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अष्ट चिरंजीवी कौन है? 

अष्ट चिरंजीवी कौन है? 

हमारे प्रमुख धार्मिक ग्रंथों में अष्ट चिरंजीवियों का महत्वपूर्ण स्थान है। इनका प्रातरूकाल नित्य स्मरण करने से मानव की आयु, यश, प्रभुत्व एवं कीर्ति में निरन्तर वृद्धि होती रहती है। मानव जीवन सुचारू रूप से चलता जाता है। निम्न श्लोक में इन आठ चिरंजीवियों के नाम दिए गए हैं- 
अश्वत्थामा बर्लिव्यासो हनूमांश्च विभीषणरू। 
.परू परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविनरू।। 
सप्तैतान्् स्मरेन्नित्यं मार्कण्डेय तथाष्टमम्। 
जीवेद्वर्षशतं सोपि सर्वव्याधि विवर्जितम्।। 
अर्थात्- अश्वत्थामा, बलि, व्यासजी, हनुमानजी, विभीषण, .पाचार्य, परशुराम तथा मार्कण्डेय- ये अष्टचिरंजीवी हैं। ये सभी पृथक्-पृथक् स्थानों पर निवास करते हैं। धार्मिक ग्रंथ पुराणादि के अनुसार इनके निवास यहाँ इस लेख में दर्शाए गए हैं। 
1. अश्वत्थामा - अश्वत्थामा का निवास मध्यप्रदेश में है। बुरहानपुर जिले के असिरगढ़ नामक स्थान पर एक विशाल किला पहाड़ पर स्थित है। यह मान्यता है कि अश्वत्थामा आज भी वहाँ निवासरत हैं। भक्तों को वे यदा-कदा दर्शन भी देते हैं। 
ष्. बलि - ये भक्त प्रह्लाद के वंशज थे। वे अपनी दानशीलता के लिए प्रसिद्ध थे। वामन अवतार के समय भगवान विष्णु वामनरूप धारण कर उनके दरबार में उपस्थित हुए और उनसे तीन पग जमीन की याचना की। बलि ने भी सहर्ष तीन पग जमीन देने की बात को स्वीकार कर लिया। वामनजी (भगवान विष्णु) ने एक पग में स्वर्ग लोक, द्वितीय पग में मृत्यु लोक तथा तृतीय पग में पाताल लोक नाप लिया। अपने वचन के अनुसार उन्हें तीनों लोक दान में देना पड़े। पुराणों के अनुसार तीसरा पग बलि के मस्तक पर रखा और उसे पाताल का राजा घोषित कर दिया। कुछ समय पश्चात्् बलि ने विष्णुजी को पाताल का द्वारपाल घोषित कर दिया। लक्ष्मीजी विष्णुजी को ढूँढते हुए पाताल लोक पहुँची। उन्होंने वहाँ विष्णुजी को द्वारपाल के रूप में देखा। यह देख उन्हें अत्यन्त आश्चर्य हुआ। लक्ष्मीजी ने बलि के हाथ में रक्षासूत्र बाँधा और राजा बलि को अपना भाई बना लिया। बलि ने विष्णुजी को बन्धनमुक्त कर दिया तथा बलि को पाताल लोक का राज्य सौंप दिया। 
3. व्यासजी - वेदव्यासजी अतिशय विद्वान थे। इन्होंने चारों वेदों का सम्पादन किया था। अठारह पुराणों की रचना भी इन्होंने की है। विश्व प्रसिद्ध महाकाव्य महाभारत की रचना भी वेदव्यासजी ने की है। महाभारत का लेखन कार्य श्रीगणेशजी ने किया है। वेदव्यासजी बोलते थे और श्रीगणेशजी लिखते जाते थे। ये सत्यवती और पाराशर ऋषि के पुत्र थे। इनका जन्म यमुना नदी के एक द्वीप में हुआ था। इनका रंग साँवला होने से ये .ष्ण द्वैपायन भी कहलाए। विद्वानों का कथन है कि आज भी इनका निवास काशीनगरी में है। 
