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कोरोना के इस बुरे दौर में भी प्रिंट मीडिया ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है

कोरोना के इस बुरे दौर में भी प्रिंट मीडिया ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है

कोरोना के इस बुरे दौर में भी प्रिंट मीडिया ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है 
जहां एक ओर कोरोना एक साल को निगल गया, वहीं दूसरी ओर बहुत सारे लोगों को अपने साथ ले गया। मन में एक आशा थी कि हम जल्द इस बुरे दौर से निकल कर पुनः उसी अच्छे वक्त में पहुंच जाएंगे । हम सभी को कोस रहे हैं और यह कोसना हमारी पुरानी आदत है। हम जानते हैं कि इस तरह से हम कछुए की तरह अपने में ही छिप जाएंगे। कोई प्रिंट मीडिया, तो कोई सोशल मीडिया पर आरोप-प्रत्यारोप लगाता है। ठीक है बोलने की आजादी हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, परंतु कभी-कभी यही बड़बोलापन सभी के लिए नुकसानदायक भी बन जाता है। मान सकते हैं कुछ टीवी चैनल, कुछ अखबार बिके होते हैं, लेकिन सभी को एक लाठी से हांकना कहां हमारा अधिकार है। पहले सोशल मीडिया पर आते हैं। वहां बहुत सारे बुद्धिजीवी बैठे होते हैं। कुछ यह कहते हैं कि ऐसे कोरोना के नकारात्मक संदेश पटल पर न डाले जाएं। उनसे सिर्फ  एक सवाल है कि जो ऐसी पोस्ट्स डाल रहे हैं, वो सिर्फ़  इसलिए डाल रहे हैं ताकि आप सतर्क रहें। उन लोगों ने अपने परिवार के सदस्यों, दोस्तों को इस भयावह बीमारी से खोया है। वो नहीं चाहते जो कमी उनको हुई है, वो कभी आपको मिले। मान सकते हैं कुछ प्रतिशत गलत संदेश भी जल्दबाजी में डाल दिए जाते हैं जो भ्रामक रहते हैं, उनसे हमें बचना चाहिए।
दूसरा पहलू यह भी है जब सोशल मीडिया पर देवी-देवताओं के मज़ाक के संदेश आगे बढ़ रहे होते हैं, पति-पत्नी के पवित्र रिश्ते को मजाक बना कर बने चुटकुले हम चटखारे लेकर पढ़ते हैं और आगे भेजने में अपनी शान समझते हैं। सोशल मीडिया के पटल को मज़ाक या तमाशे का पटल न बनाएं। हम सुनागरिक होने का धर्म अपनाएं, यही व्यक्तिगत धारणा है। अब बात करते हैं प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की, कोरोना के संदर्भ में। बात जब भी आती है हम बड़े विश्वास के साथ इन दोनों स्तंभों की ओर देखते हैं। प्रिंट मीडिया कभी भी जल्दबाजी में अपना पक्ष नहीं रखता। वह तथ्यों के आधार पर अपनी बात रखता है। कोरोना के इस बुरे दौर में भी प्रिंट मीडिया ने  महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। लोगों को सच से अवगत करवाया और उन्हें इस महामारी से सचेत भी किया। वही खबरें पाठकों के समक्ष थीं जो सच थीं। चुनावों और परीक्षाओं का दौर भी आया, मेले और त्योहारों का दौर आया, शादियों, मातमों का दौर भी संग आया। हम सब करते रहे बिना किन्हीं सावधानियों के। आरोप-प्रत्यारोप चलते रहे। दो गज की दूरी कब कफन की दूरी में बदल गई, पता भी न चला। हमारी लापरवाही समाज के लिए घातक बन गई। अफसोस मगर हम उससे फिर भी डरे नहीं, सिर्फ इसलिए कि हमारे घर में तो सब ठीक है, पड़ोसी चाहे जाए भाड़ में। बंधुओ, आग लगेगी तो आसपास भी उसकी लपटें ज़रूर पहुंचेंगी। सरकारें कोई भी हों, अगर लॉकडाउन लगता है तब भी कटघरे में होती हैं, न लगाएं तब भी कटघरे में होती हैं। जब व्यवसाय ठप होते हैं, तो आर्थिक व्यवस्था भी चरमराती है, तब भी हम सिर्फ  कोसते ही हैं। सार यह है कि हम नहीं सुधरेंगे, परंतु समाज