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(चिंतन-मनन) अकर्मण्य न बनें

(चिंतन-मनन) अकर्मण्य न बनें

एक कहानी है। एक राजा था। उसे मंत्री की नियुक्ति करनी थी। वह नियुक्ति से पूर्व परीक्षा करना चाहता था। पांच-सात व्यक्ति आए। उसने सबको एक कमरे में बिठाकर कहा, 'आप सब यहां बैठें। मैं कमरे के बाहर ताला लगा देता हूं। जो भी ताले को खोलकर बाहर निकल आएगा, उसे मंत्री बनाऊंगा।'  
सबने सुना-सोचा- 'कितनी विचित्र परीक्षा। दरवाजा बंद। बाहर से ताला बंद और भीतर वालों से कहे कि बाहर आओ। यह असंभव है।' छह व्यक्तियों ने सोचा, 'राजा पागल हो गया है। यह भी कोई परीक्षा होती है! दूसरे प्रकार से भी परीक्षा ली जा सकती थी। बाहर जाना कैसे संभव हो सकता है?' वे हाथ पर हाथ रख बैठे रहे। कुछ पराप्रम नहीं किया। सातवां व्यक्ति अकर्मण्य नहीं था, पुरूषार्थी था।  
उसने सोचा, 'जरूर इस शर्त में कोई रहस्य है। राजा ऍसी शर्त क्यों रखता? मुझे अपना पुरूषार्थ करना है। वह उठा। दरवाजे के पास गया। उसे जोर से ढकेला, वह खुल गया। उसने बाहर आकर राजा का अभिवादन किया। दरवाजे पर कोई ताला लगाया ही नहीं था, केवल सबको भुलावे में रखा था।  
राजा जानना चाहता था कि कौन कर्मण्य है और कौन अकर्मण्य। उन्होंने सोचा, 'जब बाहर ताला है तब दरवाजा कैसे खुलेगा?' इसी भ्रम ने उन्हें अकर्मण्य बना डाला। वे बाजी हार गए। जिसने पुरूषार्थ किया, कर्मण्यता का परिचय दिया, वह जीत गया। वह मंत्री बन गया।  साधना का क्षेत्र निर्विघ्न नहीं है। उसमें अनेक भुलावे हैं। उन भुलावों से साधक यदि अकर्मण्य बन साधना को भुला देता है तो साधना से भटक जाता है।  
 

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