आवश्यकता आविष्कार की जननी हैं। आज का मानव द्वन्द में जी रहा हैं उसका कारण वह भ्रांतियों के साथ विकास की सीढ़ी पर टेलीविजन के विज्ञापनों जैसा कुछ सेकण्ड्स में सब कुछ पाना चाहता हैं। पुराने समय में सीमित संसाधन ,विकास के बारे में सोच नहीं होती थी उसका कारण आर्थिक स्थिति ,शिक्षा का आभाव और संतुष्टि सबसे प्रमुख होती थी। पहले कच्चे घर में ही दो तीन पीढ़ियां सुख से अपना जीवन यापन कर लेती थी ,पुत्र के बच्चे कब बड़े हो जाते थे माँ बाप को पता नहीं होता था.एक साथ बैठकर खाना खाना ,आपस में बोल चालकर आपसी ज्ञान ,शिक्षा ,अनुभव की भागीदारी होती थी। कोई मुसीबत आने पर सामूहिक निराकरण किया जाता था..
समय परिवर्तनशील होता हैं। समय के विकास शिक्षा व्यवसाय नौकरी के क्षेत्र में पदार्पण किया ,घर से बाहर पढ़ने लिखने नौकरी करने निकले तो अघिकांश वही बस जाते या रम जाते। गंगा गए गंगादास और जमुना गए जमुनादास। नए शहर ,नए परिवेश। नयी शिक्षा ,नयी आर्थिक स्वंतत्रता के कारण पैतृक घर का मोह धीरे धीरे कम होने लगता हैं उसका कारण व्यस्तता के अलावा पूर्व से वर्तामन की सुविधाभोगी बनना। यही से एकल परिवार की शुरुआत होती हैं। व्यक्ति नए परिवेश ने नए संपर्कों के कारण प्राथमिकता बदलने लगती हैं। एक समय वह बहुत समय तक नौकरी व्यवसाय के कारण संपर्कों को अधिक महत्व देने लगते हैं। परिवार या कुटुंब से लगाव कम होने लगता हैं। वे एकाकी जीवन जीने के आदि होने लगते हैं।
समय कुलाटी मारता हैं जब उनके परिवार की वृद्धि होती हैं ,यदि युगल दंपत्ति सेवा में हैं तो बच्चों का लालन पालन का कोई विकल्प न होने से या तो वे अकेले रहने को मजबूर या अपने घर के सदस्यों की सेवा लेना या आजकल पालना घर का चलन होने से अपनी वेतन का बहुत बड़ा हिस्सा उस पर खरच करना पड़ता हैं। यह वह क्षण होता हैं जब आगामी पीढ़ी दुराव की ओर जाने लगती हैं। कारण पिता माता का संपर्क अपने परिवार या कुटुंब से होने लगता हैं।
बच्चों की परवरिश जिस परिवेश में रहने से उस जैसा होने लगता हैं। नौकरी व्यवसाय के कारण दुरी का होना या समय का आभाव के साथ लगाव का न होना प्रमुख कारणों में हैं ,उसके पीछे कभी कभी जायदाद का बंटवारा या मन भेद के कारण दुरी स्थापित हो जाती हैं। कभी कभी बच्चों को परिवारजन जानते पहचानते नहीं हैं। उसके बाद बच्चों बड़ा होना ,पढ़ाई का बोझ तो फिर उनको अपने पैतृक घर जाने का समय नहीं मिलने के कारण अकेले रहने के साथ अपनी सुख सुविधाओं के अनुरूप व्यवस्था न होने से रूचि का न होना उसका मूल कारण माँ बाप का भी रुझान न होने कारण।
इसके बाद पढाई करने बाहर जाना या विदेश जाना उसके बाद शादी होने के बाद अपने माँ बाप का अनुशरण करते हुए एकल जीवन जीने की आदत हो जाती हैं। दूसरी ओर माँ बाप ने बच्चों की शादी विवाह का योग्य बनाकर बाहर भेज दिया और अब एकाकी जीवन शुरू। जीवन की शुरुआत में पढाई लिखाई ,नौकरी व्यवसाय में समय का आभाव और बच्चों की शादी के बाद अलग थलग रहने से अपने पैतृक घर और कुटुम्बी जनो से दूर ,स्थानीय मित्र एक समय तक साथ देते हैं उसके बाद उपेक्षा होने लगती हैं।
इस अवस्था में एकाकी जीवन के कारण सामाजिकता का आभाव ,संपर्क न होने से मिलना जुलना कम और अपनी कोई बात किस्से कहे ,कारण पहले आपने बच्चों की नहीं सुनी। डांट डपट ,अनुशासन का भय से वे दूर होते चले जाते हैं। वे कभी अपने पुत्रों या पुत्रियों से अपेक्षा रखते हैं तो वे मन मसोस कर आंतरिक उपेक्षा भाव रखते हैं। यहाँ फिर इतिहास दुहराने की पुनरावृत्ति होती हैं। इस समय जब आप वृद्ध होने लगते हैं जब आपको सहारे की आवश्यकता होने पर कोई के पास समय न होने से कोई मदगार नहीं होता कारण आपने किसको कितनी मदद की ?
