कड़क व रौबदार आवाज के मालिक पृथ्वीराज कपूर भारतीय सिनेमा के 'युगपुरुष' कहे जाते हैं। पृथ्वीराज से लेकर अब तक उनके खानदान ने बॉलीवुड में अपनी एक खास पहचान बनायी है। कहा जाता है कि वह अपने थिएटर में तीन घंटे के शो के बाद झोली फैलाकर खड़े हो जाते थे और दर्शक उनके अभिनय से खुश होकर कुछ पैसे उसमें डाला करते थे। गौरतलब है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के विदेश में एक सांस्कृतिक कार्यक्रम की पेशकश भी उन्होंने यह कहकर टाल दी थी कि थिएटर का काम छोड़कर वह विदेश नहीं जा सकते हैं।
18 वर्ष की उम्र में ही हो गयी थी शादी
पृथ्वीराज कपूर ने 18 वर्ष की उम्र में ही शादी रचा ली थी। जिसके बाद वर्ष 1928 में उन्होंने अपनी चाची से कुछ रुपयों की मदद ली और सपनों की नगरी कहे जाने वाले शहर मुंबई (बंबई) चले गए। पृथ्वीराज कपूर अपने काम के प्रति बेहद समर्पित रहने वाले इंसान थे।बंबई आने के बाद दो साल तक उनका नाता रोजाना के संघर्षों से रहा। फिर धीरे-धीरे वे इम्पीरीयल फिल्म कंपनी से जुड़ने लगे। यहां से उनको फिल्मों में छोटे-छोटे रोल मिलना शुरू हो गए। फिर साल 1929 में पृथ्वीराज को फिल्म 'सिनेमा गर्ल' में पहली बार लीड रोल करने का मौका मिला। इसके बाद वर्ष 1931 में प्रदर्शित फिल्म 'आलमआरा' में सहायक अभिनेता के रूप में काम करने का मौका मिला।
फिल्म 'सीता' से मिली पहचान
वहीं, वर्ष 1934 में देवकी बोस की फिल्म 'सीता' से उन्हें अभिनय की दुनिया में पहचाना जाने लगा। रंजीत मूवी के बैनर तले वर्ष 1940 में फिल्म 'पागल' में पृथ्वीराज पहली बार निगेटिव किरदार में देखे गए। इसके बाद वर्ष 1941 में सोहराब मोदी की फिल्म 'सिकंदर' आई, इस फिल्म ने उन्हें कामयाबी के शिखर पर ला खड़ा किया। इसके अलावा उन्होंने 'दो धारी तलवार', 'शेर ए पंजाब' और 'प्रिंस राजकुमार' जैसी नौ मूक फिल्मों में अपने अभिनय को तराशा।
पृथ्वीराज ने फिल्म इंडस्ट्री में जब खुद को स्थापित कर लिया तो उन्होंने वर्ष 1944 में खुद की थिएटर कंपनी 'पृथ्वी थिएटर' शुरू कर दी। बता दें कि 16 सालों में करीब 2662 शो हुए जिनमें पृथ्वीराज कपूर ने मुख्य किरदार निभाया। उनके पिता बसहेश्वरनाथ नाथ कपूर भी एक्टिंग करते थे।
'पृथ्वी थिएटर' में पहला शो कालिदास का मशहूर नाटक 'अभिज्ञान शाकुंतलम' पेश किया गया था। साल 1957 में आई फिल्म 'पैसा' के दौरान उनकी आवाज में खराबी होने लगी थी और उनकी आवाज में पहले जैसा दम नहीं बचा था जिसके बाद से उन्होंने पृथ्वी थिएटर को बंद कर दिया।
इन फिल्मों को पृथ्वीराज कपूर ने बनाया यादगार
'विद्यापति' (1937), 'सिकंदर' (1941), 'दहेज' (1950), 'आवारा' (1951), 'जिंदगी' (1964), 'आसमान महल' (1965), 'तीन बहूरानियां' (1968) आदि फिल्मों में पृथ्वीराज ने अपने दमदार अभिनय का परिचय दिया। उनके अभिनय से ही ये फिल्में हिंदी सिनेमा में यादगार बन गई।
ब्लॉकबस्टर फिल्म 'मुगल-ए-आजम' उनकी करियर की सबसे बड़ी फिल्मों में से एक है। फिल्म में उन्होंने शहंशाह जलालुद्दीन अकबर के किरदार को एक बार फिर जिंदा कर दिया था। इस फिल्म में उनकी संवाद अदायगी ने पर्दे पर कमाल कर दिया था। उनकी फिल्म 'आवारा' आज भी उनकी बेस्ट फिल्मों में से एक मानी जाती है।
भारतीय फिल्म इंडस्ट्री आज जिस मुकाम पर है वहां तक इसे पहुंचाने में एक बड़ा हाथ पृथ्वीराज कपूर का भी है। उन्होंने न सिर्फ अपने अभिनय के दम पर बल्कि सिनेमा में पर्दे के पीछे के अपने काम के चलते भी भारतीय सिनेमा में बड़ा योगदान दिया। पृथ्वीराज कपूर पर्दे पर भले ही बड़े सख्त नजर आते, लेकिन असल जिंदगी में वह बहुत सादा थे। पृथ्वीराज ने अपने घर की महिलाओं के सिनेमा में काम करने पर पाबंदी लगा रखी थी।
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हिंदी सिनेमा के युगपुरुष माने जाते हैं पृथ्वीराज कपूर