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वक्त आत्मचिंतन का   क्या लोकप्रियता का भी ’संक्रमणकाल‘ चल रहा है? 

वक्त आत्मचिंतन का   क्या लोकप्रियता का भी ’संक्रमणकाल‘ चल रहा है? 

पिछले पन्द्रह महीनों से पूरा विश्व कोरोना वॉयरस के संक्रमण के दौर से गुजर रहा है, इस दौर ने अब तक भारत के करीब चार लाख लोगों को हमसे दूर कर दिया, किंतु धीरे-धीरे अब यह आमतौर पर महसूस किया जा रहा है कि यह संक्रमण का दौर सिर्फ मानवीय संक्रमण तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसने हमारे सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक रिश्तों पर भी काफी असर डाला है, अब यह सभी महसूस करने को मजबूर है कि इस संक्रमण काल ने हर किसी को न सिर्फ अलग-थलग अपने घरों में कैद कर दिया है, बल्कि यह संक्रमण हमारे बरसों पुराने रिश्तों को भी लील लिया है, कैसी विडम्बना है कि हम न तो अपनो की खुशी में शरीक हो पा रहे है और न ही गम में। न किसी की कोई सहायता कर पा रहे है और न किसी की सहायता ले पा रहे है, आखिर यह कैसा दौर है? और कब तक चलेगा?  
अब तो इस संक्रमण के दौर में हर जगह, हर स्तर पर इसकी समीक्षा भी की जाने लगी है, इस दौर में कोई भी खुश नहीं है, न अपनों से और न बैगानों से। देश का आम वोटर आज के राजनीतिक भाग्य विधाताओं (सत्ताधीशों) से खुश नहीं है, तो राजनेता इस काल की गंभीरता को नजर अंदाज कर अपनी राजनीति में व्यस्त है। प्रमुख प्रतिपक्षी दल कांग्रेस अपने अस्तित्व की रक्षा की चिंता में खोई है तो सत्तारूढ़ भाजपा संक्रमण की विभीषिकाओं को नजरअंदाज कर अपने विस्तार और बदले की राजनीति में खोई है, यद्यपि सत्ताधारी दल के इस आत्मघाती कदम का उनके अपने (जैसे संघ प्रमुख भागवत) ही विरोध कर रहे है, अन्तर्राष्ट्रीय सर्वेक्षण एजेन्सियां मोदी जी की लोकप्रियता में चौबीस फीसदी की गिरावट बता रही है, किंतु इसकी चिंता किसे है? मोदी जी की लोकप्रियता पिछले पन्द्रह महीनें पहले चौसठ प्रतिशत थी, जो पिछले एक साल में घटकर चालीस फीसदी पर आ गई है, सर्वेक्षण एजेंसियों का कहना है कि कोरोना काल में मोदी की सरकार को जो सख्त कदम उठाने चाहिए थे, वे नहीं उठाए गए, संसदीय समिति की सिफारिश के बावजूद कोरोना की वैक्सीन के उत्पादन व उसके भंडारण पर ध्यान  नहीं दिया गया और सरकार चुनावों में अपनी जीत के लक्ष्य पर डटी रही और इसके बाद भी उसे ”माया मिली न राम“। अर्थात्् न जीत प्राप्त हुई और न ही लोकप्रियता में बढ़त। उल्टे लोकप्रियता में और भारी कमी आ गई। सरकार की इसी उदासीनता के कारण देश की न्यायपालिका को कड़ा रूख अपनाना पड़ा और सरकार से कई तरह के जवाब तलब करने पड़े। 
अब हर कहीं एक ही सवाल का जवाब खोजा जा रहा है- ”क्या यह समय भाजपा व उसके शीर्ष नेतृत्व के लिए खतरे की घंटी है?“ और इस सवाल का माकूल जवाब राजनीति के किसी भी कोने से नहीं मिल रहा है, किंतु देशा के आम आदमी का इस सवाल जवाब ’स्वीकारोक्ति‘ में ही है।  
.....अच्छा फिर ऐसा कतई नहीं है कि सरकार या भाजपा के शीर्षस्थों को इसका आभास नहीं है, उन्हें इस बारे में पूरा ज्ञान है, तभी तो अब कुछ दिखावटी प्रयोग शुरू किए गए है? और प्रधानमंत्री सहित सभी दिग्गज दिखावे की देशव्यापी ”वर्च्यूअल“ बैठके कर रहे है? पर अब क्या फायदा? अब तो ”चिड़ियाँ चुग गई खेत“।  
(लेखक- ओमप्रकाश मेहता )

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