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गाँधी का रास्ता ही फिलिस्तीन इज़राइल समस्या का हल

गाँधी का रास्ता ही फिलिस्तीन इज़राइल समस्या का हल

 
इज़राइल और फिलीस्तीन के बीच अंतर्राष्ट्रीय पहल और लगभग 15 दिन के युद्ध की क्षति और थकान की वजह से युद्ध विराम का समझौता संपन्न हो गया। फौरी तौर पर यह संतोषप्रद है, परंतु इसके स्थायित्व के बारे में अभी भी प्रश्नचिन्ह है कि कहीं इसका भी अंत पुराने एक दर्जन युद्धविरामों और समझौतों की तरह न हो। युद्धविराम के बाद दोनों पक्ष अपनी-अपनी जीत के दावे कर रहे हैं, और यह भी एक प्रकार से मानसिक उन्माद का ही प्रतीक है। युद्धविराम तब तक सफल नहीं होगा जब तक कि उन्माद विराम न हो और उन्माद विराम के लिए आत्मचिंतन, प्रायश्चित, और स्वविवेक का इस्तेमाल अपेक्षित है। उम्मीद करते हैं कि युद्धविराम स्थायी हो, समझौता टिकाऊ हो और दोनों ही देश सहजीवन और सहअस्तित्व पर अमल करें। 
दुनिया के देश भी अपने-अपने हित अहित या संबंधों के चलते खुलकर एक दूसरे के पक्ष-विपक्ष में खड़े होते रहे है। लगभग 15 दिन पूर्व हमलों की शुरूआत हुई थी और बताया गया है कि इस बार यह शुरूआत फिलिस्तीन के संगठन हमास की ओर से हुई थी। जिसके उत्तर में इजराइल ने युद्ध की कार्यवाही शुरू की। प्राप्त सूचना के अनुसार युद्ध के इन 15 दिनों में लगभग 500 फिलिस्तीनियों की मौत हुई है, और 25-30 के आसपास इजराइलियों की भी मृत्यु हुई है। 
इजराइल ने हमास के प्रतिउत्तर में गाजा शहर के जो कि फिलिस्तीन का एक महत्वपूर्ण शहर है, पर रिहाइशी इलाकों में रॉकेट गिराये थे और इसके लिए उन्होंने दो तर्क दिए थे, एक यह कि हमास जो आतंकवादी संगठन माना जाता है, ने अपने बचाव के लिए और अंतर्राष्ट्रीय नियमों के इस्तेमाल के लिए रिहाइशी इलाकों में अपने ठिकाने बनाए हैं, और इसलिए उनके ठिकानों को नष्ट करने के लिए हमें रिहाइशी इलाकों पर बम छोड़ने पड़ रहे हैं। चूंकि संयुक्त राष्ट्र संघ के नियमानुसार किसी भी युद्ध में निहाथी आबादी पर या रिहाइशी क्षेत्रों पर हमला नहीं किया जाना चाहिये। अत: इजराइल ने अपने हमलों को तार्किक सिद्ध करने के लिए यह स्पष्टीकरण दिया था। और दूसरा तर्क यह दिया था कि हमास ने अपनी ओर से हमलों की शुरूआत की थी तथा इजराइल की सीमा पर मिसाइल रॉकेट छोड़े थे। चूंकि इजराइल ने अपना सुरक्षा तंत्र और मिसाइल प्रतिरोधी प्रणाली इस ढंग से विकसित की है कि जो भी रॉकेट या मिसाइल उनकी सीमा के अंदर प्रवेश करना चाहेगा वह सीमा से ही वापिस जाकर शत्रु सीमा में फटेगा। इजराइल के मुताबिक लगभग 1500 रॉकेट और मिसाइल हमास ने इजराइल के ऊपर छोड़े थे जिनमें से अधिकांश उन्हीं की सीमा में जाकर फटकर विस्फोटित हुए। याने एक प्रकार से यह फिलिस्तीनी रॉकेट और मिसाइल थे जिनसे फिलिस्तीनी मर रहे थे और घायल हो रहे थे।  