को जरूर सुधारेंगे। सुधारने से पहले हमें अपने आप को और अपनी कार्यप्रणाली को सुधारना होगा। हमें मेलों, त्योहारों, रैलियों, भीड़ वाले स्थानों से बचना होगा। हमें इस समय देश का साथ देना है। अगर कुछ बंदिशें लगती हैं, तो हमें उनका पालन करना है। जिन्हें नौकरी-व्यवसाय के कारण निकलना पड़ रहा है या किसी कारणवश जाना पड़ रहा है, वह उनकी मजबूरी हो सकती है। लेकिन जिनकी मजबूरी न हो, उन्हें बेवजह बाहर निकलना भी नहीं चाहिए। परीक्षाएं क्या बच्चों की जान से अधिक जरूरी हैं? अगर परीक्षाओं पर रोक लगाई गई, वह बच्चों की जान बचाने के लिए जरूरी थी। जिन निर्णयों का स्वागत होना चाहिए, लोगों को उनमें कंजूसी नहीं करनी चाहिए। समाचार पत्रों ने विज्ञापनों, वेब टीवी के माध्यमों से पाठकों, दर्शकों में सकारात्मकता व मनोरंजन का भी ध्यान रखा।
कोरोना योद्धा के रूप में इन सभी ने अपना बहुत योगदान समाज को दिया। संपादक, पत्रकार अपनी संपूर्ण टीम के साथ अपनी कलम से समाज को इस बीमारी से बचाने हेतु विचारों व भावों से लड़ते रहे। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में टेलीविजन, रेडियो, इंटरनेट पर भी कोरोना का कहर दिखता रहा। मजदूरों के पलायन से लेकर जलती चिताएं मन को व्यथित कर गईं। हमारे डॉक्टर्स, पैरामेडिकल स्टाफ, पुलिस विभाग, जल आपूर्ति विभाग, विद्युत विभाग अपने कार्यों में तन-मन से लगे हुए हैं। अब पुलिस हमें नहीं रोकेगी, हमें स्वयं रुकना होगा। प्रशासन हमारे लिए पहले भी सहायक रहा है और आगे भी रहेगा। हमें खुद की यह सामाजिक जिम्मेदारी समझ कर कार्य मिल कर करना होगा। काश! यह बुरा वक्त जल्द निकल जाए। जिंदगी फिर उसी ढर्रे पर लौट आए, हम सब जल्द एक-दूसरे से अपने गम और खुशियां बांट पाएं। स्वस्थ रहें, अपना और सभी का ध्यान रखें। कोरोना को लेकर जो गाइडलाइन जारी की गई है, उसका हमें जरूर पालन करना है। तभी हम कोरोना को मात दे पाएंगे।
कोरोना ने हमारी जीवन शैली पर निश्चित ही प्रभाव डाला है। कई मामलों में रिश्ते भी दांव पर लगते दिखे। रक्त संबंधियों ने भी संकट के समय मुंह मोड़ लिया, ऐसी खबरें भी मिलीं। सही मायने में यह पूरा समय अनपेक्षित परिर्वतनों का समय है। प्रिंट मीडिया भी इससे गहरे प्रभावित हुआ। तरह-तरह की अफवाहों ने अखबारों के प्रसार पर असर डाला। लोगों ने अखबार मंगाना बंद किया, कई स्थानों पर कालोनियों में प्रतिबंध लगे, कई स्थानों वितरण व्यवस्था भी सामान्य न हो सकी। बाजार की बंदी ने प्रसार संख्या को प्रभावित किया तो वहीं अखबारों का विज्ञापन व्यवसाय भी प्रभावित हुआ। इससे अखबारों की अर्थव्यवस्था प्रभावित हुई। इसका परिणाम अखबारों के पेज कम हुए, स्टाफ की छंटनी और वेतन कम करने का दौर प्रारंभ हुआ। आज भी तमाम पाठकों को वापस अखबारों की ओर लाने के जतन हो रहे हैं। किंतु इस दौर में आनलाईन माध्यमों का अभ्यस्त हुआ समाज वापस लौटेगा यह कहा नहीं जा सकता।
सवा साल के इस गहरे संकट की व्याख्या करने पर पता चलता है कि प्रिंट मीडिया के लिए आगे की राहें आसान नहीं है। विज्ञापन राजस्व तेजी से टीवी और डिजीटल माध्यमों पर जा रहा है, क्योंकि लॉकडाउन के दिनों में यही प्रमुख मीडिया बन गए हैं। तकनीक में भी परिर्वतन आया है। जिसके लिए शायद अभी हमारे प्रिंट माध्यम उस तरह से तैयार नहीं थे। इस एक सवा साल की कहानियां गजब हैं। मौत से जूझकर भी खबरें लाने वाला मैदानी पत्रकार है, तो घर से ही अखबार चला रहा डेस्क और संपादकों का