रामायण ग्रन्थ स्वभाव और आचरण की भव्यता और दिव्यता का महाकाव्य है। इस तथ्य का संकेत हमें दशरथजी के द्वारा कैकेयी, कौसल्या एवं सुमित्रा के पास दोहद के समय के वार्तालाप में प्रत्यक्ष रूप से शत-प्रतिशत दिखाई देता है। इसलिए रामायण किसी भी भाषा की क्यों न हो वह शील और संयम प्रधान महाकाव्य है। यह प्रसंग श्रीराम विजय संत कवि पं. श्रीधर स्वामी मराठी (हिन्दी) में बालकाण्ड के अध्याय ४ में बड़े ही रोचक ढंग से भारतीय संस्कृति में पत्नी के गर्भावस्था के समय दोहद के रूप में परिलक्षित होती है।
गर्भावस्था को प्रत्येक विवाहिता महिला के जीवन की अभूतपूर्व उपलब्धि माना गया है। प्राचीन समय में जिस महिला को यह सुख उपलब्ध नहीं होता था, वह अपने आपको हेय समझती थी। राजा दशरथ की तीनों रानियां भी प्रथम तो मातृत्व सुख से वंचिता थी। गुरु वसिष्ठ ने शृंगी ऋषि को निमंत्रित कर पुत्र कामेष्टि यज्ञ करवाया। यज्ञ में भक्तिपूर्वक आहूतियाँ दी गईं। प्रसन्न होकर हाथ में हविष्यान्न लेकर अग्रि देव प्रकट हुए। गुरु वसिष्ठ ने दशरथजी से कहा कि आप यह खीर तीनों रानियों को बांट दो। हविष्यान्न सेवन करने के पश्चात् तीनों रानियाँ गर्भवती हो गईं। सभी बड़े प्रसन्न थे। राज्य में आनंद मनाया जा रहा था। राजा दशरथ की चिरपरिचित आकांक्षा पूर्ण होने को थी।
रानियों के गर्भ दिन प्रतिदिन चन्द्रकला के समान वृद्धि को प्राप्त हो रहे थे। वसिष्ठ ऋषि नृपश्रेष्ठ दशरथजी से कहने लगे कि राजन् अब अवसर आ गया है कि धर्मशास्त्र के अनुसार प्रत्येक रानी से उनका दोहद पूछा जाए। ऋषि वसिष्ठ की आज्ञा पाकर राजा दशरथजी सर्वप्रथम रानी कैकेयी के महल में गए। गर्भवती होने से कैकेयी को घमण्ड हो गया था। उसे सुन्दरता का घमण्ड तो था ही। जिस प्रकार थोड़ी विद्या पाकर किसी व्यक्ति को घमण्ड हो जाता है उसी प्रकार कैकेयी की स्थिति हो रही थी। अल्पज्ञान होने पर महामूर्ख व्यक्ति गुरु बृहस्पति को भी कुछ नहीं समझता है और बिच्छु के पास एक बूँद विष होता है परन्तु उसकी पूंछ सर्वदा ऊँची उठी रहती है। कैकेयी की स्थिति भी वैसी ही है- ज्ञानलव दुर्विदग्धं ब्रह्मापि नरं न रंचयति। दशरथजी कक्ष में आते हैं। कैकेयी उन्हें सम्मान नहीं देती है। वह मर्यादित नहीं है। राजा खड़े-खड़े ही उसका दोहद (गर्भवती स्त्री की इच्छा) पूछते हैं। वह गर्विता कटु वचन कहती हैं, तुम मेरे दोहद क्या पूर्ण करोगे? दशरथजी ने कहा कि वे कैकेयी के लिए प्राणोत्सर्ग करने के लिए तैयार हैं। बड़ी मनुहार के बात कैकेयी अपना दोहद बतलाने के लिए तत्पर हुई। उसने कहा कि कौसल्या और सुमित्रा के पुत्रों को दूर दिशाओं में भेज दिया जाए। वे दूर वनों में जाएं। उनके समाचार यहाँ तक न पहुँच सके और यहाँ के समाचार उन तक न पहुंच सके। अर्थात् दूरी