अनेक माध्यमों से दुनिया के सामने यह बताया गया है कि इस बार लड़ाई की शुरूआत हमास की तरफ से हुई थी और इस्लामिक देशों के चैनलों तथा प्रचार माध्यमों ने हमले शुरू होने के पहले ही कह दिया था कि इस बार ऐसे रॉकेट छोड़े जायेंगे जो इजराइल को नेस्तनाबूद कर देंगे। 
फिलिस्तीन व इजराइल की समस्या बहुत उल्झी हुई समस्या है। जब यासिर अराफात फिलिस्तीन के मुखिया थे तब उनके और इजराइल के बीच समझौता संपन्न हुआ था, परंतु उस समझौते को भी हमास ने स्वीकार नहीं किया था। यद्यपि उस समय हमास की शक्ति व जनाधार आज के समान सशक्त नहीं था। यासिर अराफात की मौत के बाद यह समझौता एक प्रकार से समाप्त जैसा हो गया और पिछले 12-13 वर्षें से अमूमन घात प्रतिघात का दौर चलता ही रहा है। पिछले 12-13 वर्षें में लगभग 250 से 300 इजराइली और लगभग 6 से 7 हज़ार फिलिस्तीनी नागरिक व सैनिक मारे गये है, लगभग 2 लाख फिलिस्तीनी घायल भी हुए हैं। और लगभग 1 लाख से अधिक फिलिस्तीनी नागरिक हाल ही के युद्ध में बेघर व निर्वासित हो गये हैं।  
इजराइल ने अपनी युद्ध और रक्षा प्रणाली को अत्यधिक सुरक्षित और उन्नत बनाया है, बावजूद इसके कि इजराइल की आबादी बमुश्किल 92-93 लाख के आसपास है। इजराइल अभी तक न केवल सुरक्षित बना हुआ है, बल्कि दिन प्रतिदिन मजबूत भी हुआ है। इजराइल व फिलिस्तीन के विवाद की जड़े बहुत पुरानी है। जर्मनी में नाजी हिटलर ने यहूदी कौम को खत्म करने का प्रयास किए थे, और कितने ही यहूदियों को मरवा दिया था। वहां से यहूदी जर्मनी छोड़कर भागे और तत्कालीन ब्रिटिश हुकुमत ने जिसका तुर्की पर कब्जा था, उसके एक हिस्से को यहूदियों को देकर इजराइल देश बना दिया था। चूंकि दुनिया में कोई और देश व भूमि यहूदियों की नहीं है, अत: उनके समक्ष एक मात्र भूमि जो उनका राष्ट्र है वह अब इजराइल ही है और उन्होंने इस सत्य को समझ कर इजराइल का सम्पूर्ण सैन्य व आर्थिक विकास भी किया है। अपनी आबादी की कमी को पूरा करने के लिए उन्होंने अपने मुल्क में अनिवार्य सैन्य प्रशिक्षण शुरू किया है और शायद वह दुनिया का एक मात्र देश है जहां हर व्यक्ति को चाहे वह स्त्री हो या पुरूष अगर वह 14 वर्ष से अधिक उम्र का है तो उन्हें सैन्य प्रशिक्षण लेना अनिवार्य है। याने इजराइल में 14 वर्ष से अधिक का हर नागरिक सैनिक है। उन्होंने रेगिस्तान में खेती करने के वे तरीके ईजाद किए है जिनमें नाम मात्र के पानी से बेहतर फसल उगाई जा रही है और यहां तक कि वे दुनिया को खाद्यान निर्यात भी कर रहे है। यहूदी लोगों की बौद्धिक प्रतिभा भी अतुल्य है। कहा जाता है कि, अमेरिका की व्यवस्था को यहूदी ही चलाते है। इजराइल की भाषा हिब्रू है जो यहूदियों की खानाबदोशी के दौर में लगभग विस्मृत हो चुकी थी। हालांकि ईसाई धर्मगुरू जीसस की भाषा भी हिब्रू थी और अब इजराइल ने हिब्रू को न केवल इजराइल की राष्ट्रभाषा बनाया है बल्कि उसका प्रचार व उसका अमल भी शुरू कर दिया है। 
