव तथा सक्तून सुस्कृतान्।
यथात्रभुङ् महाभाग फलम् क्षय्यमश्रूयते।।
यदि इस तृतीया का राजसूय यज्ञ का फल प्राप्त करना हो तो-
तृतीयां समभ्यर्च सोपवासो जनार्दनम्।
राजसूय फलं प्राप्य गतिमभ्य्रा च विन्दति।।
मत्स्य पुराण अध्याय ६५
विधिपूर्वक पूजन करने से उस व्यक्ति की संतान अक्षय रहती है और इस दिन दिया गया दान भी अक्षय रहता है-
अक्षया संतति तस्य तस्यां सुकृतमक्षयम्।
अक्षतै पूज्यते विष्णुस्तेन साक्षया स्मृता।
अक्षतै स्तु नरा: स्नाता विर्ष्णोदत्वा तथाक्षताम्।
मत्स्य पु.अ. ६५
अक्षय तृतीया के दिन दिया गया दान अक्षय होता है। इस दिन देवताओं के साथ पितृओं की स्मृति में भी दान दिया जाता है। मटकी में जल भर कर, कलेवा बाँधकर, उस पर स्वस्तिक बनाकर, ऊपर खरबूज, सत्तू, पंखा तथा दक्षिणा रखकर ब्राह्मण को दान दिया जाता है-
एव धर्मघटो दत्तो ब्रह्मविष्णु शिवात्मक:।
अस्य प्रदानात् तप्यन्त पितरोऽपि पितामहा:।
गन्धोदकतिलैर्मिश्रं सान्नकुम्भफलान्वितम्।
पितृभ्य: सम्प्रदास्मि अक्षय्यमुपतिष्ठतु।।
(धर्म सिन्धु)
अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव इन सभी का समावेश इस जल सहित कुम्भ में समाहित है। मैं ऐसे कलश का दान ब्राह्मण को करता हूँ। इस दान से देवतागण तथा पितृगण प्रसन्न हों। फल, गन्ध, जल, सत्तू आदि से युक्त यह कुम्भ मेरे लिए अक्षय हो।
अक्षय तृतीया इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि आज ही के दिन भगवान परशुराम जी का जन्म हुआ था। इसलिए इसी दिन परशुराम जयन्ती भी मनाई जाती है भारतवर्ष की पतितपावनी नदी गंगाजी भी आज के ही दिन स्वर्ग से पृथ्वी पर अवतरित हुई थी। ऐसा कहा जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण से मिलने उनके प्रिय मित्र सुदामा द्वारिका गए थे। भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें अक्षय दान दिया था, जिससे सुदामा अनभिज्ञ थे। यह भी मान्यता है कि त्रेता युग का प्रारंभ भी अक्षय तृतीया से ही हुआ था।
अक्षय तृतीया का अबूझ मुहूर्त रहता है। इसलिए विवाह, उपनयन, गृह-प्रवेश आदि शुभ कार्य इसी दिन किए जाते हैं। राजस्थान में तीज के दिन वर्षा का शगुन निकाला जाता है। बालिकाएँ घर-घर जाकर शगुन गीत गाती हैं। तीज का पूजन सप्तधान्य से किया जाता है। मालवा क्षेत्र में भी अक्षय तृतीया का अत्यधिक महत्व है। जल से भरी मटकी, खरबूजा, सत्तू, पंखा, आम, वस्त्र दान आदि दिया जाता है। इस दान का अक्षय महत्व है।
जैन धर्म में भी अक्षय तृतीया का अत्यधिक महत्व है। वृषभ देव जी ने इसी दिन अपनी तपस्या पूर्ण कर गन्ने के रस का पान कर उपवास पूर्ण किया था।
प्राय: सभी समाज में अक्षय तृतीया के पावन अवसर पर सामूहिक विवाह एवं उपनयन संस्कार के आयोजन किए जाते हैं। महंगाई के बढ़ते हुए ग्राफ, फिजूलखर्ची और दहेज जैसी कुप्रथा पर अंकुश लगाने में यह एक स्तुत्य प्रयास है। सभी समाज के सक्रिय सदस्यों को अपने-अपने समाज में इस प्रथा को प्रोत्साहित करना चाहिए।
(लेखक-डॉ. शारदा मेहता)
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भारतीय संस्कृति में अक्षय तृतीया का महत्व