जब-जब इस पृथ्वी पर अनाचार, दुराचार तथा अनीति का साम्राज्य स्थापित हुआ। चारों ओर राक्षसवृत्ति का बोलबाला था। ऐसे समय भगवान गणेश ने प्रत्येक युग में भिन्न-भिन्न स्वरुप में प्रकट होकर विभिन्न राक्षसों का सर्वनाश किया है। हर युग में उनके अलग-अलग नाम, गुण, कर्म और वाहन रहे और उन्होंने पृथक-पृथक असुरों का वध अलग-अलग युग में किया है।
.तयुग (सतयुग)- इस युग में गणेशजी सिंह पर आरुढ़ हुए तथा महोत्कट विनायक के नाम से प्रसिद्ध हुए। वे कश्यप तथा अदिति के घर अवतरित हुए।
कश्यपस्य गृहे देवो।़अवतरिष्यति साम्प्रतम्।
करिष्यत्यभ्दुतंकर्म पदानि वरू प्रदास्यति।।
दुष्टानां निधनं चौव साधूनां पालनं तथा।
(गणेश पु. ष्/6/17-18)
श्अर्थात्् सम्प्रति देवाधिदेव गणेश महर्षि कश्यप के घर अवतार लेंगे। अद्भुत कर्म करेंगे। पूर्व पद भी प्रदान करेंगे तथा दुष्टों का संहार और साधुओं का पालन करेंगे।य़
गणेशजी ने अपने अलौकिक स्वरूप का उपसंहार किया तथा बच्चे का रूप धारण कर माता अदिति की अंक में एक स्वस्थ शिशु के रूप में प्रकट हुए-
इदं रुपं परं दिव्यमुपसंहर साम्प्रतम्।
प्रा.तं रूपमास्थाय क्रीडस्व बटुको यथा।।
(गणेश पु. 9-6-35)
महोत्कट ने धूम्राक्ष, जृम्भा, अंधक, नरान्तक तथा देवान्तक आदि राक्षसों का वध किया।
त्रेता युग - इस युग में गणेशजी ने मयूरेश्वर नाम से जन्म लिया। इस अवतार में वे माता पार्वती के यहाँ अवतरण किया। सिन्धु नामक राक्षस ने पृथ्वी पर आतंक मचा रखा था। सारी पृथ्वी रक्त रंजित हो गई। सर्वत्र हाहाकार मचा रखा था। भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की चतुथब तिथि को पार्वती माता के सामने विराट रूप में अवतरित हुए। माता पार्वती ने प्रार्थना करके कहा कि आप मुझे शिशु रूप में दर्शन दीजिए। गणेशजी बाल क्रीड़ा करने लगे। अचानक ग्रध्रासुर राक्षस ने पक्षी रूप धारण किया और बालक को चोंच में पकड़ कर आकाश में उड़ान भरी। उन्होंने मुष्टि प्रहार से ग्रध्रासुर का वध कर दिया। एक बार पालने में लेटे हुए गणेशजी को क्षेम तथा कुशल नामक राक्षस उन्हें मारने आये। बालक ने अपने नन्हें पदाघात से उन दोनों राक्षसों को मोक्ष प्रदान कर दिया। एक बार ऋषि पुत्र का वेश धारण कर हेरम्ब नाम का राक्षस खेल रहा था। गणेश ने उसका गला दबा कर प्राणान्त कर दिया। इसी प्रकार उन्होंने बकासुर, नूतन, कमलासुर आदि कई राक्षसों का वध कर दिया और मयूरेश नाम से प्रसिद्ध हुए। दैत्यराज सिन्धु ने एक बार देवताओं को कारागार में डाल दिया तो मयूरेश ने परशु के प्रहार से उसका भी प्राणान्त कर दिया। उन्होंने अपनी लीला का संवरण किया और अन्तर्धान हो गए।
