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प्रशासनिक अमला क्यों बन रहा अधीर? 

प्रशासनिक अमला क्यों बन रहा अधीर? 

देश कोरोना महामारी के भयाभय दौर से गुजर ही रहा है, इसी बीच कहीं ना कहीं अब प्रशासनिक अमला अपना मानसिक संतुलन खो रहा। या यूँ कहें वह मानसिक अवसाद का शिकार हो रहा। जो देश और समाज के लिए दोहरी समस्या को जन्म देने वाला है। सोचिए जिस प्रशासनिक अमले के ऊपर नियमों का पालन करवाने की जिम्मेदारी होती है अगर वही जिम्मेदार शख्सियत समाज के लोगों पर अपना रौब दिखाने लगे तो फिर क्या होगा? जी हां ऐसा ही कुछ मामला बीते दिनों देश के अलग-अलग हिस्सों से निकल कर आया है। जिसके बाद यह लग रहा है या तो प्रशासनिक अमले के लोग कोरोना महामारी में मानसिक रूप से कमजोर होते जा रहे हैं या तो जिम्मेदारियों की आड़ में अपने आप को शहंशाह समझ बैठे हैं। आइए चर्चा करते हैं बीते दिनों देश मे घटित ऐसी ही कुछ घटनाओं के बारे में। जो हमें यह बताएगी कि कैसे प्रशासनिक अमले के लोग समाज के प्रति अपने जिम्मेदारियों को लेकर असंवेदनशील हो रहे हैं।
पहली घटना त्रिपुरा की है जहां पर एक शादी समारोह के दौरान कलेक्टर साहब अपना आपा खो बैठते हैं और दूल्हे के परिवार के साथ मारपीट करते हैं। वहीं दूसरी घटना मध्य प्रदेश के खंडवा से है जहां पर कलेक्टर अनय द्विवेदी का एक ऑडियो वायरल हो रहा है जिसमें वह पत्रकार को ही धमकाते नजर आते हैं। अब सोचिए जो पत्रकार समाज के लिए चौथे स्तंभ का काम करता है। कोरोना काल में अपने जान की बाजी लगाकर समाज को सच्चाई से रूबरू कराने के लिए दिनरात लगा हुआ है। उसके साथ दुर्व्यवहार? विडम्बना देखिए जो पत्रकार कोविड वार्ड से लेकर श्मशान घाट तक जा रहा, ताकि सही तथ्य कोरोना काल मे भी देश के सामने आ सकें। उसे अधिकतर राज्यों ने तो फ्रंटलाइन वर्कर का दर्जा भी नही दिया है। ऊपर से अफ़सरशाही का रौब झेले देश का पत्रकार। यह तो न्यायोचित नहीं? ऐसे में अगर कोई प्रशासनिक अधिकारी पत्रकारों को डराते धमकाते है तो यह एक सुचारू रूप से चल रही व्यवस्था के लिए तो शायद ही उचित हो? 
इतना ही नहीं, कलेक्टर साहब की मनमानी इस हद तक बढ़ गई कि उन्होंने जनसंपर्क कर्मी को ही बर्खास्त कर दिया। अब बताइए जो अधिकार किसी सूबे के मुख्यमंत्री के पास हो। उसका निर्वहन कोई जिला लेवल का अधिकारी कैसे कर सकता है? लेकिन फ़िर भी खंडवा कलेक्टर ने यह सब किया। जिसका मीडिया में भारी विरोध हुआ तब जाकर कहीं कलेक्टर द्वारा लिए गए फ़ैसले में बदलाव हुआ। वहीं तीसरी घटना की बात करें तो यह भी मध्य प्रदेश के शाजापुर जिले की है। जहां सोशल मीडिया पर एक वीडियो बीते दिन वायरल हुआ जिसमें एडीएम साहिबा एक लड़के को ही थप्पड़ मारती हुई दिखती हैं। साथ ही साथ उनके साथ जो पुलिसकर्मी रहते हैं वह गाली गलौज भी करते हैं। वहीं चौथी घटना की बात करें तो वह छत्तीसगढ़ से है। जहां कलेक्टर रणवीर शर्मा एक राह चलते व्यक्ति को थप्पड़ मार देते हैं। उस युवक का मोबाइल छीनकर तोड़ देते है। युवक बार बार सफाई देता है कि वह अपने माता पिता के लिए दवाई लेने के लिए घर से निकला है। अपनी दवा पर्ची भी दिखाता पर कलेक्टर साहब तो कलेक्टर साहब ठहरे! उन्हें कहा परवाह आम जन की? जब सोशल मीडिया पर इस घटना का वीडियो वायरल हो जाता है तब कही जाकर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री कलेक्टर के निलंबन का आदेश जारी करते है। लेकिन सवाल यही बार-बार उठता है कि आखिर क्यों प्रशासनिक अमले के अधिकारी चाहे वह पत्रकार हो या फिर आम नागरिक उनके प्रति इस तरीके से असंवेदनशील व्यवहार क्यों कर रहे हैं? आखिर इन अधिकारियों को