संस्कृत-धूम्रपुष्पी, हृत्पत्री, तिलपुष्पी; हिन्दी-तिलपुष्पी, डिजिटैलिस; गुजराती-डिजिटेलीस (Digitalis); तमिल-निलारप्पूकैयीलाई अंग्रेजी-पर्पल फॉक्सग्लव फेयरी फिंगर्स
परिचय
यह बालुकामय छायादार भूमि पर 1500-2500 मी की ऊँचाई पर तथा भारत में मुख्यत जम्मू-कश्मीर, दार्जिलिंग और नीलगिरि पहाड़ियों पर उत्पन्न होता है। इसका प्रयोग मुख्यरूप से हृदय विकारों की चिकित्सा में किया जाता है। इसके पुष्प तिल के समान होते है इसलिये इसको तिल पुष्पी कहते हैं। इसके पत्र हृदय के आकार के होते है इसलिये इसको हृदपर्णी भी कहा जाता है। यह 60-180 सेमी ऊंचा, द्विवर्षायु अथवा बहुवर्षायु शाकीय पौधा होता है। इसके पुष्प तिल के पुष्प के समान, घण्टिकाकार, बृहत्, अनेक, बैंगनी, गुलाबी, पीत, श्वेत तथा गहरे रक्त वर्ण के होते हैं।
गुण-कर्म एवं प्रभाव
हृत्पत्री तिक्त, कटु, शीत, लघु, रूक्ष, कफवातशामक, पित्तवर्धक, आक्षेपशामक तथा गर्भाशय संकोचक होती है।
यह हृदय को बल प्रदान करने वाली होती है।
औषधीय प्रयोग मात्रा एवं विधि
श्वसनतंत्र की बीमारीयों में तम्बाकू की तरह चिलम में भरकर पीने से यह अत्यन्त लाभकारी होता है, परन्तु यह प्रयोग लम्बे समय तक नहीं करना चाहिए; इससे मस्तिष्क में दुष्प्रभाव उत्पन्न हो सकते हैं।
इसके बीजों को जलते हुए कोयले में डालकर सूंघने से श्वासावरोध में लाभ होता है।
हृत्पत्री के पत्रों से प्राप्त अर्क (डिजिटेलिन) रक्ताधिक्यजन्य हृदयावरोध (उच्च या निम्न रक्त भार से सम्बद्ध या असम्बद्ध), हृक्षिप्रता एवं कपाट विकृति की चिकित्सा में अत्यन्त प्रभावी है।
तिलपुष्पी पञ्चाङ्ग में अर्जुन छाल मिलाकर काढ़ा बनाकर पीने से हृदयावरोध तथा हृदशूल में लाभ होता है।
तिलपुष्पी के 2-3 ग्राम पञ्चाङ्ग को सुखाकर, काढ़ा बनाकर प्रात सायं पीने से घबराहट तथा उच्चरक्तचाप में लाभ होता है।
वृक्कावरोध-हृत्पत्री का प्रयोग वृक्कावरोध की चिकित्सा में किया जाता है।
तिलपुष्पी पञ्चाङ्ग में पाषाणभेद मिलाकर चूर्ण बनाकर प्रात सायं जल के साथ सेवन करने से यह मूत्रल तथा वृक्कदोषों में लाभकारी होता है। (विषाक्त पौधा होने से प्रकृति तथा अनुपान के अनुसार अल्प मात्रा में प्रयोग करें।)
जलशोफ-हृत्पत्री का प्रयोग जलशोफ (Dropsy) के उपचार में किया जाता है।
प्रयोज्याङ्ग : पत्र तथा
मात्रा : चिकित्सक के परामर्शानुसार। चूर्ण ३० मिलीग्राम से ६० मिलीग्राम
संग्रहविधि :
हृत्पत्री के पत्रों का प्रयोग औषध के रूप में किया जाता है। फूल खिलने के बाद पत्तियों का संग्रह किया जाता है। पत्तियों को धूप में सुखाकर निर्वात डिब्बों में भरकर रख देते हैं। सूखी पत्तियों का चूर्ण हरे रंग का, किंचित् गन्धयुक्त तथा स्वाद में तिक्त होता है।
प्रयोगविधि :
हृल्लास, वमन, अतिसार या मन्द नाड़ी होने पर इसका प्रयोग कुछ दिनों के लिए बंद कर देना चाहिए। इसका प्रयोग आंशिक हृदयावरोध, मस्तिष्कगत रक्तस्राव तथा अन्तशल्यता में निषिद्ध है। रक्तभाराधिक्य में इसका प्रयोग सतर्कता से करना चाहिए।
विषाक्त लक्षण : इसके अतियोग से हृल्लास, वमन (हरे रंग का), अतिसार, मूत्राल्पता, शिरशूल, नाड़ीमन्दता एवं हृदय की अनियमितता आदि लक्षण उत्पन्न होते हैं।
विशेष : उचित मात्रा में इसका प्रयोग आक्षेपशामक होता है, किन्तु अत्यधिक मात्रा में इसका प्रयोग करने पर मस्तिष्कगत रक्तसंवहन में विकृति होने के कारण भम, शिरशूल, दृष्टिमांद्य तथा श्रवण विकार आदि लक्षण उत्पन्न होते हैं। इसके मात्रापूर्वक प्रयोग करने से हृदय की संकोचशक्ति बढ़ती है तथा हृदय की पेशियों का बल बढ़ता है। इसकी क्रिया हृत्पेशी, सिराग्रन्थि तथा आलिन्दनिलयगुच्छ पर विशेष रूप से होती है। हृत्पत्री को आयुर्वेद के अनुसार हृद रोगों में बहुत ही उपयोगी औषधि माना गया है। इसका क्वाथ या चूर्ण के रूप में या अनेक औषधि द्रव्यों के साथ तथा अनुपान के साथ मिलाकर सेवन करने से समस्त हृद विकारों में अत्यन्त लाभप्रद होती है, परन्तु विषाक्त होने से सावधानीपूर्वक तथा चिकित्सकीय परामर्श व निर्देशन के अनुसार ही इसका प्रयोग करना चाहिए।
(विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन)
आर्टिकल
(डिजिटालिस-बहुउपयोगी )डिजिटालिस--- हृत्पत्री लाभकारी वानस्पतिक नाम : (डिजिटेलिस परप्यूरिया) कुल : क्रोफूलेरिएस अंग्रेज़ी में नाम : फॉक्सग्लव