देहरादून । उत्तराखंड में भाजपा नेतृत्व ने पुष्कर सिंह धामी को मुख्यमंत्री बनाकर अपना आखिरी चुनावी दांव खेल दिया है। तीरथ सिंह रावत को उपचुनाव न हो पाने के जिस कारण से हटाया है, दरअसल पार्टी ने उसके लिए कोई प्रयास ही नहीं किए। उसे आशंका थी कि कहीं तीरथ सिंह चुनाव न हार जाएं। चुनावी साल में तीरथ सिंह रावत के विवादित बयान, उनका ढीला ढाला रवैया और सरकार पर मजबूत पकड़ न होना भी नेतृत्व परिवर्तन की एक बड़ी वजह रही। भाजपा के इस दांव से विपक्षी दलों का गणित गड़बड़ा सकता है। भाजपा नेतृत्व में इस साल की शुरुआत में उत्तराखंड को लेकर जो रणनीति बनाई थी, उसमें पार्टी के भीतर असंतोष और विरोध के चलते त्रिवेंद्र सिंह रावत को हटाना जरूरी समझा गया, लेकिन उनके विकल्प के तौर पर लाए गए तीरथ सिंह रावत उम्मीदों पर खरे नहीं उतर पा रहे थे, यही वजह है कि चार महीने के भीतर तीरथ सिंह रावत को अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी। चूंकि रावत को सरकार चलाने का ज्यादा मौका ही नहीं मिला। इस दौरान वे कुंभ और कोरोना से जूझते रहे। ऐसे में उनके कामकाज को लेकर तो कोई सवाल ही खड़े नहीं हुए, बल्कि उनके अपने बयान और ढीला ढाला रवैया ज्यादा जिम्मेदार रहा। मई के पहले सप्ताह में जब पांच विधानसभा चुनाव के नतीजे आए तब भाजपा ने एक बार फिर से अपनी भावी चुनावी तैयारियों की समीक्षा की। इसमें उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड दोनों को शामिल किया गया।
उत्तराखंड में नेतृत्व परिवर्तन को जरूरी समझा गया और उसके लिए पार्टी नेतृत्व में नए नेता की तलाश शुरू कर दी। इस बीच राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में भी नई टीम आ गई थी और उसकी सलाह के बाद पुष्कर सिंह धामी का नाम उभरा। हालांकि, धामी को सरकार का अनुभव नहीं है, क्योंकि वह अभी तक मंत्री ही नहीं बने। दूसरी बार के विधायक बने धामी को सड़क पर उतरकर आक्रामक तेवरों के लिए जाना जाता है। पार्टी को आने वाले छह महीनों में चुनाव के दौरान उनके ऐसे ही तेवर की जरूरत है। संघ के एक बड़े नेता की सहमति भी इसमें महत्वपूर्ण रही है। धामी के राजनीतिक गुरु माने जाने वाले पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी का राज्य में अपना एक अलग प्रभाव है और इसका लाभ भी धामी को मिल सकता है। हालांकि, भाजपा के भीतर की गुटबाजी उनके लिए दिक्कतें पैदा कर सकती है। एक तो उनकी सरकार में उनसे वरिष्ठ मंत्री होंगे और दूसरा संगठन में भी काफी वरिष्ठ लोगों से उनको समन्वय बनाना पड़ेगा। ऐसे में उनको बार-बार केंद्रीय नेतृत्व की मदद की जरूरत पड़ सकती है।
सूत्रों के अनुसार, तीरथ सिंह रावत पार्टी आलाकमान के निर्देश मानने और विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए पूरी तरह तैयार थे, लेकिन केंद्रीय नेतृत्व को यह आशंका थी कि कहीं वह चुनाव न हार जाएं, जिससे कि पूरे विधानसभा चुनाव की रणनीति बिगड़ सकती है। कहीं न कहीं तीरथ सिंह रावत खुद भी पूरी तरह आश्वस्त नहीं थे। रावत के तीन दिन के दिल्ली प्रवास के दौरान एक बार तो उपचुनाव का मन बना, लेकिन बाद में परिवर्तन का फैसला हुआ। पार्टी नेतृत्व को इस बात का भी डर था कि चुनाव के दौरान तीरथ सिंह रावत का कोई अटपटा बयान देकर नई मुसीबत न खड़ी कर दें। इसके पहले भी वह अपने बयानों से ज्यादा चर्चा में रहे।
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पुष्कर सिंह धामी को सीएम बनाकर भाजपा ने चुनाव के पहले खेला आखिरी दांव