बहुत अधिक होनी चाहिए। मेरे पुत्र को राज्य भार दें। हे राजेन्द्र मेरे यही दोहद हैं। लोग मेरी निन्दा करेंगे। वे सब दुखी भी होंगे, पर उनका दु:ख ही मेरे लिए सुख है। राजा दशरथ यह सुनकर बड़े दु:खी हुए। उन्हें लगा कि कैकेयी वे वचन अगत्स्य ऋषि के समान है, जिसने उनकी आयु रूपी पानी को पूर्ण रूप से पी लिया है। उन पर दु:खों का पहाड़ टूट पड़ा। वे सुमित्रा के घर में चले गए।
सुमित्रा के घर में पहुँचने पर उन्हें बड़ी मानसिक शान्ति मिली। जैसे ही सुमित्रा ने अपने पति दशरथ के आने की बात सुनी वह उनके स्वागतार्थ सम्मुख आकर खड़ी हो गईं। उनके चरणों में सिर झुकाया। वह लज्जा से खड़ी रही और दशरथजी का षोड़शोपचार पूजन किया। दशरथजी कैकेयी द्वारा दिए गए दु:ख को भूल गए। राजा दशरथ ने रानी सुमित्रा से दोहद के बारे में पूछा। सुमित्रा ने कहा कि मेरा पुत्र अपने बड़े भाई कौसल्या के पुत्र की सेवा करे। बड़े भाई की सेवा करना त्रिभुवन का राज्य प्राप्त करने से भी श्रेष्ठ है। जो पक्षी कल्पवृक्ष पर निवास करता है वह बबूल के वृक्ष को स्पर्श भी नहीं करता है। इस प्रकार अनेक उदाहरण प्रस्तुत कर सुमित्रा ने कहा कि ज्येष्ठ भ्राता सेवा मेरी संतान करे यही मेरा दोहद है। सुमित्रा के वचनों का राजा दशरथ ने अमृत पान किया और उन्हें आश्वासन दिया कि वे उनके दोहद अवश्य पूर्ण करेंगे। सुमित्रा पर अनेक आभूषणों को दशरथजी ने न्यौछावर किए और याचकों को बहुत सारा दान दिलवाया। राजा का मन सुमित्रा के सदन में सन्तुष्ट हो गया।
अब नृपश्रेष्ठ दशरथ ज्येष्ठ रानी कौसल्या के सदन में जाते हैं। कौसल्या ज्ञान का भण्डार है। उनके उदर में तीनों भुवनों के अधिपति, लक्ष्मीपति भगवान विष्णु का निवास है। कौसल्या रत्नों की मंजूषा है। उनके मंदिर में अयोध्या नरेश दशरथ प्रवेश करते हैं। राजा ने मर्यादा का ध्यान रखते हुए भुवन के सेवकों को बाहर रहने का कह दिया है। कौसल्या के बाह्य और अन्तर्मन में परब्रह्म स्वरूप श्रीराम ही व्याप्त है। अन्दर पहुँचने पर दशरथजी ने स्थूल शरीर रूपी ओसारे में देखा, फिर सूक्ष्म देह रूपी मध्य धर बीच दालान में देखा, वहाँ भी कौसल्या कहीं भी नहीं दिखाई दी। उन्होंने आदरपूर्वक पंचज्ञानेन्द्रियों रूपी कोठी में देखा, वहाँ भी अँधेरा था। फिर राजा दशरथ महाकारण (सृष्टि का आद्य तत्व) तो सबसे बड़ा होता है। राजा उस पर चढ़ गए। परन्तु वहाँ भी जगत्पति भगवान को उदर में संचित किए हुए कौसल्या नहीं दिखाई दी। अज राजा के पुत्र दशरथ परात्पर रूपी आँगन में प्रवेश कर गए वहाँ कौसल्या निर्विकल्प (अवस्था) रूपी वृक्ष के तले समाधिस्थ बैठी हुई थी।