4. हनुमानजी - हनुमानजी बल और कुशाग्र बुद्धि के देवता हैं। सभी देवताओं ने उन्हें चिरंजीवी होने का वरदान दिया है। हनुमानजी ने बाल्यावस्था में सूर्य को निगलने का प्रयत्न किया था, तब इन्द्र देवता ने इन पर वज्र प्रहार किया था। इस प्रहार से ये मरणासन्न हो गए थे। हनुमानजी की डाढ़ी (हनु) पर निशान बन गया था। इनके पिता वायु देवता इस घटना से कुपित हो गए थे। इन्हें आठ देवताओं ने चिरंजीवी का वरदान दिया था। वाल्मीकि रामायण के अनुसार इन्हें निम्नलिखित आठ देवताओं ने वरदान दिए थे- 
1. इन्द्र - ये मेरे वज्र के द्वारा भी नहीं मारा जा सकेंगे। 
2. सूर्य - मैं अपने तेज का सौंवा भाग इन्हें देता हूँ। ये मेरे वरदान से अच्छा वक्ता बनेंगे। इनके समान विश्व में कोई दूसरा नहीं होगा। 
3. वरुण - दस लाख वर्षों की आयु हो जाने पर भी मेरे पाश और जल से तुम्हारी मृत्यु नहीं होगी। 
4. यम - मेरे दण्ड से अवध्य और नीरोग रहोगे। 
5. कुबेर - युद्ध में किसी प्रकार का विषाद तुम्हें न होगा। मेरी गदा भी संग्राम में तुम्हारा वध न कर सकेगी। 
6. विश्वकर्मा - मेरे द्वारा निर्मित दिव्य अस्त्र-शस्त्र से तुम सर्वदा अवध्य रहोगे। और चिरंजीवी रहोगे। 
7. शंकरजी - यह मेरे तथा मेरे आयुधों से हमेशा अवध्य रहेगा। 
8. ब्रह्माजी - वायुदेव का यह पुत्र शत्रुओं के लिए भयंकर होगा। यह मित्रों को अभयदान देगा। युद्ध में इससे कोई जीत नहीं सकेगा। यह दीर्घायु वाला होगा। ब्रह्मदण्ड भी इसका वध नहीं कर सकेगा। यह अपनी इच्छानुसार आ-जा सकेगा। इसकी गति भी इच्छानुसार तीव्र या मन्द होगी। यह कहीं रुकेगा नहीं। यह श्रीराम के सम्पूर्ण कार्य पूर्ण करेगा। रावण के संहार में सम्पूर्ण समय श्रीराम के साथ रहेगा। 
5. विभीषण - ये रावण के छोटे भाई थे। ये श्रीरामजी के परमभक्त थे। जब हनुमानजी लंका में गए तो उन्हें विभीषण का घर ऐसे दिखा- 
रामायुध अंकित गृह शोभा बरनी न जाई। 
नव तुलसी का वृन्द तहँ देखि हरष कपि राई।। 
(श्रीराम च.मा. सुन्दरकाण्ड दोहा 5) 
इन्होंने युद्ध में श्रीरामजी की सहायता की थी। श्रीराम ने ही इन्हें अमर होने का आशीर्वाद दिया था। इनका निवास लंका वर्तमान में श्रीलंका में है। 
6. .पाचार्य - ये पाण्डवों के कुलगुरु थे। इनके पिता का नाम गौतम शरद्वान ऋषि था। इन्द्र ने इनकी तपस्या भंग करने के लिए जानपदी नामक देवकन्या भेजी थी। उसके गर्भ से एक बालक तथा एक बालिका का जन्म हुआ था। बच्चों को जंगल में छोड़ दिया था। महाराज शान्तनु ने बच्चों को उठा लिया तथा उनका पालन पोषण किया। इन दोनों का नाम .प तथा .पी रखा गया। .पी का विवाह द्रोणाचार्य से हुआ। द्रोणाचार्य कौरवों के कुलगुरु थे। .पाचार्य अश्वत्थामा के मामा थे। इन्होंने महाभारत युद्ध में कौरवों का साथ दिया। इनका निवास आज भी कुरुक्षेत्र में है। 
