नई दिल्ली । आजादी के बाद से ही सत्ता की कुंजी अपने पास रखने वाले ब्राह्मण समाज की इनदिनों पौबारह है। कमोबेश हर सियासी दल उन्हें अपने पाले में लाकर जीत का आशीर्वाद चाह रहा है। अतीत के सियासी समीकरण और उन्हें लेकर ब्राह्मण समाज का रुख तो कमोबेश सही सिद्ध करते हैं कि सियासी समर में जो भी दल सत्ता पाने का सशक्त विकल्प उन्हें दिखा, समाज उनकी ओर ही मुड़ जाता है। ऐसे में बड़ा सवाल है कि ब्राह्मण इस बार किस पाले में रहेंगे दरअसल कानपुर में विकास दुबे के एनकाउंटर के बाद से ही ब्राह्मणों के एक वर्ग में सुगबुगाहट तेज हो गई कि उन पर अत्याचार हो रहे हैं? इसे कांग्रेस से लेकर आम आदमी पार्टी ने जोरशोर से उठाया। कभी कांग्रेस में रहे जितिन प्रसाद को पार्टी ने ब्राह्मण चेतना यात्रा का जिम्मा सौंपा। वह ऐसे स्थानों पर कई बार गए, जहां ब्राह्मणों की हत्याएं हुईं। यह बात दीगर है कि कांग्रेस के बड़े ब्राह्मण चेहरे रहे जितिन प्रसाद अब भाजपा में हैं। यह देखना दिलचस्प है कि भाजपा कैसे उनके चेहरे का इस्तेमाल करती है। ब्राह्मण 1989 से पहले तक कांग्रेस की झोली में जाते रहे। कांग्रेस के ही छह ब्राह्मण मुख्यमंत्री बने। तीसरी विधानसभा में 1962 में जीते 60 ब्राह्मणों में से कांग्रेस के 42 विधायक थे। हालात में बदलाव मंडल कमीशन के आंदोलन के बाद आया। ब्राह्मणों का रुझान भाजपा की तरफ हुआ और वर्ष 1996 में कांग्रेस के पास महज़ चार ब्राह्मण विधायक ही रहे। कहना गलत न होगा कि जब-जब आरक्षण के बाद से उपजे दलों जैसे सपा, बसपा में ब्राह्मणों को वाजिब हक नहीं मिला तो ब्राह्मणों ने सीटवार एकजुटता की रणनीति अपनाई। वर्ष 1996 में भाजपा की झोली में 14 ब्राह्मण विधायक थे, जबकि वर्ष 2002 में यह ग्राफ मजबूत विकल्प मौजूद होने के चलते समाजवादी पार्टी में शिफ्ट हुआ। नतीजतन, सपा को वर्ष 2002 में हुए चुनाव में 10 ब्राह्मण विधायक मिले, जबकि भाजपा सिर्फ 8 पर रही। वर्ष 2007 में बसपा ने सोशल इंजीनियरिंग के जरिये ब्राह्मणों की इस सियासी ताकत का आहसास कराया और ‘ब्राह्मण शंख बजाएगा हाथी चलता जाएगा...’ का नारा देकर पार्टी ने 86 ब्राह्मणों को टिकट दिया और 41 जीते। नतीजा, बसपा सत्ता में आई।
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यूपी मिशन-2022 में किसे जीत का आशीर्वाद देंगे ब्राह्मण