इजराइल की तुलना में फिलिस्तीन के लोग धार्मिक रूप से तो संगठित और जजवाती है परंतु तकनीक के विकास में वे इजराइलियों के समकक्ष नहीं है। तुर्की व फिलिस्तीनों की यह मांग है कि इजराइल का भू-भाग उनका है और यहूदियों को अंग्रेजी सत्ता ने बलात बसाया है इसलिए इसे उन्हें वापिस दिया जाना चाहिए। चूंकि उन दिनों यह क्षेत्र तुर्की के खलीफा के अधीन था और 18वीं सदी तक खलीफा का शासन चलता था। खलीफा ही धर्म गुरू व शासक होते थे। अंग्रेजों ने खलीफा पद्धति को ही समाप्त कर दिया था और बाद में याने तुर्की की ब्रिटिश हुकूमत से आजादी के बाद कमाल पाशा तुर्की के मुखिया बने थे। कमाल पाशा कई अर्थें में प्रगतिशील भी थे जिन्होंने तुर्की में बुरका प्रथा को भी समाप्त किया था और ऐसे कई कदम उठाये। उन्होंने अंग्रेजी के प्रभुत्व को समाप्त कर तुर्की भाषा का प्रयोग राज्य कार्यें में शुरू किया था। फिलिस्तीनी भी तुर्की व अरबी लोग है, जो इस इलाके के मालिक थे जिस पर इजराइल बना है। इजराइलियां ने उन्हें ब्रिटिश हुकुमत द्वारा दी गई जमीन के अलावा भी काफी जमीन फिलिस्तीनियों को महंगे दाम देकर खरीद ली है और अब इजराइल का क्षेत्रफल पहले की तुलना में, बढ़ गया है। फिलिस्तीनियों का यह भी आरोप है कि इजराइलियों ने सुरक्षा के नाम पर गाजा पट्टी के बड़े इलाके पर कब्जा कर लिया है। 
भारत के वामपंथी एवं कांग्रेस के मित्र लोग फिलिस्तीन का औपचारिक व शाब्दिक समर्थन करते रहे है। यह शाब्दिक मैंने इसलिए कहा कि वे भले ही फिलिस्तीन का समर्थन का रोना रोते हो, परंतु उन्होंने या दुनिया की साम्यवादी सरकारों ने या केन्द्र की कांग्रेस सरकारों के मुखियों ने कभी भी यू.एन.ओ. में फिलिस्तीन के पक्ष में कोई दमदार भूमिका अदा नहीं की और न ही उसके साथ सैन्य शक्ति के साथ खड़े हुए। दरअसल हिन्दुस्तान के कांग्रेसी व वामपंथी दल फिलिस्तीन के नाम पर भारत के मुस्लिम भाईयों के वोट तो लेना चाहते हैं, परंतु उससे आगे नहीं जाना चाहते। यह भी एक प्रकार से फिलिस्तीन और मुस्लिम भाईयों का भावनात्मक शोषण ही है।  
दुनिया के इस्लामिक देश भी अभी तक फिलिस्तीन के साथ एकजुट नहीं थे। भले ही उनके मन में धार्मिक आधार पर कुछ सहानुभूति रही हो। परंतु संयुक्त राष्ट्र संघ के पटल पर या संघर्ष के सहभागी बनकर कोई ठोस कार्यवाही उनकी ओर से नहीं हुई थी पर इस बार यह फर्क दिख रहा है कि इस्लामिक देश फिलिस्तीन के साथ कुछ मजबूती दिखा रहे है। तुर्की के राष्ट्रपति ने सबसे पहले फिलिस्तीन का समर्थन किया और उसके बाद ईरान के धर्मगुरू, पाकिस्तान और यहां तक की सऊदी अरब भी फिलिस्तीन