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 लोकतांत्रिक देश में किसी भी विषय पर राष्ट्रव्यापी सहमति होना दुर्लभ:प्रो. तारिक मंसूर 

 लोकतांत्रिक देश में किसी भी विषय पर राष्ट्रव्यापी सहमति होना दुर्लभ:प्रो. तारिक मंसूर 

अलीगढ़ । सेंटर फार प्रोमोशन आफ एजूकेशनल एण्ड कल्चरल एडवांस्मेंट आफ मुस्लिम्स इन इंडिया (सीईपीईसीएएमआई), एएमयू के तत्वाधान में ’राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 और अल्पसंख्यक शिक्षा’ पर एक राष्ट्रीय वेबिनार आयोजित हुआ। 
मुख्य अतिथि राष्ट्रीय अल्पसंख्य आयोग के अध्यक्ष आतिफ रशीद ने कहा कि एनईपी-2020 देश के सभी बच्चों और युवाओं के भविष्य को बदलने के लिए समय की मांग थी। यह शिक्षा नीति सतत विकास के अनुरूप है तथा सभी वर्गों को समान अवसर प्रदान करती है और राष्ट्र के आत्मनिर्भरता अभियान की सफलता सुनिश्चित करती है। उन्होंने कहा कि नई शिक्षा नीति संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप है। धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों सहित सामाजिक-आर्थिक रूप से वंचित समुदायों में शैक्षणिक उत्थान और लाभ प्राप्त करने की क्षमता पैदा करेगी। 
कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए एएमयू कुलपति, प्रो तारिक मंसूर ने कहा कि व्यापक सुझावों पर विचार करने के बाद पूरे देश में एनईपी को बड़े पैमाने पर स्वीकार किया। उन्होंने कहा कि एक लोकतांत्रिक देश में किसी भी विषय पर राष्ट्रव्यापी सहमति होना दुर्लभ है। गुणवत्तापूर्ण संस्थानों के विकास, नवाचार की संस्.ति को अपनाने तथा अत्यधिक कुशल कार्यबल बनाने की प्रक्रिया को तेज करने के लिए राष्ट्रीय शिक्षा नीति को सही समय पर पेश किया गया है। कुलपति ने कहा कि अच्छे स्कूलों की कमी, गरीबी, सामाजिक कारकों, रीति-रिवाजों, भाषाओं और भौगोलिक कारणों से अल्पसंख्यक शिक्षा में पिछड़ गए। एनईपी को स्कूल और उच्च शिक्षा में अल्पसंख्यक प्रतिनिधित्व बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करने के लिए डिजाइन किया गया है। उन्होंने नीतियों का मसौदा तैयार करने, उर्दू भाषा को बढ़ावा देने, धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यक समुदाय के लिए समान अधिकार में सामुदायिक भागीदारी के महत्व पर भी बात की। 
प्रोफेसर एसके. सिंह (पूर्व कुलपति, गढ़वाल विश्वविद्यालय, पूर्व डीन, विज्ञान संकाय, एएमयू) ने कहा कि एनईपी-2020 एक समावेशी नीति है, जो भारत की शिक्षा में एक आदर्श बदलाव लाएगी। इस नीति में वह सब शामिल है जो भारत को भविष्य में विकास के मार्ग पर प्रशस्त करने और हमारी युवा आबादी की शिक्षा जरूरतों को पूरा करने के लिए जरूरी है। यह नीति सीखने के ऐसे माहौल का निर्माण करने के लिए एक दूरगामी .ष्टिकोण तैयार करेगी जो बहु-विषयक हो तथा जो भारत के मानव संसाधन विकास को पूंजी में बदलने की अपार क्षमता रखता हो। प्रो. सिंह ने कहा कि एनईपी में अल्पसंख्यकों के लिए पर्याप्त प्रावधान है, लेकिन नीति में उर्दू और अरबी का बहिष्कार नहीं होना चाहिए। इन भाषाओं को शास्त्रीय भारतीय भाषाओं की तरह शामिल किया जाना चाहिए। 
पीए इनामदार (अध्यक्ष, महाराष्ट्र कॉस्मोपॉलिटन एजुकेशन सोसाइटी) ने कहा कि समझना जरूरी है कि प्रत्येक भारतीय एक तरह से जातीय, भाषाई और धार्मिक आधार पर अल्पसंख्यक है। उन्होंने कहा कि यह सोचने और विचार करने का समय है कि संविधान के मापदंडों के भीतर नई नीति कैसे लागू की जाएगी और यह हमारे शिक्षण और सीखने को कैसे बदलेगी। जफर महमूद (अध्यक्ष, जकात फाउंडेशन आफ इंडिया) ने उर्दू और कश्मीरी भाषाओं को शामिल करने पर जोर दिया, जिनका नीति में विशेष उल्लेख है और अरबी को वहां उल्लिखित विदेशी भाषाओं में शामिल किया गया है। उन्होंने कहा कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 347, 350 और 350 ए के आलोक में उन भाषाओं पर ध्यान दिया जाना चाहिए जो बड़ी संख्या में नागरिकों द्वारा बोली जाती हैं। उन्होंने बताया कि 2011 की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार विभिन्न भारतीय राज्यों में उर्दू भाषा बोलने वालों की संख्या 13.5 करोड़ है। 
 

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