इतना अधिकार किसने दे दिया कि वह राह चलते व्यक्ति को थप्पड़ मार दे। किसी की शादी हो रही है तो उसे रुकवा दें? यह अपने आप में बड़ा सवाल है। जिसका उत्तर कहीं ना कहीं शासन प्रशासन में बैठे व्यक्तियों को ढूंढना होगा क्योंकि कोई भी प्रशासनिक अधिकारी हो उनका काम-काज समाज व्यवस्था को सुचारु रुप से आगे बढ़ाने का होता है ना कि नियमों को तोड़ने का और न ही व्यवस्था को तोड़ते हुए आमजन में भय का माहौल पैदा करने का। कोई भी अधिकारी भले वह कलेक्टर हो या अपर कलेक्टर है तो आख़िर सरकारी नुमांइदा। जिसकी तनख्वाह कहाँ से आती? यह कोई अबूझ पहेली नहीं? इन अधिकारियों का काम क्या होता? यह भी कोई बताने की बात नहीं? फ़िर अफसर अफ़सरशाही का रौब आख़िर क्यों दिखाते? 
कहीं न कहीं देखा जाए तो प्रशासनिक अधिकारियों का इस तरह का रवैया कई सवाल खड़े करता है। जिस प्रश्न का समाधान सिर्फ़ प्रशासनिक अधिकारियों को उनके पद से हटा देना मात्र कदापि नहीं है। उनकी डयूटी जनता की सेवा करने के लिए है ना कि धौंस जमाकर अपने पद की गरिमा को तार तार करना। ये सच है कि कानून का पालन कराने के लिए सख्ती जरूरी है, लेकिन निरीक्षण के नाम पर आम जन के साथ दुर्व्यवहार सही नहीं है। वैसे देखा जाए तो यह कोई नया विषय नहीं है। जब से देश अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हुआ है तब से अफसरशाही पर सवाल उठते आ रहे है। सरकारी सेवा में सेवारत प्रशासनिक अधिकारी किसके प्रति जवाबदेह है, उस जनता के जिसके कर से उसे वेतन भत्ता और अन्य सुविधा मिलती है या फिर सरकार के जो समय समय पर बदलती रहती है? यह प्रशासनिक अधिकारियों को स्वयं सोचना होगा। आखिर ये प्रशासनिक अधिकारी किसकी अकड़ में अपने पद का दुरुपयोग करने से बाज नही आते है। इन सब बातों पर गौर करे तो यही लगता है कि इन प्रशासनिक अधिकारियों को राजनेताओं का संरक्षण प्राप्त रहता है। जो कि सही नहीं है। जब भी सत्ता परिवर्तन होता है तो सबसे पहला कार्य अफसरों के तबादले से ही शुरू होता है। उन अधिकारियों को अपनी टीम में शामिल किया जाता है जो सरकार की हां में हां मिला सके। प्रशासनिक अधिकारियों का राजनेताओं के दवाब में कार्य करना होता है। जिस राजनेता को जनता अपना प्रतिनिधि चुनती है , वह भी सत्ता की चाबी मिलते ही जनता से मुंह मोड़ लेता है। अपने आप को सर्वे सर्वा समझ बैठता है। इसी राह पर अब अफसर भी चल पड़े है। 
जहां अफसरों को अपनी अफसरशाही दिखानी चाहिए वहां ये अधिकारी दुम दबा कर भाग खड़े होते है। जिन अधिकारियों का काम होता है कि वह हर मुद्दे को कानून के दायरे में समझे और उसे सुलझाएं। वह आज जज की भूमिका में आ गया है। राह चलते निर्णय सुनाने लगा है। इन अधिकारियों को कौन बताए आख़िर आपकी हैसियत कितनी है। वैसे शायद हो सकता कोरोना काल की वज़ह से अफ़सरशाही के लोग थोड़े मानसिक रूप से अवसादग्रस्त हो गए हो, लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि अधिकारों का बेजा इस्तेमाल करो या फ़िर नियम विरुद्ध जाकर काम करो। अफसरों की जिम्मेदारी अभी कोरोना से अपने सम्बंधित क्षेत्रो को सुरक्षित रखना है। उसी पर ध्यान केंद्रित करें तो बेहतर। न कि सामाजिक व्यवस्था को स्वयं छिन्न-भिन्न करें। वैसे सरकारों को भी प्रशासनिक अधिकारियों की मानसिक क्षमता का टेस्ट समय-समय पर करना चाहिए, ताकि अगर कोई अधिकारी मानसिक रूप से अस्वस्थ हो तो उसे आराम दे सकें। वरना ऐसे ही चलता रहा तो अफ़सरशाही और समाज के बीच एक लक़ीर खींच जाएगी जो स्वस्थ लोकतंत्र और समाज के लिए बेहतर नहीं होगा।
सोनम लववंशी (लेखक-सोनम लववंशी)

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