के पक्ष में खड़ा हुआ। सऊदी अरब अभी तक अमेरिका के प्रभाव में था और इस्लामिक देशों के संगठन के साथ वैसा एकजुट नहीं था। पर पहली बार उसने अमेरिका से भिन्न विदेश नीति की भूमिका अख्तियार की है। ईरान इस समय दुनिया में अमेरिका के सीधे खिलाफ खड़ा इस्लामिक देश है और जो अमेरिका की ताकत और विदेश नीति को हर स्तर पर चुनौती दे रहा है, यहाँ तक कि परमाणु परीक्षण के नाम पर भी ईरान ने संयुक्त राष्ट्र संघ के निर्णय को स्वीकार नहीं किया। अमेरिका तथा अमेरिका समर्थित दुनिया के द्वारा भारी आर्थिक प्रतिबंध लगाने के बावजूद भी ईरान ने अपने परमाणु कार्यक्रमों को जारी रखा है। शिया धर्म गुरू अयातुल्ला खोमैनी ने अमेरिका के व यू.एन.ओ. के निर्देशों को मानने से (परमाणु अस्त्रों के संबंधों में) स्पष्ट इंकार कर दिया है। ऐसी भी सूचनाएं है कि वह परमाणु हथियार बना चुका है और परमाणु संपन्न देश है। फिलिस्तीनियों व पाक के प्रगाढ़ संबंध रहे हैं तथा पाक अभी भी अमेरिका के इजराइली समर्थन के बावजूद खुलकर फिलिस्तीन के साथ है। इस सबके पीछे चीन भी एक बड़ी भूमिका अदा कर रहा है। अमेरिका और यूरोप के शक्ति केन्द्रों के मुकाबले चीन अब खुद एक विश्वशक्ति का केन्द्र बनना चाहता है। बल्कि तथ्य यह भी है कि पिछले दशक में चीन ने वैश्विक स्तर पर अपनी भूमिका और समर्थक समूह संख्या को बढ़ाने का बहुत प्रयास किया है। जबकि अमेरिका आर्थिक मंदी के कारणों से अपनी वैश्विक भूमिका को सीमित कर रहा था, और दूसरी ओर चीन उसका फैलाव कर रहा था। 
अभी तक रूस ने अपनी कोई भूमिका स्पष्ट नहीं की है तथा खुले तौर पर केवल अमेरिका व यूरोप के लगभग 20 देश फिलहाल फिलिस्तीन के साथ है। अनेकानेक कारणों से या अपने इस्लामिक विरोध की वजह से मन से भारत के सत्ताधीश इजराइल के साथ है परंतु उन्होंने स्पष्ट भूमिका में नहीं ली है, संयुक्त राष्ट्र संघ में भी भारत तटस्थ रहा है भारत कितनी दूर तक इजराइल के साथ जायेगा यह कहना अभी कठिन है, पर जिस प्रकार से इस बार फिलिस्तीन और इजराइल के सवाल को लेकर दुनिया में विभाजन हो रहा है और कटुता है। उससे कुछ ऐसे भी संदेह उभरते है कि कहीं यह विवाद एक नये विश्वयुद्ध में तबदील न हो जाए या उसका कारण न बन जाए। अमेरिका व चीन के रिश्ते बिगड़े है और आर्थिक नाकाबंदी की स्थिति है। कोविड-19 की महामारी को लेकर अमेरिका और दुनिया के अनेक देशों ने चीन पर स्पष्ट आरोप लगाया है, कि चीन ने वुहान की प्रयोगशाला से योजनाबद्ध ढंग से कोरोना दुनिया में फैलाया है। यहां तक कि भारत व भारत के बाहर एक समूह यह भी प्रचार कर रहा है कि चीन ने दुनिया में जैविक हमला शुरू कर दिया है। इस आरोप में क्या सच्चाई है यह कहना मुझे संभव नहीं है क्योंकि मेरे पास इस प्रकार के कोई तथ्यों की जानकारी नहीं है? 
