बीजिंग । अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी ने चीन को अवसर और चुनौती दोनों के साथ प्रस्तुत किया है। अफगानिस्तान में 20 साल की मौजूद हाल ही में अमेरिकी सेना की वापसी ने तालिबान के लिए अफगानिस्तान के विशाल क्षेत्रों पर कब्जा करने का मार्ग प्रशस्त किया है। अंतिम गणना में इसके 400 जिलों में से लगभग 223 पर तालिबान का कब्जा हो चुका और यह अंततः काबुल सरकार के लिए खतरे की घंटी है। चीन के लिए ये अवसर इसकारण है क्योंकि चीन आंशिक रूप से पश्चिम द्वारा खाली की गई शक्ति को भर सकता है।वहीं चुनौती इसकारण क्योंकि तालिबान एक आतंकवादी संगठन है जिसका इस्लामिक आतंकवादी समूहों से ऐतिहासिक संबंध है। चीन का मानना है कि अगर अफगान में तालिबान का प्रभुत्व बढ़ता हैं, तब इसका सीधा असर उइगर मुस्लिमों के आंदोलन पर पड़ेगा। चीन को डर है कि उइगर मुस्लिमों को लेकर आतंकी संगठन चीन पर दबाव बना सकते हैं। दूसरे, अफगानिस्तान में तालिबान के प्रभुत्व का असर चीनी निवेश पर पड़ेगा।
इस बीच हाल में तालिबान ने कहा है कि अफगानिस्तान चीन को दोस्त मानता है। तालिबान ने कहा है कि वह चीन के शिनजियांग प्रांत में उइगर इस्लामिक आतंकवाद को बढ़ावा नहीं देगा। इसके अलावा चीन के निवेश की सुरक्षा का भी वादा किया है। तालिबान का यह बयान उस वक्त आया जब अफगानिस्तान में तालिबान के बढ़ते प्रभाव से चीन चिंतित है। तालिबान के इस बयान से चीन ने जरूर राहत की सांस ली होगी। विशेषज्ञों का कहना है कि चीन की बड़ी चिंता दोनों देशों की मिलने वाली एक लंबी सीमा रेखा है।
चीन की शिनजियांग प्रांत की आठ किलोमीटर सीमा अफगानिस्तान से जुड़ी हुई है।ड्रैगन को भय सता रहा है कि तालिबान के शासन में अफगानिस्तान ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट का केंद्र बन सकता है। खास बात यह है कि इस अलगाववादी संगठन का संबंध खूंखार आतंकवादी संगठन अल-कायदा से भी है। दूसरे, चीन का शिनजियांग प्रांत संसाधनों से भरपूर है। चीन इस बात को लेकर भय सता रहा है कि शिनजियांग प्रांत में आइएस का प्रभाव बढ़ा तो दिक्कत हो सकती है।
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तालिबान का प्रभाव बढ़ना, चीन के लिए फायदा और नुकसान दो तरह का