समूह भी है। किसे भरोसा था कि समूचा न्यूज रूम आपकी मौजूदगी के बिना, घरों से चल सकता है। नामवर एंकर घरों पर बैठे हुए एंकरिंग कर पाएंगे। सारे न्यूज रूम अचानक डिजिटल हो गए। साक्षात्कार ई-माध्यमों पर होने लगे। इसने भाषाई पत्रकारिता के पूरे परिदृश्य को प्रभावित किया है। जो परिवर्तन वर्षों में चार-पांच सालों में घटित होने थे, वे पलों में घटित होते दिखे। तमाम संस्थाएं इसके लिए तैयार नहीं थीं। कुछ का मानस नहीं था। कुछ सिर्फ ईपेपर और ई-मैगजीन निकाल रहे हैं। बावजूद इसके भरोसा टूटा नहीं है। हमारे सामाजिक ढांचे में अखबारों की खास जगह है और छपे हुए शब्दों पर भरोसा भी कायम है। इसके साथ ही अखबार को पढ़ने में होनी वाली सहूलियत और उसकी अभ्यस्त एक पीढ़ी अभी भी मौजूद है। कई बड़े अखबार मानते हैं कि इस दौर में उनके अस्सी प्रतिशत पाठकों की वापसी हो गयी है, तो ग्रामीण अंचलों और जिलों में प्रसारित होने वाले मझोले अखबार अभी भी अपने पाठकों की वापसी का इंतजार कर रहे हैं। वे मानते हैं कि उनके भी 40 प्रतिशत पाठक तो लौट आए हैं, बाकी का इंतजार है। नई पीढ़ी का ई-माध्यमों पर चले जाना चिंता का बड़ा कारण है। वैसे भी डिजिटल ट्रांसफार्मेशन की जो गति है, वह चकित करने वाली है। इसका सबसे बड़ा कारण है कि डिजिटल का सूरज कभी नहीं डूबता और वह 24X7 है।
ऐसे कठिन समय में भी बहुलांश में पत्रकारिता ने अपने धर्म का निर्वाह बखूबी किया है। स्वास्थ्य, सरोकार और प्रेरित करने वाली कहानियों के माध्यम से पत्रकारिता ने पाठकों को संबल दिया है। निराशा और अवसाद से घिरे समाज को अहसास कराया कि कभी भी सब कुछ खत्म नहीं होता। संवेदना जगाने वाली खबरों और सरोकारों से जुड़े मुद्दों को अहमियत देते हुए आज भी पत्रकारिता अपना धर्म निभा रही है। संकट में समाज का संबल बनकर मीडिया नजर आया। कई बार उसकी भाषा तीखी थी, तेवर कड़े थे, किंतु इसे युगधर्म कहना ठीक होगा। अपने सामाजिक दायित्वबोध की जो भूमिका मीडिया ने इस संकट में निभाई, उसकी बानगी अन्यत्र दुर्लभ है। जागरूकता पैदा करने के साथ, विशेषज्ञों से संवाद करवाते हुए घर में भयभीत बैठे समाज को संबल दिया है। लोगों के लिए ऑक्सीजन, अस्पताल, व्यवस्थाओं के बारे में जागरूक किया है। हम जानते हैं मनुष्य की मूल वृत्ति आनंद और सामाजिक ताना-बाना है। कोविड काल ने इसी पर हमला किया। लोगों का मिलना-जुलना, खाना-पीना, पार्टियां, होटल, धार्मिक स्थल, पर्व-त्यौहार, माल-सिनेमाहाल सब सूने हो गए। ऐसे दृश्यों का समाज अभ्यस्त कहां है? ऐसे में मीडिया माध्यमों ने उन्हें तरह-तरह से प्रेरित भी किया और मुस्कुराने के अवसर भी उपलब्ध कराए। इस दौर में मेडिकल सेवाओं, सुरक्षा सेवाओं, सफाई-स्वच्छता के अमले के अलावा बड़ी संख्या में अपना दायित्व निभाते हुए अनेक पत्रकार भी शहीद हुए हैं। अनेक राज्य सरकारों ने उन्हें फ्रंटलाइन वर्कर मानते हुए आर्थिक मदद का ऐलान किया है। केंद्र सरकार ने भी शहीद पत्रकारों के परिजनों को 5 लाख रूपए प्रदान करने की घोषणा की है। ऐसे तमाम उपायों के बाद भी पत्रकारों को अनेक मानसिक संकटों, वेतन कटौती और नौकरी जाने जैसे संकटों से भी गुजरना पड़ा है। बावजूद इसके अपने दायित्वबोध के लिए सजग पत्रकारों के उदाहरण बिखरे पड़े हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि यह संकट टलेगा और जिंदगी फिर से मुस्कुराएगी।
(लेखक-अशोक भाटिया) 

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