श्री संभवनाथ भगवान का कैवल्य ज्ञान कल्याणक
२४ अक्टुम्बर 2021
द्वितीय तीर्थन्कर के निर्वाण के बाद बहुत काल बीत जाने पर तृतीय तीर्थन्कर श्री सन्भवनाथ जी का जन्म हुआ। ग्रैवेयक देवलोक से च्यव कर प्रभु का जीव श्रावस्ती नगरी के राजा जितारि की रानी सेनादेवी की रत्न कुक्षी मे उत्पन्न् हुआ। माता ने चोदह मन्गल स्वप्न देखे। मार्गशीर्ष शुक्ल १५ को तीर्थकर देव का जन्म हुआ। सर्वत्र हर्ष का सन्चार हो गया।
प्रभु के गर्भ मे आने पर महाराज जितारि के असन्भव प्राय : कार्य भी सहज संभव हो गए। बन्जर भुमि पर फ़सले लहलहाने लगी। इन बातो से प्रेरित हो महाराज ने पुत्र का नाम सन्भवनाथ रखा।
काल्क्रम से सन्भवनाथ युवा हुए। कई राजकन्याओ से उनका पाणी – ग्रहण कराया गया। बाद मे उन्हे राजपद पर प्रतिष्ठित करके महाराज जितारि ने प्रव्रज्या अन्गीकार कर ली। एक बार महाराज सन्भवनाथ सन्ध्या के समय अपने प्रासाद की छ्त पर टहल रहे थे। सान्ध्याकालीन बाद्लो को मिलते -बिखरते देखकर उन्हे वैराग्य की प्रेरणा हुई। प्रभु के मनोभावो को देखकर जीताचार से प्रेरित हो लोकान्तिक देव उपस्थित हुए। उन्होने प्रभु के सन्कल्प की अनुमोदना की।
पुत्र को राज्य सोन्पकर सन्भवनाथ वर्षीदान मे सन्लग्न हुए। एक वर्ष तक मुक्त हस्त से दान देकर सन्भवनाथ ने जनता का दारिद्रय दुर किया। तत्पश्चात मार्गशीर्ष शुक्ल पुर्णिमा के दिन सन्भवनाथ ने श्रमण -दीक्षा अन्गीकार की। चोदह वर्षो की साधना के पश्चात प्रभु ने केवल् ज्ञान प्राप्त कर धर्मतीर्थ की स्थाप्ना की| प्रभु के धर्मतीर्थ मे सहस्त्रो -लाखो मुमुक्षु आत्माओ ने सहभागिता कर अपनी आत्मा का कल्याण किया। सुदीर्घ काल तक लोक मे आलोक प्रसारित करने के पश्चात प्रभु सन्भवनाथ ने चैत्र शुक्ल पन्चमी को सम्मेद शिखर से निर्वाण प्राप्त किया।
भगवान के धर्म परिवार मे चारुषेण आदि एक सो पान्च गणधर , दो लाख श्रमण , तीन लाख छ्त्तीस हजार श्रमणिया , दो लाख तिरानवे हजार श्रावक एवम छ्ह लाख छ्त्तीस हजार श्राविकाए थी।
भगवान के चिन्ह का महत्व
अश्व – यह भगवान सम्भवनाथ का चिन्ह है। जिस प्रकार अच्छी तरह से लगाम डाला हुआ अश्व युद्धों में विजय दिलाता है, उसी प्रकार संयमित मन जीवन में विजय दिलवा सकता है। अश्व से हमें विनय ,संयम , ज्ञान की शिक्षाएं मिलती हैं। यदि भगवान सम्भवनाथ के चरणों में मन लग जाए तो असम्भव भी सम्भव हो सकता हैं। जैन शास्त्रों में कहा है- ‘मणो साहस्सिओ भीमो , दुटठस्सो परिधावइ ‘ मन दुष्ट अश्व की तरह बडा साहसी और तेज दौडने वाला है।
कार्तिक कलि तिथि चौथ महान, घाति घात लिय केवल ज्ञान।
समवशरनमहँ तिष्ठे देव, तुरिय चिह्न चचौं वसुभेव।|
ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णाचतुर्थी ज्ञानकल्याणक प्राप्ताय श्रीसंभव0 अर्घ्यं नि0
(लेखक-विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन )