जो हमारे चारों ओर से घिरे हुए वातावरण है वहीं पर्यावरण है जिसके बिना सब कुछ सून है अर्थात अर्थविहीन है। आज हम सभी जीव जिस वातावरण के बीच अवतरित होकर अपना जीवन यापन कर रहे है उसमें प्रमुख है हवा, पानी, प्रकाष, भूमि, पेड़ , जंगल , जड़ीबूटी एवं अन्य प्राकृतिक तत्व जिनपर हमारी दिनचर्या निर्भर करती है। जीवन को स्वस्थ रखने एवं उसे बचाने में इनकी भूमिका महत्वपूर्ण है।
जीवन में पर्यावरण का विषेश महत्व है। यह षरीर भी जिन पांच तत्व हवा, पानी, मिट्टी, अग्नि और आकाष से बना हुआ है , ये पांच तत्व भी पर्यावरण के प्रमुख भाग है। जब से पर्यावरण के इन पांच तत्वों में प्रदूशण के चलते गिरावट आने लगी, षरीर की बनावट प्रक्रिया से लेकर जीवन्त प्रक्रिया तक का समय घोर संकट के बीच समा गया। अनेक मानव विकृतियां पैदा होने लगी। मनुश्य अनेक महामारी एवं प्राकृतिक प्रकोप के बीच घिर गया। जीवन धारा बदल गई। अर्थ दवा में समा गया। अल्प आयु का पलड़ा भारी हो गया। कौन कब काल का ग्रास बन जाय कह पाना अब मुष्किल है। इसका साक्षात दृष्य वर्तमान में कोरोना के रूप में उभर कर सामने आया है जहां प्रदूशित पर्यावरण के चलते कमजोर इम्यूनिटी वाला व्यक्ति विष्व स्तर पर सर्वाधिक रूप से षिकार हुआ है। हवा में आक्सीजन की कमी के चलते कितनी जान असमय ही चली गई। प्रदूशित पर्यावरण के चलते हर आदमी षक्ति क्षीण तो हुआ ही बाढ़, भूकम्प, अकाल, वर्फ एवं चट्टान विघटन जैसे प्राकृतिक प्रकोप के साथ - साथ भयंकर संक्रामक महामारी का षिकार हुआ एवं असमय काल के गाल में चला गया।
पर्यावरण से हमारा कितना लगाव एवं प्रभाव है,यह जानने के लिये जरा अतीत की ओर लौटे जब आज की तरह आधुनिकरण नहीं हुआ था। जब पीने, नहाने, भोजन आदि बनाने के लिये पानी नलकूप की जगह कुंए से आता था। हमारे चारों ओर बाग बगीचे हुआ करते जिसके षुद्ध वातावरण में हम सांस लेते। पषुधन से हमें जलावन एवं षुद्ध दुध मिला करता तब न तो इतने चिक्तिसालय हुआ करते न चिक्सिक फिर भी लोग लम्बी आयु तक हिश्टपुश्ट होकर जीवन यापन करते। उस समय बीमारी आज की तरह नहीं होती यदि होती तो उसका इलाज वैद्य देषी जड़ी बूटी से कर देते। तब का पर्यावरण आज की तरह प्रदूशित नहीं था।
जब से विकास की कड़ी में आधुनिकरण का प्रवेष हुआ। गांव की जगह नये नये नगर बसने लगे। गांव छोड़ षहर की चकाचौंध में लोगों के पांव उलझ गये तब से पर्यावरण का स्वरूप भी बिगड गया। गांव के कुंए सुख गये। बाग बगीचे उजड़ गये। खूंटे उखड गये । पषुधन लावारिष होकर इधर - उघर भटकने लगे तब से षुद्ध जलवायु, पानी, दुध का आभाव होने लगा। हर चीज में मिलावट प्रवेष कर गया। अब न तो दाल में मिठास रह गई न सब्जी में कोई टेस्ट। बस पेट भरने के लिये अरूचिपूर्ण भोजन के हम आदि हो गये ओर दिन पर दिन षक्तिक्षीण होकर तरह तरह की बीमारियों के षिकार होते गये। आज सर्वाधिक रोग सुगर एवं ब्लॉड प्रेसर सामान्य रोग हो चुका है जिससे षायद हीं आज कोई बचा हो। इस तरह की स्थिति दिन पर दिन पर्यावरण के बिगड़ते पल के कारण ही हुआ है।
पर्यावरण के स्वरूप को बिगाड़ने में हम सभी की अज्ञान मानसिकता है जिसके भयंकर गंभीर परिणाम आज सभी को भुगतने पड़ रहे है। विकास के नाम नदियों, पहाड़ों, जगलों के अस्तित्व को मिटाने की पहल कर पर्यावरण मिटाने की कोषिष की और आज हमारा ही अस्तित्व संकटमय हो चला है। ओजोन के गिरते स्तर के कारण बेसमय वर्फ पिघलने लगी है। वायुमंडल में आक्सीजन कम होने लगा है। आज सर्वाधिक चिक्सालय, चिक्सिक, वैज्ञानिक है फिर भी महामारी, प्राकृतिक आपदा से होने वाले मौत को रोक नहें पा रहे है। इस बात को समझना होगा कि यह परिस्थितियां पर्यावरण के बिगड़ते स्वरूप के चलते ही पैदा हुई है। आज पर्यावरण के बिना सबकुछ सून है।
(लेखक- डॉ. भरत मिश्र प्राची )
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पर्यावरण दिवस पर विषेश आलेख - पर्यावरण बिना सब सून !