कौसल्या की स्थिति बड़ी विचित्र थी। वह आत्मानन्द रूपी सागर में समाधिस्थ हो गई थीं। दशरथ जी को ऐसा लगा मानों कौसल्या उनसे रूठ गई हैं। वे कौसल्या के समीप गए उन्हें हृदय से लगाकर, उन्हें विभिन्न प्रकार से आश्वस्त कर उन्हें समझाने लगे। अब राजा दशरथ जी ने कहा कि उन्हें यह आशीर्वाद मिला हुआ है भगवान श्रीराम पुत्र रूप में आपके घर आएंगे। राम नाम सुनते ही कौसल्या ने आँखे खोल दी। दशरथजी ने उनसे दोहद पूछे तो उन्होंने कहा कि ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान सब कुछ मेरे लिए समाप्त हो चुके हैं। द्वैत-अद्वैत-महाद्वेत से मैं भिन्न हूँ। राजा दशरथ को ऐसा लगा कि रानी किसी पिशाच बाधा के वश में हो गई है। रानी कहे जा रही थी- मैं एक पत्नी व्रती रघुनन्दन राम हूँ। मैं धनुष तोडूंगा। शत्रुओं का नाश करूँगा। पिता के वचनों का पालन करूँगा। मैं वानरों और रीछों की सहायता से लंका के राजा को पराजित करूँगा। ऐसी अनेकानेक बातें सुनकर दशरथजी ने वसिष्ठ जी को निमंत्रित किया और कौसल्या रानी की इस अवस्था पर चर्चा की और निराकरण पूछा। जब वसिष्ठजी ने कौसल्या को देखा तो उन्हें वह राम रूप में दिखाई दीं। वे स्त्री आकृति में नहीं थीं। वसिष्ठजी राम की आकृति देखकर गदगद हो गए। दशरथजी ऋषि की और कौसल्या की ब्रह्मानन्द छवि देखकर घबरा गए। उन्हें लगा कि वे अपने पुत्र का मुख कैसे देखेंगे। वसिष्ठजी ने उन्हें बतलाया कि भगवान राम आपके घर कौसल्या के पुत्र रूप में पधार रहे हैं। दशरथ जी अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने वसिष्ठ जी के पैर पकड़ लिए।
माँ के गर्भ में रहता हुआ बालक बहुत कुछ सीखता है। उसका स्वभाव, मानसिक विचारधारा और जीवन के प्रति उसकी अपेक्षाएँ आदि का विकास गर्भ के ६, ७ तथा ८वें माह में प्रारंभ हो चुके होते हैं। अभिमन्यु का प्रत्यक्ष उदाहरण हम सभी जानते हैं। भारतीय संस्कृति में सोलह संस्कार का जो महत्व है वो समीचीन है। हमारे समाज में गर्भवती स्त्रियों से दोहद पूछने का रिवाज आज भी प्रचलित है। रिश्तेदार भी इस कार्य में सहभागिता करते हैं। सातवें माह में गोद भराई कार्यक्रम भी इसी परम्परा का निर्वहन है। गर्भवती महिलाओं को सम्पूर्ण आभूषण फूलों से निर्मित करवाकर पहनाए जाते हैं। उसकी पसंद के व्यंजन बना कर खिलाए जाते हैं। विभिन्न प्रकार के फल, मिष्ठान से चावल से गोद भरी जाती है। नृत्य गीत आदि भी होते हैं। प्रयास यह रहता है कि गर्भवती महिला का मन प्रसन्न रहे। ताकि गर्भस्थ शिशु पर उसके विचारों का प्रभाव पड़े और भावी बालक चाहे पुत्र हो या पुत्री, उसका जीवन सुखपूर्वक व्यतीत हो और जहाँ भी वह जाए और जिसके साथ भी रहे उसका सामीप्य सभी के मन को प्रसन्न करने वाला हो।
(लेखक-डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता )
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कैकेयी-सुमित्रा एवं कौसल्या का दोहद प्रसंग