किसी व्यक्ति द्वारा ऑफिस में काम के प्रेशर की वजह से थका हुआ और शक्तिहीन महसूस करने की स्थिति को एक मेडिकल कंडिशन माना है। डब्ल्यूएचओ ने अपनी इंटरनैशनल क्लासिफिकेशन ऑफ डिजीजेज (आईसीडी) की लिस्ट में बर्न आउट को शामिल कर लिया है। इस लिस्ट में शामिल होने के बाद अब बर्न आउट बीमारियों की लिस्ट में शामिल हो गई है जिसके बाद अब इसे डायग्नोज भी किया जाएगा। डब्ल्यूएचओ ने साल 2018 में इंटरनैशनल क्लासिफिकेशन ऑफ डिजीजेज (आईसीडी) की लिस्ट तैयार की थी जिसे समय-समय पर अपडेट करने में दुनियाभर के हेल्थ एक्सपर्ट्स मदद करते हैं। दुनियाभर में लाखों लोग अपने काम से जुड़े हेक्टिक शेड्यूल की वजह से हद से ज्यादा थक जाते हैं और बर्न आउट फील करने लगते हैं। इन्टाइटी हेल्थ की तरफ से 1 हजार लोगों पर किए गए सर्वे में यह बात सामने आयी थी कि इनमें से करीब 40 प्रतिशत लोग हफ्ते में 3 बार काम की वजह से तनाव और स्ट्रेस महसूस करते हैं। जीनिवा के वर्ल्ड हेल्थ असेंबली के दौरान आधिकारिक रूप से बर्न आउट फील करने की स्थिति को एक हेल्थ इशू यानी बीमारी माना गया जिसके बाद हेल्थ एक्सपर्ट्स के बीच यह बहस अब बंद हो चुकी है कि बर्न आउट मेडिकल इशू है या नहीं। डब्ल्यूएचओ ने बर्न आउट को परिभाषित करते हुए कहा कि यह एक ऐसा सिंड्रोम है जो वर्कप्लेस पर होने वाले क्रॉनिक स्ट्रेस यानी काम के बहुत ज्यादा बोझ की वजह से उत्पन्न होता है और उसे सही तरीके से मैनेज न किया जाए तो व्यक्ति बर्न आउट की स्थिति में पहुंच जाता है। इस सिंड्रोम को 3 पहलुओं में विश्लेषित किया जा सकता है। पहला एनर्जी की बहुत ज्यादा कमी और थकान महसूस करना, दूसरा प्रफेशनल क्षमता और गुण में कमी आ जाना और तीसरा काम से मानसिक दूरी बढ़ना, अपने काम के प्रति मन में नकारात्मक भाव आना डब्ल्यूएचओ के डिजीज लिस्ट के लेटेस्ट अपडेट के मुताबिक बर्न आउट सिर्फ काम और व्यावसायिक कॉन्टेक्स्ट में बीमारी के तौर पर इस्तेमाल होने वाली घटना है और इसे जीवन के किसी और अनुभव को परिभाषित करने के लिए नहीं देखा जाना चाहिए।