चांद की दसवीं तारीख को ईद-उल-अजहा (बकरीद) का त्योहार मनाया जाता है। 21 जुलाई को देशभर में मनाया जाएगा कुर्बानी का त्योहार इस तरह 21 जुलाई को देशभर में यह कुर्बानी का त्योहार मनाया जाएगा।
इस्लाम में ईद के बाद इस त्योहार का बड़ा महत्व है। इस दिन पैगंबर हजरत इब्राहीम की याद में बकरे या बड़े जानवर की कुर्बानी दी जाती है। कहा जाता है कि हजरत इब्राहीम को कई मन्नतों बाद एक औलाद पैदा हुई जिसका नाम उन्होंने इस्माइल रखा। एक रात ख्वाब में हजरत इब्राहीम से अल्लाह ने उनकी सबसे सबसे प्यारी चीज की कुर्बानी मांग ली। अल्लाह के हुक्म पर वह अपने बेटे की कुर्बानी देने को तैयार हो गए। बेटे की कुर्बानी देने के वक्त हजरत इब्राहीम ने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली। कुर्बानी देने के बाद जब हजरत इब्राहीम ने अपने आंखों से पट्टी हटाई तो देखा कि उनका बेटा तो जिंदा है और बेटे की जगह अल्लाह ने एक दुंबे (एक जानवर) को कुर्बान कर दिया था। यहीं से इस्लाम में इस रिवायत की शुरुआत हुई।
मै विगत ३५ वर्षों से शाकाहार ,जीवदया अहिंसा पर भारतीय शाकाहार परिषद् के नाम से और अब शाकाहार परिषद् भोपाल के नाम से अकेले काम कर रहा हु। पहले सागर ,रहली मै काम किया ,और अभी भी कर रहा हु.
विगत ३४ वर्षों का अनुभव कम नहीं होता। शाकाहार जागृति नाम का एक बुलेटिन भी निकलता हैं सागर से। मै अकेले यह काम कर रहा हु कारण ये विषय ऐसे हैं जिसे मै नीरस मानता हु पर मैंने उसे सरस बनाया. नीरस ऐसे जैसे आप किसी को अंडा ,मांस, मछली, शराब, बीड़ी ,सिगरेट को मना करो तो वह चिढ़ता हैं अपने परिवार मै। नाते रिश्तेदारों को समझाओ भाई ,बहिनो सिल्क की साड़ी न पहनो , लिपस्टिक न लगाओ,चमड़े की चप्पल न पहनो, ब्रेड मत खाओ ,तो वही से विवाद शुरू हो जाता हैं। आप अपने परिवार जनों को नहीं समझा सकते। मेने ३४ वर्षों से चमड़े के जूते, बेल्ट ,पर्स ,बैग आदि का त्याग कर दिया इसी पर विरोध ,तुम्हारे अकेले से क्या होगा ?हमारी समाज जैन समाज को अधिक समझने की जरुरत नहीं होना चाहिए पर आज उन्हें अधिक समझाना जरुरी हैं मै नहीं मानता की हमारी समाज मै ये बुराइया नहीं हैं पर अछूती भी नहीं कह सकते। यह आत्म चितन ,मनन का विषय हो सकता हैं।
अब मूल मुद्दे की बात करूँगा की जैसे आप बिना मंदिर के दर्शन किये बिना नहीं रह सकते पर हजारों लोग रहते हैं ,नहीं जाते मंदिर। मानवीय स्वाभाव हैं विरोध करना। "हमने सीखा हैं हमें झूठ नहीं बोलना चाहिए ,हमें सच बोलना चाहिए यह नहीं सिखाया गया। " मेने एक लेख लिखा हैं"अंडे खाओ और ह्रदय रोग बुलाओ" बहुत चर्चित हुआ। सबने आश्चर्य से पढ़ा और टिप्पणी की। आप अपने आपको पूर्ण शाकाहार कहते हैं पर मैं नहीं मानता कारण इतनी जागृति के बाद भी हमें और जगाना होगा. हमारे संत,मुनि ,विद्वान खूब बताते हैं ,समझते हैं पर हम नहीं समझते उसका एक कारण आर्थिक सम्पन्नता। हम अपने अपने द्वीप मै रह कर प्रसन्न हैं. गरीब यदि कुछ गलत करता हैं तो पाप और रईस /समाज सुधारक/ धर्म के ठेकेदार करे तो वह शौक। शाकाहार जैसे मुद्दे पर अपनी समाज को समझाना पड़ रहा हैं। कितने समाज के लोग चमड़े का त्याग किये हैं ,कितने सिल्क कोसा का त्याग किये हैं कितने लिपस्टिक का त्याग करे कितने ब्रेड बिस्कूट नहीं खाते ? अभी पंडाल के बाहर देखो आचार्य श्री के चातुर्मास मै। आप अपनी आदत नहीं सुधार सकते और हम अन्य समाज के लोगों से अपेक्षा रखे की वे हज़ारों वर्षों की परम्परा को त्याग दे।
अभी आप सिंधी पंजाबी लोगों से कह कर देखो की आप शराब ,मांस कहना छोड़ दो उनके यहाँ ये अनिवार्य हैं। कुछ हिन्दू समाज मै ऐसे जातिया हैं वे मांस भक्षण करती हैं। हमारे पूर्व प्रधान मंत्री जी श्री अटल बिहारी बाजपेयी जी स्वयं मांस भक्षण करते थे और हैं.ऐसे हजारो उदाहरण हैं
अब प्रश्न बकरीद पर बहुत पोस्ट वाट्सएप्प ,फेस बुक आदि पर आयी और सबने अपने अपने तर्क दिए की यह नहीं होना चाहिए। मै भी सहमत हूँ की अनावश्यक हिंसा नहीं होना चाहिए पर परम्परा को आप एक दिन में नहीं बदल सकते जैसे आप अपनी परम्परा के नहीं बदल सकते। इस काम मै व्यकिगत चर्चा से बहुत सफल हल निकलता हैं। मेरे द्वारा अनेकों को तर्क ,साहित्य से समझाया और उनको कहा खूब खाओ और मौत बुलाओ। अभी नहीं छोड़ोगे तो बाद मै इससे उनके ऊपर प्रभाव पड़ा। आप समूह में विरोध करोंगे तो सब एक विचारधारा के नहीं होते वे आपका विरोध करेंगे। क्योकि यह सामजिक प्रतिष्ठा का प्रश्न हैं ,इसे व्यक्तिगत रूप से समझाओगे तो समझेंगे, जिसे आप हिंसा कहते उसे वे अपना धर्म मानते। वास्तव में यह धार्मिक न होकर स्वास्थ्य से सम्बंधित हैं और यह आर्थिक सम्पन्नता का सूचक हैं। मुसलमानों में भी जो गरीब हैं वे नहीं खा सकते पर हमारी संपन्न समाज ही इन पर पैसा व्यय करता हैं और कर सकता हैं।
यह विषय आस्था से जुड़ा हैं इसलिए इस प्रकार का विरोध मेरे मत से ठीक नहीं हैं। उनके लोग भी हमारे बारे में कटाक्ष करते हैं की आपके यहाँ नग्नता का क्यों चलन हैं ? अब आप इसको उन्हें समझाओ वो नहीं समझ सकते जैसे वे ईद मै मांस खाना क्यों जरुरी हैं ?
इसका समाधान मैंने सोचा ,समझा सबसे पहले हम लोग यदि चमड़े के जूते चप्पल ,बेल्ट, पर्स से शुरुआत करे तो इनके नाम से कटने वाले जीव की हत्या रुक सकेगी। एक एक बूँद से सागर भरता हैं इसकी शुरुआत अपनी समाज से शुरू करो व्यापारी रोना शुरू कर देंगे। ब्रेड बिस्कूट इत्र ,परफ्यूम। सिल्क कोसा की साड़ी का त्याग करो बस फिर देखो मजा। हम पहले खुद सुधरे फिर दूसरों को प्रवचन दे।
अनावश्यक तर्कों से कोई सुधार नहीं होगा। जब तक उनमे स्वयं जाग्रति ,समझ ,ज्ञान लाभ हानि की जानकारी नहीं आएंगी. हमें भी कई क्षेत्रों मै सुधरने की जरुरत हैं। हम दूसरों पर एक ऊँगली दिखाते हैं तो चार ऊँगली अपनी ओर हैं।
इस विश्वास के साथ लेख लिख रहा हूँ की अब मुस्लिम समाज भी अनावश्यक हिंसा पसंद नहीं करती और कई मुसलमान मित्रों ने इस बात से इत्तफ़ाक़ रखकर बकरीद में मांस खाना और काटना बंद किया। इस पर आप विरोध न करे जन जाग्रति की जरुरत हैं और इसका प्रतिकूल असर हमारे स्वास्थ्य के साथ मन पर भी पड़ता हैं। क्रूरता के भाव आते हैं और कहीं नहीं लिखा हैं की आप जीवहिंसा करे पर कुछ मान्यताओं ने इस प्रथा को स्वीकार कर करोड़ों जीवों की हिंसा की जाती हैं और यह एक प्रकार से मानव जाति पर कलंक भी कह सकते हैं।
खूब काटो खूब खाओ ,
कितने काटे और काटोगे
कभी सोचा या अहसास किया
कैसा लगता हैं जब काटते और खाते हो
उनमे अपने खून का अहसास नहीं होता
जब अपनी औलाद के साथ यह व्यवहार हो
तब सोचो सोचो क्या बीतेगी और या बीती
जो हुआ सो हुआ आगे का विचार करो
अन्यथा वह घास खाती तो कटती हैं
तुम उसको खा रहे हो तो क्या होगा
आखिर में तुम्हे भी अपने कर्मों का हिसाब देना होगा
सबके पीछे सी सी टी वी लगी हैं
उससे कोई नहीं बचाएगा।
विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन, संरक्षक शाकाहार परिषद् A2 /104 पेसिफिक ब्लू नियर डी मार्ट, होशंगाबाद रोड ,भोपाल 462026 (लेखक-विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन)
आर्टिकल
बकरीद पर बकरो का वध करना कितना उचित ?