7. परशुराम - ये विष्णुजी के छठे अवतार माने जाते हैं। इनके पिताजी का नाम जमदग्नि था। माता का नाम रेणुका था। इनका जन्म अक्षय तृतीया के दिन हुआ था। इन्होंने 21 बार पृथ्वी पर क्षत्रिय राजाओं का अंत किया। इनका प्रारंभिक नाम श्रामय़ था। इन्होंने शिवजी की तपस्या की जिससे शिवजी ने प्रसन्न होकर उन्हें अपना फरसा दे दिया। इससे परशुराम कहलाए। श्रीराम ने जब जनकजी के यहाँ धनुष भंग किया तो ये अत्यधिक क्रोधित हो गए थे। लक्ष्मणजी पर तो इनका क्रोध अति तीव्र था। श्रीराम ने धैर्य धारण कर इन्हें समझाया और कहा कि हमारा नाम तो लघु (राम) है आप हमसे बड़े हैं, आप परशुराम हैं। भगवान विष्णु ने इन्हें रामावतार के पश्चात्् पृथ्वी पर रहने का आशीर्वाद दिया। ये आज भी महेन्द्र पर्वत (ओडिशा) में निवासरत हैं। 
8. मार्कण्डेय - मार्कण्डेय मुनि अभिवादनशीलता के सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं। उनके व्यवहार में शिष्टाचार, नम्रता, मर्यादा के लक्षण, वृद्धों तथा गुरुजनों के प्रति आदरभाव आदि अनेक सद्गुणों का समावेश था। उन्हें सर्वदा चिरंजीवी होने का आशीर्वाद अपने गुरुजनों से प्राप्त होता था। एक दिन बाल्यावस्था में वे अपने पिताजी की गोद में खेल रहे थे, तभी एक महाज्ञानी उधर से निकले। बालक को देखकर उन्होंने भविष्यवाणी की कि यह बालक दैवीय गुणों से सम्पन्न है। ऐसा बालक अजर-अमर होता है परन्तु आज से छरू मास के अन्दर इसकी मृत्यु के लक्षण दिखाई दे रहे हैं। आप इसके दीर्घ जीवन के लिए प्रार्थना करें। इनके पिता मृकुण्डु ने इनकी मृत्यु टालने के लिए इनका यज्ञोपवीत संस्कार कर दिया और उन्हें अभिवादनशीलता तथा विनयशीलता का महत्व समझाया- 
श्यं किंचितद्धीक्षसे पुत्र भ्रममाणं द्विजोत्तमम्। 
तस्यावश्यं त्वया कार्य विनयादभिवादनय़। 
(स्कंद-नाग-ष्ष्/17) 
अर्थात्- हे पुत्र तुम्हें कहीं भी उत्तम ब्राह्मण घूमते हुए दिखे तो तुम अवश्य उन्हें विनयपूर्वक अभिवादन करो। तभी से अपने पिता की आज्ञा मानकर वे बड़ों का विनयपूर्वक अभिवादन करके आशीर्वाद प्राप्त करते रहे। मार्कण्डेय के जीवन के तीन दिन शेष रह गए। उधर से सप्तर्षिगण निकले। मार्कण्डेयजी ने प्रत्येक ऋषि को आदरपूर्वक अलग-अलग नमन किया। उन सभी ने मार्कण्डेयजी को दीर्घायु होने का आशीर्वाद प्रदान किया। तभी वशिष्टजी ने बालक को देखकर कहा इसकी तो केवल तीन दिन की आयु ही शेष बची है अतरू हमें तत्काल इस बालक के चिरंजीवी होने की युक्ति निकालना चाहिए। वे बालक को लेकर ब्रह्माजी के पास गए। ब्रह्माजी ने भी बालक को दीर्घायु होने का आशीर्वाद दिया। उन्होंने कहा कि इस बालक ने विनयशीलता और अभिवादनशीलता के कारण मृत्यु को भी जीत लिया है। इसलिए यह जरामुक्त होकर अजर-अमर होगा। 