द्वापर युग - एक दिन शिवजी ब्रह्माजी के दर्शन के लिए पहुँचे। ब्रह्माजी शयन कर रहे थे। उठते ही उन्होंने जभाई ली। उसमें से एक विशाल आ.ति वाला पुरुष प्रकट हुआ। उस पुरुष ने घोर गर्जना की। उस गर्जना से सम्पूर्ण पृथ्वी काँप गई। ब्रह्माजी ने उस आ.ति से उसका परिचय पूछा तो उस महाघोर पुरुष ने कहा कि मैं आपकी जँभाई से उत्पन्न हुआ हूँ। अतरू मुझे पुत्र रूप में स्वीकार कीजिए। उस पुरुष का अरुण वर्ण होने से ब्रह्माजी ने उसका नाम शसिन्दुरय़ रख दिया। उसे वरदान भी दे दिया कि तुम जिसे भी अपनी दोनों भुजाओं से कस कर पकड़ोगे उसके टुकड़े-टुकड़े हो जाएंगे। उस पुरुष ने पितामह को ही अपनी दोनों भुजाओं में पकड़ने का प्रयत्न किया तो उन्होंने शाप दिया कि तुम असुर हो जाओ। प्रभु गजानन ही तुम्हारे उद्धार के लिए पृथ्वी पर अवतरित होंगे। वह भगवान विष्णु के पास गया। विष्णु जी ने उसे शंकर जी के पास भेज दिया। शंकरजी उस समय ध्यानस्थ थे। वह सतीजी के पास पहुँचा और उनकी वेणी पकड़कर घसीटने लगा। कोलाहल से शंकरजी की तपस्या भंग हो गई। क्रोधित होकर वे सिन्दूर के पीछे दौड़े। माता सती ने मयूरेश का चिन्तन किया। वे शंकरजी तथा माता के मध्य ब्राह्मण वेश में प्रकट हो गए। माता मयूरेश के पास गई और वचन दिया कि जिसकी जीत होगी माता उसी की हो जाएगी। शिवजी ने सिन्दूर पर परशु से प्रहार किया जिससे उसकी शक्ति क्षीण हो गई। युद्ध में शंकरजी विजयी हुए। देवताओं ने और समस्त ऋषिगणों ने कठोर तप किया, जिससे गजानन प्रकट हुए और उन्होंने कहा कि मैं माता पार्वती के पुत्र रूप में षड्भुज मयूरेश्वर के रूप में प्रकट होऊँगा। मेरा नमा गजानन होगा। माता की प्रार्थना सुनकर एक अद्भुत बालक शिशु के रूप में उपस्थित हुआ। उस बालक की चार भुजाएं थीं। मस्तक पर चन्द्रमा, हृदय पर चिन्तामणि तथा नासिका के स्थान पर शुण्डदण्ड विराजित थे। उनका नामकरण गजानन किया गया। उन्होंने शिवजी से कहा कि मेरे एक परमभक्त हैं। उनकी पत्नी का नाम पुष्पिका है। वह गर्भवती है। उसने बारह वर्षों तक कठोर तपस्या की है। मैंने उन्हें वर दिया है कि मैं तुम्हारा पुत्र बन कर आऊँगा। उसने अभी-अभी एक पुत्र को जन्म दिया है। उस पुत्र को एक राक्षसी उठा कर ले गई है। पुष्पिका मूर्च्छित हो गई है। इसलिए पिताजी आप मुझे वहाँ पहुँचा दीजिए। नन्दी उन्हें लेकर वायु वेग से पुष्पिका के पास रख आए। होश आने पर पुष्पिका ने बालक को देखा कि वे भय से काँपने लगी। किसी ने कहा कि ऐसे बालक को घर में नहीं रखना चाहिए, अतरू इसे जंगल में छोड़ दो। शिशु को जंगल में सरोवर के तट पर छोड़ दिया गया। उधर से पाराशर ऋषि निकले तो उन्होंने उस बालक के पैरों पर ध्वज, अंकुश, कमल आदि चि देखे। यह एक अलौकिक शिशु है, ऐसा उन्होंने सोचा। यह साक्षात्् परब्रह्म परमेश्वर है। उन्होंने शिशु के चरणों में प्रणाम किया और उसे गोद में लेकर आश्रम में आ गए। जैसे ही बालक आश्रम में आया वहाँ का कायाकल्प हो गया। जब गजानन नौ वर्ष के हुए वे सभी वेद विद्या, शास्त्रास्त्र संचालन आदि में पारंगत हो गए। सभी उनकी विलक्षण प्रतिभा को देखकर विस्मित थे। सिन्दूर नामक राक्षस के