परंतु मेरी चिंता इस बात को लेकर अवश्य है कि कहीं फिलिस्तीन व इजराइल की समस्या विश्वयुद्ध का बहाना न बन जाये। भीतर-भीतर इस्लामिक व गैर इस्लामिक दुनिया का जो आर्थिक व राजनैतिक संघर्ष है वह इस आशंका को सही सिद्ध न कर दे। चीन की ओ.बी.ओ.आर. महत्वाकांक्षी योजना जो अपने व्यापार, वैश्विक वर्चस्व और बाजार में समूचे एशिया तथा यूरोप को अपने प्रभाव में लेना चाहती है, इस विश्वयुद्ध की आग को और ज्यादा हवा न दे दे। फिलिस्तीन और इजराइल के दोनों देशों के मित्रों से मैं कहना चाहूगा कि इजराइल अब वास्तविकता है। जिसे मिटाना संभव नहीं है। और अगर काई यह संभव करने का प्रयास करेगा तो शायद सारी दुनिया को युद्ध की आग में झोंकने का प्रयास करेगा। इसलिए बेहतर यही होगा कि सच को स्वीकारा जाए। वास्तविक व व्यवहारिक हल खोजा जाए। यासिर अराफात और इजराइल के बीच जिस आधार पर समझौता हुआ था उसकी इबारत को पुन: लिखा जाए। कोई एक दूसरे को नष्ट करने का प्रयास न करें बल्कि सहजीवन व सहअस्तित्व के आधार पर आगे बढ़े।  
संयुक्त राष्ट्र संघ व अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने युद्ध विराम कराया है पर अभी निर्देष नागरिकों की मौतों का हर्जाना तय किया जाना चाहिये। 
यरूशलम - तीन धर्में का आस्था केन्द्र है। कहा जाता है कि, यहूदी पंथ के प्रमुख अब्राहम यही जन्में थे जीसस का फाँसी के बाद यहीं पुनर्जन्म हुआ था तथा इस्लाम के पैगम्बर मुहम्मद साहब यहीं से खुदा के पास गये थे, क्योंकि वे खुदा के दूत थे। क्या यह संभव नहीं है कि ये तीनों एक ही हो। आखिर इन तीनों ने एक ही स्थान को क्यों चुना? क्या इसकी खोज की जा सकती है? और क्या यह केन्द्र शाँति का टापू और दुनिया को एकता व प्रेम का केन्द्र बनाया जा सकता है? 
तुर्की व फिलिस्तीन की जिस जमीन पर इजराइल का बलात कब्जा है, उसे इजराइल खाली कर फिलिस्तीन को सौंपे। तथा सीमा पर संयुक्त राष्ट्र संघ की सेना तैनात की जाये जो हमलों को शुरू न होने दे।  
गाँधी का रास्ता ही फिलिस्तीन व इजराइल को हल दे सकता है, और संभावित विश्वयुद्ध की संभावना को समाप्त कर सकता है। यह मैं केवल भावनात्मक आधार पर नहीं कह रहा हू बल्कि, गाँधी का प्रवेश फिलिस्तीन व इजरायली लोगों के बीच उनके दिलों में होते देखकर लिख रहा हू। ”रावी डेमलिन“ (यहूदी महिला) को जब पता लगा कि उनके बेटे डेविड को फिलिस्तीनियों ने मार दिया है तो उन्होंने कहा कि फिलिस्तिनीयों ने मेरे बेटे को नहीं मारा बल्कि उसकी सैन्य वर्दी को मारा है। उन्होंने अपने बेटे की हत्या करने वाले परिवार को चिट्ठी लिखकर माफी देने को कहा डेमलिन के चचेरे भाई महात्मा गाँधी के साथ, डरवन से जोहान्सबर्ग की पैदल यात्रा में थे।  
इसी प्रकार बासम अरामिन (फिलिस्तीनी) ने अपनी 10 वर्षीय बेटी जो स्कूल के बाहर खड़ी थी, के हत्यारे को माफ कर दिया। उन्होंने इतना ही नहीं कहा बल्कि कहा कि इजरायल की पूरी सेना को भारत भेजना चाहिये, क्योंकि महात्मा गाँधी के नेतृत्व में भारत ने अहिंसा का प्रयोग किया था व ब्रिटिश साम्राज्य को झुका दिया था। अहिंसा ही सर्वश्रेष्ठ नीति है।  
गाँधी - सर्वत्र जिंदा है और हिंसा ग्रस्त विश्व के मार्ग दर्शक है।     
 (लेखक -रघु ठाकुर)

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