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गुरु पूर्णिमा का महत्व   

गुरु पूर्णिमा का महत्व   

अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानांजन शलाकया।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम:।।
अर्थात् जिसने ज्ञानरूपी शलाका (सलाई) से अज्ञानरूपी अन्धकार के कारण बन्द, आँखों को खोल दिया उन गुरुओं को नमस्कार है।
भारतीय पंचांग में पूर्णिमा प्रति माह आती है, परन्तु आषाढ़ मास की पूर्णिमा का हमारी सनातन संस्कृति में विशेष महत्व है। इसे गुरुपूर्णिमा की संज्ञा दी गई है। इस दिन जगत् गुरु वेदव्यास जो साक्षात् नारायण के स्वरूप हैं के प्राकट्य का उत्सव है। वे सर्वदा अजर-अमर हैं। उनकी गणना अष्ट चिरंजीवियों में की जाती है-
अश्वत्थामा बर्लिव्यासो हनूमांश्च विभीषण:।
कृप: परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविन:।।
सप्तैतान संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेय तथाष्टमम्।
जीवेद्वर्षशतं सोपि सर्वव्याधि विवॢजत:।।
अर्थात् अश्वत्थामा, बलि, वेदव्यासजी, श्रीहनुमानजी, रावण के भाई विभीषण, राजगुरु कृपाचार्य, परशुरामजी, श्रीमार्कण्डेयजी इन अष्टमहापुरुषों का प्रतिदिन स्मरण करने से सभी व्याधियाँ समाप्त हो जाती हैं। ये सभी महापुरुष चिरंजीवी हैं और अद्यपर्यन्त पृथ्वी पर विचरण कर रहे हैं। इनके स्मरण से भक्त की आयु शताधिक होती है। उच्च कुलगुरुओं के कुल में इनका अवतरण हुआ था। व्यासजी वसिष्ठजी के प्रपोत्र, शक्ति ऋषि के पौत्र, पाराशरजी के पुत्र तथा शुकदेव जी के पिता हैं। पुराणों के कथनानुसार इनका अवतरण यमुना के द्वीपों में हुआ इसलिए इन्हें द्वैपायन भी कहा जाता है। ये श्याम वर्ण के थे इसलिए इन्हें कृष्णद्वैपायन संज्ञा दी गई। श्रीशंकराचार्य, श्रीगोविन्दाचार्य तथा श्रीगौड़पादाचार्य आदि महान् विभूतियों के व्यासजी गुरु रहे हैं। इन्होंने ही प्रसिद्ध ग्रंथ महाभारत की रचना की है। श्रीगणेशजी ने महाभारत के लेखन का कार्य किया है। वेदव्यासजी अनवरत बोलते जाते थे और श्रीगणेशजी बिना रुकावट लिखते जाते थे। यह विश्वप्रसिद्ध ग्रन्थ तीन वर्ष से भी अधिक समय में पूर्ण हुआ। इसके अतिरिक्त व्यासजी ने पुराण, उपपुराण, इतिहास, व्यास स्मृति, ब्रह्मसूत्र, योगदर्शन, धर्मशास्त्र आदि अनेक ग्रंथों का प्रणयन किया है। विद्वानों का कथन है, 'व्यासोच्छिष्टं जगत् सर्वम्। व्यासजी ने जिन विषयों पर लेखन कार्य किया है, वह अन्यत्र उपलब्ध नहीं है। व्यासजी का कथन सर्वत्र अकाट्य है।
धर्म तत्व के विषय में जो लिखा गया है, वह व्यासजी की लेखनी का ही चमत्कार है। आचार संहिता, धर्मशास्त्र, षोड़श संस्कार, स्मृति वाङ्गमय, ब्रह्मचर्य नियम, विवाह विधि, कन्या के लक्षण, गृहस्थ धर्म, ब्राह्मण के नियम आदि अनेकादि अनेक विषय पर व्यासजी की रचनाएँ उपलब्ध हैं। व्यासजी द्वारा दान पर लिखा गया ग्रन्थ अत्यन्त दिव्य है और सुज्ञ पाठकों के लिए प्रेरणादायी है। व्यासजी का कथन है धन को बढ़ाकर रखने से अच्छा है उसका कुछ भाग दान किया जाए। शरीर नश्वर है, अत: धर्म की वृद्धि करो धन की नहीं। मानव जीवन के दैनिक कार्यों का भी उन्होंने विश्लेषण किया है।
व्यासजी हमारे अनेक शताब्दियों पूर्व के पूर्वजों के गुरु हैं और आज भी अपने परम गुरुपद पर प्रतिष्ठित हैं। उन्हीं के सम्मान में भारत की वर्तमान पीढ़ी पूर्णिमा के पावन दिवस पर व्यासपीठ का सम्मान पूजन करती है। अपने गुरुजनों, माता-पिता तथा वृद्धजनों का पाद पूजन कर उन्हें श्रीफल, कण्ठमाला अर्पित कर उनसे अपने उज्ज्वल भविष्य के लिए अशीर्वाद ग्रहण करती है और भावी पीढ़ी को भी इस बात का संदेश देती है कि गुरु पूजन जैसे इस पावन पर्व को हम श्रद्धा भक्ति से मनाकर अपने जीवन को सार्थक करें। निम्नांकित पंक्तियाँ यहाँ उद्धृत करना समीचीन है-