अत्याचार की सूचना पाराशरजी के आश्रम तक पहुँच गई तो गजानन ने पिता पाराशरजी तथा माता वत्सला से आशीर्वाद लिया कि वे सिन्दूर से युद्ध में विजयी हों। सभी हथियार अपने हाथों में लेकर मूषक पर सवार हो गजानन असुर सिन्दूर से युद्ध करने निकल पड़े। उन्होंने विराट रूप धारण कर लिया। सिन्दूर राक्षस उस स्वरूप में गजानन को देखकर भयभीत हो गया। गजानन ने उसका कंठ कस कर पकड़ लिया। असुर का प्राणान्त हो गया। उसके रक्त को गजानन ने अपने अंगों पर लगा लिया तभी से उसका नाम सिन्दूरवदन हो गया। सभी देवगण प्रसन्न हो गए। वाद्य बजने लगे। अप्सराएं नृत्य करने लगीं। गजानन ने कहा कि इस असुर से सम्पूर्ण पृथ्वी त्रस्त थी। मैंने उसका वध कर दिया है। राजा वरेण्य पुत्र की उपलब्धि से प्रसन्न थे। वे भी वहाँ आ गए। उन्होंने गजानन की पूजा की और पश्चाताप किया कि मैंने बड़ा अनर्थ किया कि अपने ही पुत्र को बाहर खदेड़ दिया था। गजानन ने कहा कि आपने मुझे पुत्र रूप में प्राप्त करने की इच्छा व्यक्त की थी, अतरू मैं आपका पुत्र बना और सिन्दूर असुर का वध कर अब मैं स्वधाम प्रस्थान करना चाहता हूँ। राजा वरेण्य ने कहा कि मुझे भी आप जीवन मुक्त कीजिए। गजानन ने राजा वरेण्य के सिर पर त्रितापहारी वरदहस्त रख दिया और अन्तर्धान हो गए।
कलियुग - कलियुग में गणेशजी का अवतार धूर्मकेतु के नाम से प्रसिद्ध होगा। अधर्म सर्वत्र व्याप्त रहेगा। जनसमूह दुरूखी होकर त्राहि-त्राहि करने लगेगा। असुरों से व्याप्त इस पृथ्वी पर गजानन श्शूर्पकर्णय़ या श्धर्मवर्णय़ नाम से अवतरित होंगे। उनका स्वरूप परम तेजस्वी क्रोध युक्त होगा। वे अश्वारुढ़ होंगे। अश्व का रूप नीले रंग का होगा। कुछ ग्रंथ में यह वर्णित है कि अश्व का रंग सफेद होगा। उनके हाथ में एक खड्ग होगा। वह खड्ग अति तीक्ष्ण होगा। उनके अनेक सैनिक होंगे।
धूम्रकेतु उन सम्पूर्ण असुरगणों का सर्वनाश कर देंगे। उनके नेत्र लाल रंग के होंगे और अग्रिवर्षा करेंगे। उस समय असुरों के भय से पर्वतों की कन्दराओं में छिपकर बैठे हुए ब्राह्मण अपना जीवन-यापन वन्य फलों के सेवन से कर रहे होंगे। धूम्रकेतु उन सदाचारियों का सम्मान करेंगे। उनके द्वारा किए गए सत्कर्मों तथा प्रेरणादायी कार्यों के लिए उन्हें प्रोत्साहित कर उनका उत्साहवर्धन करेंगे। इस प्रकार धीरे-धीरे कलियुग का समापन होगा और सत्ययुग का प्रारंभ होगा।
गणेशजी के इन सभी अवतारों का पौराणिक, ऐतिहासिक तथा धार्मिक महत्व है। गणेशजी तो हमारे प्रथम पूज्य देव हैं ही वे हमारे अन्दर समाहित अहंकार, काम, क्रोध, मोह, लोभ आदि आन्तरिक दोषों को दूर करते हैं। ऐसे सरल हृदय श्रीगणेशजी को कोटि-कोटि नमन।
(लेखक-डॉ. शारदा मेहता )
आर्टिकल
चारों युगों में श्री गणेश के भिन्न-भिन्न अवतार ॐ श्रीं हीं क्लीं गणेश्वराय ब्रह्मरुपाय चारवे। सर्वसिद्धि प्रदेशाय विध्नेशाय नमो नमरू।। (ब्रह्मवैवर्तपुराण गणपतिखण्ड 13/3)