पहले माता पिता को अनाथालय भेजने का चलन था पर सरकारी नियमों के अनुसार आप माँ बाम को सेवा से वंचित नहीं कर सकते या फिर आपको उनकी सम्पत्ति से बेदखल होना पड़ेगा। ऐसी स्थिति में स्वस्थ्य वातावरण न मिलने से घुटन की जिंदगी जीते हैं। क्योकि पैसा जायदाद के कारण जो मन भेद के साथ मतभेद होने से मानसिक विखराव होने से प्रफुल्लित वातावरण न मिलने से दुखी भी रहते हैं। यदि संयुक्त परिवार में मिलजुलकर रहते तो बहुत कुछ हल निकल सकता हैं पर अपने अपने स्वाभाव और अहम के कारण जुड़ाव न होकर विखराव होने से ऐसी स्थिति निर्मित होती हैं। यह स्थिति कमोबेश सबके साथ हैं।
सम्पन्न ,वरिष्ठतम अधिकारी व्यवसायी होने के बाद उनसे कोई बात चीत संवाद नहीं करना चाहता। उस समय यह अहसास होता हैं
जब देने का मन हो और लेने वाला करीब न हो
जब सुनाने का मन हो और सुनने वाला करीब न हो
तब अहसास होता हैं कि
देने वाले से लेने वाला
सुनाने वाले से सुनने वाला
कितना कीमती होता हैं ?
पहली बात अपने परिवार में सुसंस्कारों का बीजारोपण करे ,बच्चे वो ही करते हैं जो देखते सुनते हैं ,आप अपने पिता माता को आदर नहीं देंगे तो आपको कैसे मिलेगा ?कभी नहीं। इसके साथ बड़े होने पर पुत्र पुत्रियों से मित्रवत व्यवहार करे और न केवल पुत्र पुत्रियों के अलावा अपने भाई बहिन नाते रिश्तेदार से भी अच्छा व्यवहार करने से वैसा ही प्रतिफल मिलेगा.
वर्तमान में इस समस्या का समाधान वरिष्ठ जन आश्रम जिसकी संरचना पेइंग गेस्ट जैसी हो गयी हैं। इस योजना में अधिकतर सम्पन्न लोग जिनके लड़के बच्चे स्वालम्बी हैं पर दूरस्थ रहते हैं कोई बात चीत करने वाला सहभागी न होने से सशुल्क समस्त सुविधायुक्त भवनों का निर्माण किया जा रहा हैं जिनका सञ्चालन वो लोग सेवानिवृत्ति या वृद्धावस्था के कारण संचित पूँजी से निर्माण कर उसमे रहने ,खाना पीना ,नाश्ता के साथ व्यायाम अपनी रूचि या शक्ति के अनुसार कर सकते हैं ,जरुरत पर चिकित्सा सुविधा भी महैया कराई जाती हैं। यहाँ सब एक अवस्था के लोग होने से सामूहिक चर्चा , बातचीत ,गोष्ठी ,विचारों का आदान प्रदान बिना किसी भय के करते रहते हैं।
यहां अधिकांश वे लोग जो सम्पन्न के साथ सेवानिवृत हैं और जिनकी स्थायी आमदनी होती हैं वे स्वंतत्रता पूर्वक अपना जीवन यापन करते हैं। यहाँ समूह में रहने से नए संपर्क बनने से फिर से ऊर्जावान बन जाते हैं। घर में परिवार में एक दो सहयोगी हो सकते हैं पर यहाँ पर आप अपनी विचार धारा ,रूचि वालों के साथ मंगल माय समय व्यतीत कर अंत समय अनेको सहयोगियों के साथ निर्विघ्न जा सकते हैं इसके आलावा आप आत्मकल्याण कि ओर भी अग्रसर हो सकते हैं।
जिन्होंने अपना जीवन अपने हिसाब से जिया
वो अपने आपकी अधीनता या पराश्रय नहीं स्वीकारते
इतिहास गवाह हैं कोई साथ नहीं देता
उपभोग करो इसीलिए अपने हिसाब से
सब कुछ होते हुए सब त्यागना
यह आकिंचन्य और त्याग का अभ्यास हैं
मोहरहित जीवन यापन करना सुख शांति का आधार हैं
इस चिंतन के दो पक्ष हैं निर्णय स्वविवेक पर ।
(लेखक-विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन )
आर्टिकल
(चिंतन) एकल परिवार या संयुक्त परिवार वर्तमान की आवश्यकता !