'तं नमामि महेशानं मुनिं धर्म विदां वरम्।
श्यामं जटाकलापेन शोभमानं शुभाननं।।
मुनीन् सूर्य प्रभान् धर्मान् पाठयन्तम् सुअर्चनम्।
नानापुराण कर्तारं वेदव्यासं महाप्रभम्।।
(बृहद्धर्म पुराण १/१/२४-२५)
अर्थात् 'जो धर्म के निगूढ़ तत्व को जानने वालों में सर्वश्रेष्ठ हैं, जिनका वर्ण श्याम है और जिनका मंगलकारी मुखमंडल जटाजूट से सुशोभित है तथा जो सूर्य के समान प्रभा वाले मुनियों को धर्म शास्त्र का पाठ पढ़ाने वाले हैं, ज्योतिर्मय हैं, अत्यन्त कान्तिमान हैं, सभी पुराणों उपपुराणों के रचयिता हैं उन महेशान वेदव्यासजी को बारंबार नमस्कार है।
गुरु पूर्णिमा हमारे शिक्षकों और आध्यात्मिक गुरुओं को स्मरण करने और उनके द्वारा सिखलाए गए सन्मार्ग पर चलकर आत्मोन्नति करने का पर्व है। यह भारत के साथ ही नेपाल, भूटान आदि देशों में भी गुरु के प्रति अपनी कृतज्ञता, आदर और सम्मान प्रकट करने हेतु मनाया जाता है। भारत के लगभग सभी धर्मावलम्बी व्यक्ति इस पूर्णिमा को गुरु-शिष्य परम्परा का निर्वाह करते हुए गुरु पूजन करते हैं। अनेक परिवारों में गुरु पूर्णिमा के दिन भैरव पूजन किया जाता है। यह भी गुरु पूजन का ही एक स्वरूप है। कबीरदासजी गुरु के स्वभाव के बारे में कहते हैं-
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढि गढि कोठे खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोंट।।
(कबीर वाणी)
अर्थात् कुम्हार जिस प्रकार अनगढ़ मिट्टी को तराशकर उसे सुन्दर घड़े की शक्ल प्रदान करता है। उसे बाहर से चोट मारकर आकृति प्रदान करता है और अंदर से थपथपाकर उसे सहारा देते जाता है उसी प्रकार गुरु भी शिष्य को हृदय से प्यार करता है, परन्तु बाहर से कठोर शब्दों का प्रयोग कर उसकी कमियों को दूर कर उसे एक अच्छा विद्यार्थी, एक सभ्य नागरिक बनाता है।
मध्यप्रदेश का उज्जैन शहर योगेश्वर श्रीकृष्ण की विद्यास्थली रहा है। यहां मंगलनाथ रोड पर स्थित सांदीपनि आश्रम इस बात का प्रत्यक्ष उदाहरण है। यहाँ श्रीकृष्णजी ने बलराम, सुदामा आदि मित्रों के साथ सम्पूर्ण कलाओं की शिक्षा प्राप्त की थी और सभी विधाओं में पारंगत हुए थे। प्रतिवर्ष यहां गुरु पूर्णिमा पर गुरु शिष्य परम्पराओं का निर्वहन करते हुए व्यास-पीठ पर विधिपूर्वक गुरुपूजन किया जाता है। उज्जैन सांदीपनि आश्रम समिति तथा उज्जैन जिले के शिक्षा विभाग के अधिकारीगण इस कार्यक्रम की सहभागिता करते हैं। इस वर्ष यहां पर मेधावी विद्यार्थियों का सम्मान किया जाएगा। प्रतिष्ठित तथा वरिष्ठ शिक्षकों को भी सम्मान के लिए आमंत्रित किया जाएगा। पद्मभूषण पं. सूर्यनारायण व्यास परिवार सांदीपनि गुरु के वंशज हैं। इनके परिवार से भी सदस्य यहां उपस्थित होकर पूजा अर्चना में सम्मिलित होते हैं। उनका यहाँ प्राचीन मंदिर भी है। उज्जैन नगर में प्राचीन बृहस्पति मंदिर भी है जो शहर के मध्य गोंदा की चौकी के समीप स्थित है। यहाँ भक्त जन गुरु महाराज के दर्शन करने बड़ी संख्या में प्रतिदिन आते हैं। गुरुवार के दिन यहां विशेष भीड़ रहती है। यह प्राचीन मन्दिर अत्यधिक चमत्कारिक है। हम भी निम्नलिखित श्लोक से श्री गुरु महाराज का वंदन करें-
देवानां च ऋषीणां च गुरुं कांचन सन्निभम्।
बुद्धिभूतं त्रिलोकेशं तं नमामि बृहस्पतिम्।।
महाकाल परिसर में श्री गुरु महाराज बृहस्तेश्वर मंदिर स्थित है।
स्कंद पुराण में गुरु की महत्ता के विषय में कहा गया है-
गुरौ तुष्टे च तुष्टा: स्युर्देवा: सर्वे सवासवा:।
गुरौ रुष्टे च रुष्टा: स्युर्देवा: सर्वे सवासवा:।।
(स्कंद पु.वै.ख. कार्ति.मा. २.३)
गुरु के प्रसन्न होने पर इन्द्र सहित सभी देवता प्रसन्न हो जाते हैं। गुरु के रुष्ट हो जाने पर इन्द्र सहित सभी देवता रुष्ट हो जाते हैं।
 (लेखिका- डॉ. शारदा मेहता )

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