एक दिन मार्कण्डेय एक शिवालय में बैठकर, ध्यानस्थ हो महामृत्युंजय मंत्र का जाप कर रहे थे कि निर्धारित समय पर वहाँ यमदूत आ गए। उन्होंने मार्कण्डेय को पकड़ने का प्रयत्न किया तो मार्कण्डेयजी ने शिवलिंग को .ढ़ता से पकड़ लिया। शिवलिंग में से तत्काल साक्षात्् शिवजी प्रकट हुए और उन्होंने मार्कण्डेय को यमदूतों से बचा लिया। 
विनम्रता और अभिवादनशीलता बहुत बड़ा गुण है। इसके सन्दर्भ में एक छोटा प्रसंग है। किसी कम्पनी में एक अधिकारी था। वह ऑफिस में हँसता हुआ आता सभी से गुडबॉय करते हुए अपने कार्य में व्यस्त हो जाता। एक दिन कार्यालय की छुट्टी होने पर भी वह अधिकारी लिटमेन को नहीं दिखलाई दिया। उसे चिन्ता हुई और वह सभी जगह ढूँढते हुए तलघर में पहुँचा। उसने देखा कि वहाँ वह कर्मचारी कार्य में व्यस्त था। लिटमैन ने उसे स्मरण दिलाया कि कार्यालय बन्द हो चुका है। सभी कर्मचारीगण जा चुके हैं। मुझे आपके गुडबॉय की याद नहीं आती तो मैं कार्यालय बन्द करके चला जाता। आप की गुडबॉय की आदत ने आपको कार्यालय में बन्द होने से बचा लिया। यह स्नेहपूर्वक श्रद्धा से अभिवादन करने का प्रतिफल है। 
हमारे ग्रन्थों में ऐसा कहा गया है कि ये सभी आठ चिरंजीवी अद्यपर्यन्त तपस्यारत है। कलियुग के अन्त में ये सभी उपस्थित होकर दर्शन देंगे। धर्मग्रंथों के अनुसार कलियुग में उत्तराखण्ड के श्कलापय़ नामक ग्राम में एक ब्राह्मण के घर कल्कि अवतार का जन्म होगा। यह ग्राम वर्तमान में भी उत्तराखण्ड में है। वहाँ के निवासी हिमालय की कंदराओं में अलग-अलग स्थान पर निवास कर रहे हैं। स्कंद पुराण में भी यह कहा गया है। इनको नारदजी ने वहाँ निवास करने के लिए कहा है। सूर्यवंश तथा चन्द्रवंश के राजा के अंतिम वंशज भी यहाँ रह रहे हैं। भीष्म पितामह के ताऊ तथा इक्ष्वाकुवंशीय भी यहाँ रह रहे हैं। ये भी कलियुग के अन्त में बाहर आएँगे। इनके अतिरिक्त भक्त प्रह्लाद, जामवन्त, ऋषि अगस्त्य, ऋषि वशिष्ट भी चिरंजीवी हैं। 
वर्तमान समय में नई पीढ़ी को चाहिए कि वे अपने माता-पिता से इन अष्ट चिरंजीवियों के बारे में जानकारी प्राप्त करें। प्रातरूकाल उनके नामों का स्मरण करें। उनकी जो चारित्रिक, बौद्धिक और व्यावहारिक विशेषताएँ हैं, उनसे अवगत होकर अपने जीवन में उतारने का प्रयत्न करें, इससे उन्हें भी चिरंजीवी होने का सौभाग्य प्राप्त हो सकेगा। 
(लेखक-डॉ. शारदा मेहता )
 

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