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नवरात्र में सांझी की प्राण प्रतिष्ठा! 

नवरात्र में सांझी की प्राण प्रतिष्ठा! 

शरद नवरात्र की बेला पर
नवदुर्गा का आव्हान करूं
अखंड ज्योति जलाकर
तेरा मै गुणगान करूं
हे शक्ति स्वरूपा प्रथम देवी
जन मन को बदल दो तुम
कन्या भ्रूण हत्या न हो 
ऐसा वरदान दे दो तुम
कन्या पर जो  कुदृष्टि डाले
उनकी दृष्टि को हर लो तुम
तुम्हारा प्रतिरूप हो कन्याएं
उनमें संस्कार भर दो तुम।
नवरात्र का पर्व देवी पूजा के विभिन्न रूपो की साधना का अवसर है।जिसमे आस्था,लोकसंस्कृति, शिल्प कला और बच्चों में कलात्मक गुणों का समावेश करने की पुरातन परम्परा है।इन्ही में से एक है,नवरात्र पर देवी रूप में सांझी की स्थापना और फिर पूरे नवरात्र सांझी की लोकगीतों के साथ पूजा।देखिए एक बानगी,
'लिल्ली धोडी रे कौन फिरे सवार,मै था दुलीचन्द बोबो हे, सांझी का लेवणहार। बोबो थोडा पिला दे हे तेरा बीर प्यासा जाए।' नवरात्रों पर  हर घर में यह लोकगीत पुराने समय से गाया जाता है।सांझी की आरती के रूप में सुबह शाम गाये जाने वाले इस लोग गीत में कही न कही एक संदेश  है,साथ ही  भारतीय संस्कृति की अनूठी झलक भी इस गीत में देखने को मिलती है। श्राद्ध के अन्तिम दिन अमावस्या को देवी रूप में मिटटी से बनी मां सांझी को प्रतिष्ठित कर मां सांझी की पूरे नवरात्रों तक पूजा अर्चना की जाती है। पहले गांव हो या शहर, घर लडकियां कच्ची मिटटी से नई नई डिजाईन व नये नये साज श्रंगार के साथ सांझी तैयार करती थी।  सांझी के साथ चांद तारे से लेकर कई आकृतियां सजाई जाती थी। जो शिल्पकला का अदभुत नमूना होता है।
श्राद्ध पक्ष आते ही सांझी बनाने का सिलसिला शुरू हो जाता है और नवरात्र से एक दिन पहले गोबर से चिपकाकर दिवारों पर सांझी लगाई जाती है।समय के साथ सांझी भी हाईटेक हो गई है। अब सांझी घरो में बनाने के बजाए बाजार से खरीदकर लगाई जाती है।एक सांझी 50 रूपये से 500 रूपये तक आसानी से मिल जाती है। ऐसे में सांझी को घर में बनाने की परम्परा अब खत्म प्रायः हो गई है।जिससे घर की लडकियां सांझी बनाने की शिल्पकला से वंचित हो  गई है। एक बोध कथा के अनुसार, सांझी एक गरीब परिवार में जन्मी  एक ऐसी लडकी थी, जिसे ससुराल भी गरीब ही मिली।
ससुराल में सांझी को कई झूठे इल्जाम और ताने सहन करने पडतें थे। यानि सांझी को ससुराल में प्रताडित किया गया। सांझी को मायके लिवाने जब उसका भाई दुलीचन्द उसकी ससुराल आया तो उससे सांझी की पीडा देखी नही गई। हद तो तब हो गई जब ससुराल वालों ने सांझी को उसके भाई के साथ भेजने से इंकार कर दिया।सांझी जिद पर अड गई और भाई दुलीचन्द के साथ मायके चली गई । जहां पहुंचने पर सांझी की आरती उतारकर पूरे गांव ने स्वागत किया। सांझी के मायके में स्वागत के दौरान चना जिसे चाब कहा जाता है,का प्रसाद बाटा गया । तभी से यह पर्व मनाने और पर्व पर चाब के रूप में भीगे हुए चने बांटने की परम्परा है।
राधा बल्लभ संप्रदाय के अनुयायी सांझी को राधा कृष्ण की प्रेम भक्ति के रूप व्याख्यायित करते है तो कही कही सांझी की पूजा 16 दिनों तक किये जाने की भी परम्परा है। लोक कथाओं के साथ साथ लोक गीतों में कालजयी सांझी की कथा सहज ही समझ में आ जाती है। सांझी की आरती सुबह शाम करते समय प्रार्थना के रूप में जो लोक गीत गाए जाते है उन लोक गीतो की एक बानगी देखिए, चाब दे री चाब दे सांझी की मां चाब दे , तेरी सांझी जीवे चाब दे । इसी तरह आरता री आरता सांझी मां आरता । गाकर सांझी मां की पूजा की जाती है।
इसी सांझी मां की प्रतिमा के सामने सांझी स्थापना के अगले दिन कच्ची मिटटी में जौ बोये जाते है। प्रतिदिन सुबह शाम सांझी को स्नान कराते समय व भोग लगाते समय इन बोये गए जौ में नियमित पानी छिडकने से जौ अकंुरित होकर पौधा बनने लगता है जिसे नोरते कहते है। चूंकि दशहरे तक ये नोरते काफी बडे हो जाते है इस लिए इन्ही नोरतों से दशहरे की पूजाकर कर बहने अपने भाईयों के कानो पर नोरते रखकर उनकी दिर्धायु की कामना करती है और बदले में भाई अपनी बहन को सोगात देता है। हांलाकि सांझी प्रतिमा को दशहरे से एक दिन पूर्व ही श्राद्धाभाव से उतारकर किसी दरिया में विर्सजित कर दिया जाता है।घर की लडकिया सांझी प्रतिमा को विर्सजित करते समय उदास भी होती है क्योंकि उन्होने सांझी की प्रतिमा को बडे परिश्रम व उत्साह से बनाया था। परन्तु उन्हे यह ढांढस बंधाकर कि अगले साल फिर सांझी मां आएगी और उन्हे फिर से सांझी की एक अच्छी सी प्रतिमा बनाने का अवसर मिलेगा, लडकियों को मना लिया जाता है।सचमुच लडकियों में सांझी बनाने के नाम पर उनकी शिल्पकला प्रर्दशित करने का नवरात्र एक अच्छा अवसर है। जिसमें कन्या की पूजा के साथ ही स्त्री शक्ति सम्मान के रूप में मां दुर्गा का भावपूर्ण स्मरण किया जाता हैऔर श्रद्धालु पूरे नवरात्र उपवास रखकर मां सांझी व मां दुर्गा की पूजा अर्चना करते है। साथ ही नन्ही मुन्नी बच्चियों को भोजन कराकर उनका आर्शीवाद प्राप्त किया जाता है। है न भारतीय संस्कृति की यह अनूठी परम्परा ,जहां आधी दुनिया यानि स्त्री जाति के सम्मान का एक बडा अवसर है। शास्त्रों में भी उल्लेख मिलता है कि जहां नारी का सम्मान होता है वहां ईश्वर वास करते है और जहां ईश्वर वास करते है वह स्थान स्वर्ग बन जाता है।तो आइए इस धरा को भी स्वर्ग बनाए कन्या भ्रूण हत्या होने न दे,बेटी के जन्म पर फक्र करे और उन्हें बेटो के समान पोषण व संरक्षण दे।तभी नवरात्र की सार्थकता है।    
(लेखक- डा.श्रीगोपालनारसन)

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